कर्नाटक हाईकोर्ट की टिप्पणी कितनी सही? क्या पुरुषों को नहीं मालूम "एक महिला" से कैसा बर्ताव करें? -दिनेश मालवीय


स्टोरी हाइलाइट्स

The Karnataka High Court on Monday made very strict and important remarks in a divorce case.

कर्नाटक हाईकोर्ट की टिप्पणी कितनी सही? क्या पुरुषों को नहीं मालूम "एक महिला" से कैसा बर्ताव करें? -दिनेश मालवीय कर्नाटक हाईकोर्ट ने सोमवार को तलाक के एक मामले में बहुत सख्त और महत्वपूर्ण टिप्पणी की. कोर्ट ने कहा कि, “पुरुष प्रधान समाज में लोगों को यह नहीं मालूम कि एक सशक्त महिला से किस तरह बर्ताव किया जाना चाहिए”. एक याचिका की संयुक्त सुनवाई के दौरान एक जज ने कहा कि महिला को कई संघर्षों का सामना करना पड़ता है. समाज हमेशा महिलाओं को दबा-कुचला कर रखना चाहता है. समाज महिला सशक्तिकरण की बातें करता है, पर उसे यह अभी तक नहीं पता कि एक महिला से किस तरह व्यवहार करना चाहिए. इस टिप्पणी के सही और सटीक होने में कहीं कोई संदेह नहीं है. सचमुच हमारे समाज में सामान्यत: ऐसा ही होता है. हमारा समाज पुरुष प्रधान रहा है और इसी कारण सदियों से महिलाओं ने बहुत कष्ट सहे हैं. उन्हें अधिकतर भोग की वस्तु के रूप में ही इस्तेमाल किया गया है. उसके साथ यह व्यवहार व्यक्तिगत-सामाजिक स्तर के साथ ही व्यापक स्तर पर भी हुआ है. कोई युद्ध होता था तो हारने वाले राज्य की लूटपाट के साथ स्त्रियों और लड़कियों की इज्जत से जमकर खिलवाड़  किया जाता था. घरेलू और सामाजिक स्तर पर भी, अपवादों को छोड़कर, उनकी स्थिति कमोवेश भोग्या से अधिक नहीं रही. जन्म से लेकर बड़े होने तक बेटी के साथ भेदभाव बहुत खुलकर होता रहा है. आज भी अधिकतर लोग परिवार में बेटे के जन्म की ही कामना करते हैं. एक लड़की को जन्म से ही कितनी परेशानियों और कष्टों का सामना करना पड़ता है, यह तो वही जानती है. थोड़ी उम्र बढ़ने के साथ ही वासना से भरे लोगों की गिद्ध नज़रों का शिकार होना पड़ता है. स्कूल, बाज़ार, कॉलेज, समारोह, सार्वजनिक परिवहन, दूकान, ऑफिस सहित कोई ऐसी जगह नहीं है, जहाँ उन्हें अपनी इज्जत बचाने के लिए कितने ही जतन नहीं करने पड़ते हैं. परिवार के निकट सम्बन्धी ही उनके साथ दुराचार करने की फ़िराक में रहते हैं. अपराध के सरकारी अभिलेखों के अनुसार बच्चियों और स्त्रियों से अधिकतर दुराचार उनके करीबी रिश्तेदार ही करते हैं. अधिकतर लड़कियां और स्त्रियाँ शर्म और सामाजिक बदनामी के डर से इस बात को उजागर नहीं कर पातीं और हरएक जुल्म सहती रहती हैं. आज तो स्थिति और भी भयावह हो गयी है. किसी पर भी विश्वास करना आत्मघाती हो सकता है. शादी की स्थिति भी कोई बहुत आदर्श नहीं है. पति ठीक मिल जाए तो ठीक,वरना लड़की उसकी मनमानियों को जीवनभर सहती रहती है. ससुराल में सास, सौसर, नंद, जेठानियाँ अगर थोड़ी-सी भी ठीक हों तो ठीक, वरना जुल्म करने में वे पुरुषों से पीछे नहीं रहतीं. यह सब परिवार में वर्चस्व को लेकर होता है. हम इस बात पर ज़रा भी नहीं सोचते कि एक लड़की शादी के बाद अपने पति और ससुराल की खातिर अपने माता-पिता, भाई-बहन, घर-द्वार को छोड़कर आती है. वह मन में कई सपने लेकर इस आशा के साथ वहाँ जाति है कि उसे ससुराल में घर जैसा माहौल मिलेगा. लेकिन दुर्भाग्य से अधिकतर मामलों में ऐसा नहीं हो पाता. लेकिन फिर भी वह किसी न किसी तरह एडजस्ट करती रहती है. भारतीय समाज में शादी के बाद ज्यादातर लड़कियां अपना पूरा जीवन पति और उसके परिवार को समर्पित कर देती हैं. उनकी पिछली पहचान को ख़त्म करने के लिए अधिकतर परिवारों में उनका नाम तक बदल दिया जाता है. सरनेम तो बदल ही जाता है. वह अपनी पहचान को अपनी पति की पहचान के साथ विलीन कर देती है. वह पति की उन्नति में ही अपनी उन्नति देखती है. पति को आगे बढ़ने में उससे ज्यादा मदद कोई नहीं करता. बच्चों को जन्म देने और उनका पालन-पोषण करने में उसके त्याग और तपस्या को शब्दों में व्यक्त नहीं किया जा सकता.  हमें रोजाना ऐसे दृश्य देखने को मिलते हैं कि स्त्रियाँ बाजार से खरीदा हुआ घर का कोई सामान स्कूटर की पीछे की सीट पर गोद में रखे हुए जा रही है. उस समय उसके चेहरे पर गर्व का भाव देखने लायक होता हो. वह तिनके-तिनके से घर को बनाती है, उसे जोड़कर रखती है और परिवार की समृद्धि के लिए यथासंभव सब कुछ करती है. उसके सारे व्रत-पूजा पति, बच्चों और परिवार की खुशहाली के लिए होते हैं. हालाकि उसकी खुशहाली के लिए कोई व्रत नहीं करता. वह पूरे परिवार के हर सदस्य की छोटी से छोटी ज़रुरत का ध्यान रखती है और उसे पूरा करने में अपनी ही इच्छाओं को बलिदान कर देती है. इतना सबकुछ करने के बाद भी उसके साथ हमारा व्यवहार बहुत आपत्तिजनक होता है. हम उसका सिर्फ उपयोग करते हैं. बच्चों के बड़े हो जाने पर, उसका बुढ़ापा आ जाने पर या पति की मृत्यु हो जाने पर उसे जो कुछ अपमान और कष्ट सहन करने पड़ते हैं, उन्हें वही जानती है. ऎसी स्थिति में बीमार हो जाने पर तो ज्यादातर परिवारों में उसके अपने बच्चे ही उसके शीघ्र दुनिया से उठ जाने की कामना करने लगते हैं. अंत में उसके हाथ कुछ नहीं रह जाता. हालाकि इसके अपवाद भी हैं, लेकिन अपवाद ही हैं. बहरहाल, हर परिवार और घर में ऐसा ही होता है, यह कहना गलत है. अनेक परिवारों में ,पति, सास-ससुर, नंद, जेठानी आदि वैसे नहीं होते जैसा कि ऊपर बताया गया है. लेकिन ऐसा बहुत कम होता है. कोई भी सामान्य टिप्पणी प्रमुख रुझान को देखते हुए की जाती है. हाईकोर्ट की टिप्पणी को इसी रूपमें देखा जाना चाहिए. बहरहाल, इस बात को भी नज़रअंदाज़ करना उचित नहीं है कि परिवारों में लड़कियों और स्त्रियों के साथ जो गलत होता है, उसकी अधिकतर जिम्मेदार स्त्रियाँ ही होती हैं. वर्चस्व बनाए रखने के लिए वे किसी भी हद तक चली जाती हैं. बहू ज़रा भी कमज़ोर पड़े तो वे उसपर सवार हो जाती हैं. लेकिन जब बहू का समय आता है, तो वह भी चुन-चुन कर बदले लेती है. यह तथ्य भी नज़रंदाज़ नहीं किया जा सकता कि कुछ स्त्रियाँ स्वभाव से ही कर्कशा होती हैं. वे शादी के बाद न केवल पति, बल्कि उसके परिवार के जीवन को नरक बनाने में कोई कसर नहीं छोड़तीं. ऐसी स्त्रियों और लड़कियों की संख्या भी बहुत कम नहीं है. सच पूछिए तो यह एकतरफा मामला है भी नहीं. जीवन को स्वर्ग या नरक बनाने में स्त्री और पुरुष यदि बराबर से सहभागी हों, तभी आदर्श समाज की कल्पना की जा सकती है. हर धर्म के लोग कहते हैं कि हमारे धर्म-ग्रंथ में स्त्रियों को बहुत ऊँचा स्थान दिया गया है. लेकिन धर्मग्रन्थ में कुछ भी लिखा हो, महत्त्व तो इस बात का है कि आप उसपर कितना अमल कर रहे हैं. धर्मग्रंथों में भी बहुत-सी ऎसी बातें हैं, जिनकी किसी युग में प्रासंगिकता रही होगी, लेकिन आज बिल्कुल भी नहीं है. हर युग का अपना धर्म और आवश्यकताएँ होती हैं. उसीके अनुसार समय-समय पर ग्रंथों में भी बदलाव लाया जाए तो उचित है, वरना हजारों या सैंकड़ों साल पुरानी बातों को ढोते रहने से हमें मानसिक रूप से बीमार समाज ही मिलेगा. पुराना सबकुछ  बुरा नहीं है, तो सबकुछ अच्छा भी नहीं है.  विवेक के साथ उनमें से अच्छे को चुन लिया जाए और जो अप्रासंगिक है, उसे जड़ से समाप्त कर दिया जाए. यही आदर्श समाज की मांग है. कर्नाटक की बात को इसी सन्दर्भ और परिप्रेक्ष्य में देखा जाना चाहिए.