सुभाषचंद्र बोस के प्रेरणास्रोत स्वामी विवेकानंद और अरबिंदो थे -दिनेश मालवीय


स्टोरी हाइलाइट्स

Life is an enigma. Those who understood some point of life, they believed that only by walking on the path of religion and spirituality

इस महान नेता की मृत्यु का कारण अभी तक स्पष्ट नहीं -दिनेश मालवीय   जीवन एक अबूझ पहेली है. जिन लोगों को भी जीवन का कुछ मर्म समझ में आया, उन्होंने यही माना कि धर्म और अध्यात्म के मार्ग पर चलकर ही व्यक्ति महान कम करने में समर्थ होता है. नेताजी सुभाषचन्द्र बोस के साथ भी ऐसा ही हुआ. उन्होंने अपनी संगठन क्षमता, सैन्य कौशल और आत्मबल से ऐसा कारनामा कर दिखाया, कि ब्रिटिश शासन की नींव हिल गयी. उनमें यह आत्मबल, आध्यात्मिक साधना से ही प्राप्त हुआ. इसकी प्रेरणा उन्हें स्वामी विवेकानंद और महर्षि अरबिंदों से मिली. एक बार उन्हें संयोग से स्वामी विवेकानंद की एक पुस्तक पढ़ने को मिली. इस पुस्तक से उन्होंने यह सारतत्व ग्रहण किया कि त्याग से ही लक्ष्य प्राप्त किया जा सकता है. उन्होंने मन की एकाग्रता के लिए योग का अभ्यास करना शुरू कर दिया. इस बीच उन्हें एक सन्यासी ने सात्विक जीवन जीने की प्ररणा देकर शाकाहारी भोजन, ध्यान और हरदिन अपने माता-पिता को प्रणाम करने की शिक्षा दी. नेताजी ने इसे अक्षरश: अपना लिया. इसके बाद महर्षि अरबिंदो का साहित्य पढ़कर उन्हें धर्म और राष्ट्र के बीच समन्वय की आवश्यकता का अनुभव हुआ. उन्होंने महसूस किया कि अध्यात्मिक शक्ति से ही वह राष्ट्र की बेहतर सेवा कर सकते हैं. सुभाष बाबू का जन्म 23 जनवरी 1897 को एक कायस्थ परिवार में हुआ था. उनकी माता बहुत धर्मशील थीं. उन्होंने बचपन से ही सुभाष बाबू में धर्म, सत्य, साहस और दया के संस्कार डाले. उनके पिता का नाम जानकीदास था. सुभाष बाबू को देशभक्ति के संस्कार स्कूल के प्राचार्य बेनीमाधवदास से भी मिले. सुभाष बाबू बहुत निर्भीक थे. एक बार कॉलेज में पढ़ाई में बाधा होने के कारण स्कूल के हेड मास्टर ने एक भारतीय लड़के को बहुत बुरी गालियाँ दिन. सुभाष ने हेडमास्टर को एक जोरदार थप्पड़ रसीद कर दिया. उन्हें कॉलेज से निकाल दिया गया. इस दौरान जलियावाला काण्ड ने उन्हें बुरी तरह झकझोर दिया. सुभाष बाबू को उनके पिता ने 1919 में उन्हें आई.सी.एस. की पढ़ाई के लिए इंग्लैंड भेज दिया. उन्होंने परीक्षा में चौथा स्थान प्राप्त किया. यह एक बहुत बड़ी उपलब्धि थी. सुभाष बाबू महान देशभक्त चितरंजनदास के साथ सतत सम्पर्क में रहे. इस बीच लोकमान्य बालगंगाधर तिलक का केम्ब्रिज में आना हुआ. उन्होंने भारतीय विद्यार्थियों का सरकारी नौकरी में न जाकर राष्ट्रहित में जीवन समर्पित करने का आह्वान किया. सुभाष बाबू ने परीक्षा तो पास कर ली लेकिन उनका मन नौकरी करने को नहीं था. लिहाजा उन्होंने आई. सी. एस. से इस्तीफा दे दिया. पिता ने उन्हें बहुत समझाया, लेकिन उनका मन तो राष्ट्र की सेवा में रम चुका था. उनकी दृढ़ता देखकर पिता ने अपने मार्ग पर अडिग रहने को कहा. सुभाष बाबू ने मुंबई में महात्मा गांधी से भेंटकर लम्बी बातचीत की. गांधीजी ने सुभाष बाबू से कलकत्ता में  देशबंधु चितरंजनदास से मिलने को कहा. वह देशबंधु के राष्ट्रीय स्वयंसेवक दल के महत्वपूर्ण कार्यकर्ता बन गये. उन्होंने “बांगलार कथा” और “फॉरवर्ड” अखबारों का सम्पादन भी किया. वर्ष 1921 में प्रिंस ऑफ़ वेल्स के भारत आगमन पर सुभाष बाबू ने उनका विरोध किया. सरकार ने सेवादल को गैर-कानूनी घोषित कर दिया और गिरफ्तार कर जेल भेज दिया गया. जेल में उन्हें मौलाना अवुल कलाम आज़ाद का साथ मिला. अंग्रेजों का विरोध करने पर उन्हें 21 बार जेल जाना पड़ा. उनकी गतिविधियों और बढ़ते प्रभाव से परेशान होकर ब्रिटिश सरकार ने उन्हें मांडले (बर्मा) जेल भेज दिया. उन्होंने साथियों के कहने पर जेल से ही कलकत्ता की विधान परिषद् का चुनाव लड़ा और विजय प्राप्त की. सुभाष बाबू 1928 में कलकत्ता में कांग्रेस  सेवादल का सेनापति चुना गया. इसके बाद वह आल इण्डिया ट्रेड यूनियन कांग्रेस के अध्यक्ष चुने गये. कांग्रेस में गांधी और नेहरू के बाद वह तीसरे क्रम पर थे. सुभाष बाबू 1933 में वेनिस चले गये. वहां से वह स्विटज़रलैंड गये. उन्होंने जेनेवा में भारत संबंधी अंतर्राष्ट्रीय बैठक में क्रांतिकारी भाषण दिया और भारत में अंग्रेजों के दमनचक्र की जमकर आलोचना की. सुभाष बाबू 1938 के गुजरात के हरिपुरा में हुए कांग्रेस अधिवेशन में कांग्रेस का अध्यक्ष चुना गया. इसी अधिवेशन में राष्ट्रीय योजना आयोग के गठन की घोषणा हुयी. त्रिपुरी अधिवेशन में पट्टाभिसीतारमैया को परास्त कर सुभाष बाबू कांग्रेस के अध्यक्ष बने. गांधीजी ने इसे अपनी हार माना, क्योंकि रमैया उनके ख़ास थे. कांग्रेस के प्रमुख नेताओं ने उनसे दूरी बना ली. सुभाष बाबू ने इस पद से इस्तीफा देकर “फॉरवर्ड ब्लाक” पार्टी का गठन किया. दूसरे महायुद्ध में ब्रिटिश सरकार ने भारतीय नेताओं से परामर्श के बिना भारतीय सेना को युद्ध में झोंक दिया. सुभाष बाबू ने  देश के लोगों के लिए एक सन्देश प्रसारित कर कहा कि गुलाम रहना दुनिया का सबसे बड़ा अभिशाप है. यदि जान देकर भी आज़ादी मिले तो वह सस्ती है. वर्ष 1940 में फॉरवर्ड ब्लाक पर प्रतिबंध लगाकर सुभाष बाबू को जेल भेज दिया गया.  इसके बाद उन्हें घर में नज़रबंद कर दिया गया. वह अपने साथी भगतराम के साथ आधी रात को पठान का रूप धरकर काबुल चले गए. उन्होंने जर्मनी की राजधानी  जाकर वहाँ हिटलर से मुलाक़ात की. उन्होंने जर्मनों के साथ मिलकर भारत पर हमले की योजना बनायी. सिंगापुर में “आजादहिंद फ़ौज” का गठन किया जा चुका था, लेकिन इसके पास उपयुक्त नेतृत्व नहीं था. नेताजी आबिद हुसैन के साथ वहाँ पहुँचे. इसके बाद वह जापान गए और उन्होंने 22 जून 1943 को रेडियो से अपना भाषण प्रसारित किया. इस भाषण को आजाद हिन्द फ़ौज सुन सके इसका ख़ास इंतज़ाम किया गया. नेताजी ने 5 जुलाई 1943 को आज़ाद हिन्द फ़ौज के गठन की विधिवत घोषणा की. उन्होंने 1943 में ही कैथे (सिंगापुर) में एशिया के विभिन्न देशों के प्रतिनिधियों को बुलाया और इस बैठक में अस्थायी भारत सरकार की स्थापना की. उनके नेतृत्व में मंत्रियों का शपथ ग्रहण हुआ. इस सरकार ने ब्रिटेन और अमेरिका के खिलाफ जंग का ऐलान कर दिया. जापान ने अस्थायी रूप से इस सेना को अंडमान निकोबार द्वीप समूह दे दिया. मणिपुर और विष्णुपुर के आसपास का करीब 7 हज़ार वर्ग मील का इलाका इस सेना के अधीन हो गया. सेना की महिला विंग की कमान केप्टन लक्ष्मी स्वामीनाथन को दी गयी. सुभाष बाबू ने आह्वान किया कि अभिवादन “जय हिन्द” से किया जाए. नेताजी 4 जनवरी 1944 को टुकडियां लेकर जापान से रंगून पहुँचे, जहाँ उन्होंने अपना प्रधान कार्यालय स्थापित किया. आज़ाद हिन्द फ़ौज ने अनेक मोर्चों पर जीत हासिल की और 18 मार्च को बर्मा-भारत की सीमा पार कर भारत की भूमि पर पांव रखा. नेताजी ने नारा दिया कि “तुम मुझे खून दो, मैं तुम्हें आजादी दूंगा”. जापान की हर के बाद दूसरा विश्व् युद्ध समाप्त हो गया. नेताजी ने अपने साथियों की इमरजेंसी मीटिंग बुलाकर कहा कि भाग्य ने हमारा साथ नहीं दिया. संभावित बम वर्षा की सूचना पाकर नेताजी बैंकाक चले गये.  नेताजी इसके बाद सैगोन चले गये. वह सैगोन से 17 अगस्त को चलकर इंडोचाइना के तूरेन नामक स्थान पर रुके. अगले दिन ताइपेह के लिए रवाना हुए. इसी समय सूचना मिली कि रूस ने पोर्ट आर्थर पर कब्जा कर लिया. डेरिन पर रूसियों की जीत से पहले नेताजी और उनके साथियों को वहाँ पहुंचना था. लिहाजा थोड़ी देर ठहरकर वह डेरिन के लिए रवाना हो गये. उनका हवाईजहाज कुछ सौ फीट ही ऊपर उठा ठा कि उसमें जोर का धमाका हुआ और आग लग गयी. इसमें नेताजी और तीन जापानी बुरी तरह घायल हो गये और 18 अगस्त 1945 को अस्पताल में उनकी मृत्यु हो गयी. उस वक्त उनकी उम्र 48 वर्ष थी. उनकी अंतिम क्रिया ताइपेह में ही कर दी गयी. उनके अवशेषों को तोकियो में “रियो कोजो” मदिर में रख दिया गया. उनकी मृत्यु का सच अभी तक सामने आना बाकी है.