15 से 29 आयु वर्ग के औसत शहरी युवा मोदी सरकार के आठ साल के दौरान हर साल बेरोजगार रहे हैं। सबका साथ, सबका विकास सबके लिए खुशहाली का अर्धसूचक भले ही हो, इसका मतलब सबकी समान खुशहाली नहीं है।
देश जिस गति से चल रहा है उसमे भाजपा का नारा ‘सबका साथ सबका विकास’ पीछे छूटता जा रहा है | कारण सरकार की ही नीति है | सरकार फोकस अभी तक उनके विकास पर है जिनकी संख्या कम है | सेंटर फॉर मॉनिटरिंग ऑफ इंडियन इकोनॉमी के अनुसार, काम करने वाले आयु वर्ग (15-59 वर्ष) के ऐसे लोगों की संख्या पूरे देश में पिछले पांच वर्षों में उल्लेखनीय ढंग से कम हुई है जिनके पास रोजगार है।
15 से 29 आयु वर्ग के औसत शहरी युवा मोदी सरकार के आठ साल के दौरान हर साल बेरोजगार रहे हैं। सबका साथ, सबका विकास सबके लिए खुशहाली का अर्धसूचक भले ही हो, इसका मतलब सबकी समान खुशहाली नहीं है।
देश में विभिन्न वर्ग हैं: ‘धन पैदा करने वालों’ (उद्योगपति, व्यापारी, स्टार्टअप के प्रमोटर, ऐप वाले समूह) का विकास पर कब्जा है, मध्यम दरजे पर उपभोक्ता वर्गों (उच्च आय वाले निजी और सार्वजनिक क्षेत्र के एक्जीक्यूटिव और बड़े धनी-मानी किसान) तथा सबसे निचले दरजे में (कुशल एवं अकुशल) कामगार वर्ग हैं। निचले दरजे वाले विकास का इंतजार कर रहे हैं |
इस सरकार का न्यू इंडिया डॉ. मनमोहन सिंह के न्यू इंडिया से अलग है और अपने को अलग पेश करता है। डॉ. सिंह के समय को वह पुराने भारत के तौर पर पेश करता है। इसका मतलब है कि अब के न्यू इंडिया में ऐसी अर्थव्यवस्था है जिसमें ‘मिनिमम गर्वमेंट’ (सरकार अपनी शक्तियों को अधिक-से-अधिक कम कर रही है) और ‘व्यवसाय करने की ज्यादा-से-ज्यादा सुविधाजनक स्थिति’ है।
व्यवसाय करने वाले लोगों से उनके साथ की जाने वाली उदारता का उपयोग अपने को धन पैदा करने वालों के रूप में बदलने की अपेक्षा की जाती है। सरकार उच्च जीडीपी विकास की बात करते हुए नहीं थक रही है। लेकिन वह इस बारे में कभी बात नहीं करती कि अर्थव्यवस्था में विकास के अनुपात में कितना रोजगार विकसित हो रहा है। रोजगार के आंकड़े निराशाजनक हैं।
स्वस्थ और खुशहाल अर्थव्यवस्था का मुख्या माप दंड श्रम का कृषि से उद्योग और व्यापार की तरफ जाना है- मतलब, गांवों से शहरों की ओर जाना। यही वह ट्रेन्ड था जो बरसों से हो रहा था। लेकिन इस सरकार में यह ट्रेन्ड उलटा हो गया है। शहरों में रोजगार न पाने की वजह से श्रमिक खेती-किसानी करने के लिए गांव लौट गए हैं।
कृषि में अतिरिक्त श्रम का मतलब है उनके लिए कम मजदूरी, कुछ नहीं करने से कुछ करना बेहतर, थोड़ा-बहुत भी तो है। अर्थशास्त्रियों ने इसे रोजगार में ‘संरचनात्मक उलटी स्थिति’ (स्ट्रकचर्ल रिवर्सल) कहा है।और जो शहरों में रुक गए हैं, उन्हें क्या मिल रहा है? कम मजदूरी, वेतन के साथ कोई अवकाश नहीं, कोई चिकित्सीय प्रतिपूर्ति नहीं, दुर्घटनाओं और आपात स्थितियों में कोई मदद नहीं। सरकार कभी इसका विश्लेष्ण नहीं कर रही है |
सरकार रोजगार के लिए में यूनिकॉर्न (एक बिलियन डॉलर कंपनी) को उदहारण मानती हैं। इस कंपनी ने रोजगार की जो गुणवत्ता उपलब्ध कराई है, वह तकलीफदेह है। आंकड़ों के अनुसार, यूनिकॉर्न ने 28 लाख लोगों को रोजगार दिए हैं, जिनमें से सिर्फ 2.72 लाख लोग कर्मचारी भविष्यनिधि संगठन (ईपीएफओ) में पंजीकृत हैं। इसका मतलब है कि स्टार्टअप में 90 प्रतिशत कामगार पेंशन और बीमा से वंचित कर दिए गए हैं। ऐसे ही हाल एनी कम्पनियों के हैं |
इस न्यू इंडिया में ‘व्यवसाय करने की अधिकतम सुविधा’ की चर्चा भी जरूरी है | 2017 में शिक्षा, वित्त, स्वास्थ्य खाद्य, हॉस्पिटैलिटी, लॉजिस्टिक्स और इस तरह के क्षेत्ररों में टेक्नोलॉजी- आधारित स्टार्टअप का नियोजित क्षेत्र में रोजगार का 21.3 प्रतिशत हिस्सा था। 2022 में यह हिस्सा गिरकर 12.9 प्रतिशत रह गया। ट्रैवल और हॉस्पिटैलिटी स्टार्टअप “योयो” ने 2017 और 2022 के बीच 18 हजार कर्मचारियों मे से 15000 कर्मचारियों को निकाल दिया। “ओला” ने भी इसी अवधि में अपने 4200 में से 2600 कर्मचारियों को निकाल दिया। अब और किस प्रमाण की भी जरूरत है कि खेती-किसानी में कम मजदूरी में काम करने के लिए भी लोग शहरों से गांवों की ओर क्यों जा रहे हैं?
निजी क्षेत्र में रोजगार विहीन विकास का मतलब सिर्फ यह निकलता है कि पूंजी उच्चतर और मध्यवर्गगों के बीच ही घूम रही है और आबादी का बड़ा हिस्सा उपभोक्ता बाजार से बाहर खड़ा हुआ है। क्या इससे सबका साथ, सबका विकास के तौर पर देश प्रगति के पथ पर है कहा जा सकता है?
अभी तो यह स्पष्ट है कि न्यू इंडिया का आर्थिक मॉडल आबादी के बड़े हिस्से को आर्थिक बहिष्करण की ओर ले जाएगा। यह देश के लिए अच्छा नहीं है क्योंकि इससे सामाजिक अशांति बढ़ सकती है। पर्याप्त रोजगार पैदा किए बिना अर्थव्यवस्था को बढ़ते रहने नहीं दिया जा सकता। आबादी के बड़े हिस्सेका आर्थिक बहिष्करण अर्थव्यवस्था के लिए भी अच्छा नहीं है |