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योगी के अयोध्या के बजाए गोरखपुर से चुनाव लड़ने के मायने

अजय बोकिल अजय बोकिल
Updated Tue , 08 Dec

सार

कुछ दिनों पहले तक मुख्‍यमंत्री योगी आदित्यनाथ को भगवान राम की नगरी अयोध्या या फिर लीला पुरूषोत्तम कृष्ण की नगरी मथुरा से चुनाव लड़ाने की चर्चा थी ताकि हिंदुत्व की तोप के वर्तमान और भावी निशाने को रेखांकित किया जा सके।

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विस्तार

उत्तर प्रदेश में विधानसभा चुनाव के पहले यूं तो सभी दलों में ‘आयाराम गयाराम’ का खेल तेज हो गया है। लेकिन लगता है स्वामी प्रसाद मौर्य सहित 11 विधायकों के भाजपा छोड़ने के धमाके के बाद भाजपा को अपनी रणनीति में बदलाव करना पड़ा है। यह बदलाव दो मोर्चों पर दिखता है। पहला तो मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ को अयोध्या/ मथुरा के बजाए  उन्हें अपने गृहनगर की गोरखपुर सदर सीट से और उपमुख्‍यमंत्री केशव प्रसाद मौर्य को भी अपनी सिराथू सीट से ही लड़ने को कहा गया है। दूसरा, भाजपा छोड़ने वाले ओबीसी नेताओं द्वारा पार्टी पर लगाए गए  ‘अगड़ों की पार्टी’ होने के आरोप को खारिज करने के‍ लिए टिकट वितरण में पिछड़ों और दलितों को ज्यादा महत्व देना। ऐसा करके बीजेपी अगड़े बनाम पिछड़े/ दलित ध्रुवीकरण को कमजोर करना चाहती है। कितना कर पाती है, ये तो नतीजे बताएंगे। लेकिन इतना साफ है कि राज्य में नए सिरे से बन रहे जातिवादी समीकरण ने व्यापक हिंदुत्व के कोर मुद्दे जैसे अयोध्या में लाखों दीपों की रोशनाई, भव्य राम मंदिर का ‍निर्माण और काशी विश्वनाथ काॅरीडोर जैसी उपलब्धियां को पीछे ठेल दिया है। माना जा रहा है कि राज्य में जातिगत समीकरण ही किसी भी पार्टी को सत्ता के द्वार तक पहुंचा सकता है। और इन सबसे दिलचस्प तो योगी के पहले अयोध्या से लड़ने  और बाद में गोरखपुर भेजे जाने की खबरों की मीडिया के एक वर्ग द्वारा की गई व्याख्या है। 

कुछ दिनों पहले तक मुख्‍यमंत्री योगी आदित्यनाथ को भगवान राम की नगरी अयोध्या या फिर लीला पुरूषोत्तम कृष्ण की नगरी मथुरा से चुनाव लड़ाने की चर्चा थी ताकि हिंदुत्व की तोप के वर्तमान और भावी निशाने को रेखांकित किया जा सके। यह योगी को अपना राजनीतिक चक्रवर्तित्व जताने का भी सुनहरा अवसर होता। लेकिन बदले हालात में महसूस किया गया कि योगी का अपने घर से बाहर जाकर चुनाव लड़ना खतरे से खाली नहीं है। क्योंकि साम्प्रदायिक ध्रुवीकरण पर जातीय ध्रुवीकरण हावी हो गया तो दांव उलटा भी पड़ सकता है। हालांकि भाजपा मान रही है कि वो इसे भी ‘मैनेज’ कर लेगी। इसका एक अर्थ यह भी है कि पार्टी का विधानसभा चुनाव जीतना अहम है न कि योगी का किसी धर्मनगरी से भगवा जीत का परचम लहराना। वैसे भी योगी पहली बार विधानसभा चुनाव लड़ रहे है। गृहनगर के बजाए किसी और सीट से चुनाव लड़ने में खतरा यह भी था कि अगर पद पर रहते हुए योगी विधानसभा चुनाव हारते तो उनकी और पार्टी की किरकिरी होती। उससे भी हिंदुत्व के उस संदेश की होती, जिसकी वजह से योगी के सिर सीएम का ताज रखा गया था। अगर योगी चुनाव हारते तो पद पर रहते हुए चुनाव हारने वाले वो राज्य के दूसरे सीएम होते। 

त्रिभुवन नारायण सिंह ऐसे पहले मुख्यमंत्री थे, जो 1971 में सीएम रहते हुए‍ विधानसभा का चुनाव  हार गए थे। उन्होंने तत्कालीन प्रधानमंत्री श्रीमती इंदिरा गांधी से पंगा ले लिया था। वैसे यूपी में योगी आदित्यनाथ बरसों बाद ऐसे पहले मुख्यमंत्री होंगे, जो पद पर रहते हुए विधानसभा चुनाव लड़ेंगे यानी जनता से सीधे जनादेश लेंगे। सीधा जनादेश लेने वाली मुख्यमंत्री मुलायम सिंह थे, जिन्होंने समाजवादी पार्टी के टिकट पर संभल जिले की गुन्नौर विधानसभा सीट खाली कराकर उपचुनाव लड़ा और रिकॉर्ड एक लाख तिरासी हजार वोटों से जीते थे। उसके बाद सभी मुख्यमंत्री विधान परिषद सदस्य ही रहे। 

देश में यूपी, बिहार और अब महाराष्ट्र भी उन राज्यों में शुमार हो गया, जहां के मुख्यमंत्री सीधे चुनकर नहीं आते। योगी भी सीएम बनने के बाद विधान परिषद के लिए निर्विरोध चुने गए थे। हालांकि इसके पहले वो कई साल तक गोरखपुर से लोकसभा सीट जीतते रहे थे। लगता है कि पार्टी ने उन्हें अपने पुराने घर में ही किस्मत आजमाने के लिए भेज दिया है। यह बात इसलिए भी महत्वपूर्ण है, क्योंकि गोरखपुर भाजपा के लिए सौ फीसदी सुरक्षित सीट भी नहीं है। 2019 में योगी के सीएम रहते उपचुनाव में भाजपा का प्रत्याशी बसपा उम्मीदवार से हार गया था, क्योंकि सपा बसपा‍ मिलकर चुनाव लड़े थे। हालांकि 2019 के लोकसभा चुनाव में मोदी लहर के चलते भाजपा के रविकिशन फिर भारी मतों से जीते। योगी गोरखपुर सदर विधानसभा सीट से चुनाव लड़ेंगे। यह सीट पिछले विधानसभा चुनाव में भी भाजपा ने जीती थी।  

यूपी के ही संदर्भ में कुछ लोग इस रणनीतिक बदलाव को सपा नेता अखिलेश यादव के शब्दों में कहें तो ‘दो इंजिनो के टकराव’ के रूप में देख रहे हैं। वजह यह ‍कि यदि योगी अयोध्या/मथुरा से जीत जाते और भाजपा सत्ता में लौट आती तो योगी का कद देश में और स्वयं भाजपा में भी बहुत ज्यादा बढ़ जाता। क्योंकि गृहप्रदेश की अपनी सीट छोड़  किसी दूसरे प्रदेश की‍ किसी सीट से लगातार दो बार चुनाव जीतने का साहस प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने दिखाया है। ( साहस तो कांग्रेस नेता राहुल गांधी ने भी दिखाया था, लेकिन दो प्रदेशों की दो सीटों पर लड़कर। जिसमें वो अपनी परंपरागत सीट अमेठी से हार गए थे।) हालांकि अयोध्या/मथुरा  भी यूपी में ही है, लेकिन वो योगी की परंपरागत सीट नहीं है। स्वामी एंड पार्टी के दलबदल से पहले तक योगी को एक वर्ग मोदी के भावी विकल्प के रूप में देख रहा था, लेकिन स्वामी के ‘इस्तीफा बम’ ने जहां भाजपा को अपने पत्ते फिर से फेंटने पर विवश कर दिया है, वहीं योगी के बयानों में अब पहले जैसी धमक नजर नहीं आ रही है। यहां तक कि उनके चर्चित बयान कि यह चुनाव ‘अस्सी बनाम बीस’ है, भी उलटा पड़ने का खतरा है। क्योंकि अति पिछड़े वर्ग के नेताअों ने अस्सी की व्याख्या पिछड़े,दलितों,आदिवासियों के रूप में करनी शुरू कर दी है। 

ऐसे में भाजपा के सामने चुनौती अब यह है कि सही में यह लड़ाई बहुसंख्यक बनाम अल्पसंख्यक के बजाए बहुसंख्यकों में ही अगड़े बनाम पिछड़े/ अति पिछड़ों में तब्दील न हो जाए। हालांकि कुछ विधायक/ विधान परिषद सदस्य दूसरे दलों से टूटकर टिकट की आस में भाजपा में भी आ रहे हैं, लेकिन उससे वो माहौल नहीं बन पा रहा है, जो अति ‍पिछडे वर्ग के विधायकों  के भाजपा छोड़ने से बना है।  

भाजपा की चुनावी रणनीति में जातीय समीकरण नंबर वन होना, पार्टी द्वारा जारी प्रत्याशियों की पहली सूची से ही स्पष्ट हो जाता है। इस लिस्ट में कुल 107 प्रत्याशियों में से 44 पिछड़ी जाति व 19 प्रत्याशी अनुसूचित जाति के हैं। पार्टी ने सहारनपुर देहात सीट से दलित जगमाल सिंह को टिकट दिया है। जगमाल बीएसपी से विधायक रहे और हाल में बीजेपी में आए हैं। सामान्य सीट पर भी एक दलित को टिकट देना पड़ा है। दस महिलाओं को भी टिकट दिया गया है। 107 में से 63 मौजूदा विधायकों को भी टिकट मिले हैं। 20 विधायकों के टिकट काटे गए हैं। 

यूपी में मची सियासी भगदड़ से लगता है भाजपा को अपने कोर मुद्दे साइड लाइन करने पड़ रहे हैं। पिछड़ों की बगावत ने पुरानी जमावट को बिगाड़ कर रख दिया है। अबकि बार 350 के पार वाले नारे में जोश घटता दिख रहा है। यदि पार्टी चुनाव में बहुमत पा गई तो योगी आदित्यनाथ फिर सीएम बनेंगे,  इस बात की गारंटी नहीं है। योगी पिछली बार भी मोदी-शाह की प्राथमिकता में नहीं थे। केवल हिंदुत्व की छवि के चलते उन्हें मुख्यमंत्री बनाया गया था और सीएम पद के मुख्य दावेदार और तत्कालीन प्रदेश भाजपाध्यक्ष  केशव प्रसाद मौर्य को उप मुख्यमंत्री पद पर ही संतोष करना पड़ा था।  

इस रणनीतिक या विवशताजनित बदलाव में सर्वाधिक चकरघिन्नी मीडिया का एक वर्ग है। एक बड़े टीवी चैनल की एंकर चार दिन पहले तक दर्शकों को योगी के अयोध्या से चुनाव लड़ने  के फायदे गिनाएं। जैसे ही उनके गोरखपुर से चुनाव लड़ने की खबर आई तो वही महिला एंकर हमे योगी के गोरखपुर से चुनाव लड़ने लाभ गिनाती दिखीं। इस फायदे का आधार अयोध्या और गोरखपुर की लखनऊ से सड़क मार्ग से दूरी थी।