यह मूल्यांकन का अच्छा समय है कि 43 वर्ष पुरानी भाजपा आडवाणी और अटल बिहारी वाजपेयी द्वारा स्थापित सिद्धांतों के कितनी नज़दीक और और कितनी दूर है..!
वैसे तो विपक्ष की तमाम कवायद के बावजूद भाजपा की स्थिति में कोई परिवर्तन हाल - फ़िलहाल नहीं दिख रहा है। भाजपा को यह मौजूदा कद अपने संस्थापकों के अधीन भी हासिल नहीं था। अभी भी काफी हद तक यह वही दल है जो जनसंघ और जनता पार्टी के अवशेष से निर्मित है और नरेंद्र मोदी, अमित शाह और जे पी नड्डा के नेतृत्व में कलेवर बदल रहा है। यह मूल्यांकन का अच्छा समय है कि 43 वर्ष पुरानी भाजपा आडवाणी और अटल बिहारी वाजपेयी द्वारा स्थापित सिद्धांतों के कितनी नज़दीक और और कितनी दूर है ?
वैसे जो एक बात जो नहीं बदली है, वह है उसकी विचारधारा। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के अनुरूप विचाराधारा। मोदी-शाह के काल में राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन के दूसरे कार्यकाल में भी तमाम नेता बाहर से आए, लेकिन शीर्ष नेतृत्व हमेशा एक ही विचारधारा का रहा। इनमें पार्टी के अध्यक्ष, प्रमुख महासचिव, ज्यादातर राज्यों के प्रमुख शामिल हैं और यही नेतृत्व संघ की विचारधारा के नज़दीक है।
भाजपा के संस्थापकों को कभी बहुमत नहीं हासिल हुआ। उनके उत्तराधिकारियों ने बहुमत हासिल किया और कुछ बातों को हकीकत में बदला और बारीकी से लागू किया । तीन तलाक शुरुआत थी, विवाह की न्यूनतम आयु और बहु विवाह की दिशा में पहलकदमी दिख रही है।यही तथ्य है कि संस्थापकों ने जनसंघ के रूप में एक वैचारिक पार्टी खड़ी की जो सन 1977 के जनता पार्टी के प्रयोग में खो सी गई थी।
जिन पांच प्रमुख घटकों से मिलकर जनता पार्टी बनी थी वे थे भारतीय जन संघ, भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस (ओ), सोशलिस्ट पार्टी, भारतीय लोक दल (चरण सिंह) और बाबू जगजीवन राम की कांग्रेस फॉर डेमोक्रेसी। इन पांचों में से केवल एक दल जनसंघ नये अवतार के रूप में सामने आया और वह भाजपा है ।शेष सभी दल या तो हाशिये पर चले गए और कुछ राज्यों तक या जाति विशेष के दलों में सिमट कर रह गए। समाजवादी पार्टी और राष्ट्रीय जनता दल ऐसे ही दल हैं। समाजवादी धड़ा अब नीतीश कुमार के जनता दल यूनाइटेड तक सिमट गया है।
यूँ तो भाजपा की विचारधारा प्रभावी थी, पर इसके साथ ही एक अवरोध भी था जिसने दूसरों को साथ आने से रोका। इनमें ऐसे लोग भी थे जो कांग्रेस और गांधी परिवार से विमुख थे। भाजपा के लिए यह बहुत बड़ी चुनौती बनी और है । ऐसे में अगर मोदी और शाह आज इतने सफल हैं तो उन्हें अपने संस्थापकों, खासकर वाजपेयी का शुक्रिया अदा करना चाहिए कि वे पार्टी को विपक्षी खेमे में अस्पृश्यता से दूर ले आए।
इस दिशा में विश्वनाथ प्रताप सिंह की सरकार को समर्थन देना एक बड़ा कदम था जिससे राजीव गांधी के नेतृत्व में कांग्रेस की सरकार नहीं बन सकी जबकि कांग्रेस उस समय भी सबसे बड़ा दल था, और आज सबसे पुराना है । उस राजनीतिक घटना को आज उतना याद नहीं किया जाता है लेकिन भाजपा द्वारा वाम रुझान वाले एक गठबंधन का समर्थन करना उसकी विचारधारा के एकदम उलट था।बाद में कांग्रेस ने भाजपा विरोधी गठबंधनों को सत्ता में आने में मदद की। इनमें चंद्रशेखर, एचडी देवेगौड़ा, इंद्र कुमार गुजराल तक शामिल थे जिन्होंने सन 1990-91 से 1997-98 तक सत्ता संभाली।
ममता बनर्जी, चंद्रबाबू नायडू,नवीन पटनायक, राम विलास पासवान और कश्मीर का अब्दुल्ला परिवार आदि सभी ने भाजपा के साथ गठबंधन किया। अकाली दल और शिव सेना तो साथ थे ही।आज भाजपा इतनी ताकतवर हो चुकी है कि उसे किसी साझेदार की जरूरत नहीं। यहां तक कि अकालियों और शिव सेना की भी नहीं। इसलिए उसने एक को त्याग दिया और दूसरे को तोड़ दिया। देखना होगा कि शिंदे की शिव सेना कितनी टिकाऊ साबित होती है।अगर आज भाजपा शुरुआती अस्पृश्यता की चिंताओं को पीछे छोड़कर विशाल कद हासिल कर चुकी है तो साथ ही उसने शुरुआती विचारों से कुछ दूरी भी बनाई है। इसे उसका विकास कह सकते हैं।
भाजपा में अब एक व्यक्ति का कद हावी है। इंदिरा गांधी के दौर में इसी पार्टी का पूर्व संस्करण इसके खिलाफ था । वाजपेयी-आडवाणी युग में भी सत्ता में दोनों के साथ अन्य लोगों की साझेदारी थी। संघ समेत असहमत लोगों के कुछ कहने की पूरी गुंजाइश थी। अब संघ सरकार का पूरा समर्थन करता है और उसके सभी कदमों को सराहता है।
संघ का राजनीति को लेकर बुनियादी रुख भी बदला बदला दिखता है । वाजपेयी अक्सर कहा करते थे, ‘राजनीति सौदा नहीं है।’ उनके उत्तराधिकारियों ने लेनदेन वाली राजनीति का अपना अलग ही संस्करण तैयार किया है।मध्यप्रदेश जिसका प्रमाण है। वैसे वाजपेयी के केंद्रीकृत प्रधानमंत्री कार्यालय पर संघ अक्सर प्रश्न करता था, मोदी के नेतृत्व में अब यह कार्यालय और अधिक शक्तिशाली है और किसी को शिकायत नहीं है।