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सिक्के और डिजिटल लेन-देन

राकेश दुबे राकेश दुबे
Updated Tue , 24 Jun

सार

भारतीय रिजर्व बैंक (आरबीआई) की रिपोर्ट ने 2023-24 की तुलना में 2024-25 में प्रचलन में सिक्कों की मात्रा में मात्र 3.6 फीसदी वृद्धि दर्ज की है, जो 2016-17 की 8.5 फीसदी बढ़ोतरी के मुकाबले बहुत कम है..!!

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विस्तार

हमारे देश में जैसे-जैसे डिजिटल लेन-देन बढ़ रहा है, वैसे-वैसे मामूली सिक्के, जो कभी हमारी वाणिज्यिक दुनिया और संस्कृति का आधार था, गुमनामी की गर्त में जा रहे हैं। हाल में जारी भारतीय रिजर्व बैंक (आरबीआई) की रिपोर्ट ने 2023-24 की तुलना में 2024-25 में प्रचलन में सिक्कों की मात्रा में मात्र 3.6 फीसदी वृद्धि दर्ज की है, जो 2016-17 की 8.5 फीसदी बढ़ोतरी के मुकाबले बहुत कम है। यह वही वित्तीय साल (2016-17) था, जिस वर्ष यूपीआई लॉन्च किया गया था। 

इस वित्त वर्ष यानी 2024-25 में सिक्कों का मूल्य केवल 9.6 फीसदी बढ़ा, जो 2016-17 के 14.7 फीसदी से कम है। नेशनल पेमेंट्स कॉरपोरेशन ऑफ इंडिया (एनपीसीआई) के अनुसार, मार्च 2017 में यूपीआई लेनदेन 6.4 मिलियन (₹2,425 करोड़) से बढ़कर मार्च 2025 तक 18.3 बिलियन (₹24,77,221 करोड़) हो गया। ये तथ्य व आंकड़े ऐसी कहानी सुनाते हैं, जिसमें दर्ज होते नए किस्से यूपीआई की चमक से सिक्कों का भविष्य धुंधलके में ठेलते जा रहे हैं।

भारत में सिक्के का महत्व केवल मुद्रा के रूप में या वित्तीय लेनदेन के मुकाबले कहीं अधिक रहा है। वे प्रागैतिहासिक काल से ही सत्ता, शासन और पहचान के प्रतीक रहे हैं। मौर्यकालीन पंच-मार्क वाले सिक्कों से लेकर गुप्तों के सोने के दीनार तक, मुद्रा पर शासक वंश की मुहर लगी हुई थी, जो संप्रभुता का प्रतीक थी। 

तुगलक काल के दौरान, पीतल और तांबे से बने टोकन सिक्कों सहित मुद्रा के साथ मुहम्मद बिन तुगलक के प्रयोगों ने नवाचार और अराजकता दोनों को दर्शाया। सिक्के हमेशा धातु के नहीं होते थे; कुछ कालावधियों में चमड़े के सिक्कों का इस्तेमाल भी किया गया। ऐसे उदाहरण धातुओं की अनुपलब्धता और टकसालों द्वारा पर्याप्त मात्रा में ढलाई नहीं कर पाने के हालात में मुद्रा की अनुकूलनशीलता के प्रमाण थे। सभी किस्सों के ये सिक्के केवल व्यापार के उपकरण नहीं थे, बल्कि हमारे इतिहास के वाहक थे, जो उनके निर्माताओं की महत्वाकांक्षाओं और सौंदर्यशास्त्र से उकेरे गए थे। 

सिक्कों और रुपयों की अनंत कहानियां हैं जिसमें आधुनिक किस्म के ब्रिटिश काल की मुद्राएं शामिल होती हैं। इनमें इकन्नी-दुअन्नी (1 पैसा, 2 पैसा) भी था और वजनदार एक रुपया भी था, जो एक आम इंसान के लिए बड़ी उपलब्धि हुआ करता था। हालांकि बात सिक्कों की हो रही है, लेकिन इस पूरे सिलसिले में रुपया भी आता है। चाहे वह नोट की शक्ल में हो या सिक्कों के रूप में, इस भारतीय रुपये का अपना एक गौरवशाली इतिहास है। 

मुद्रा के तौर पर सिक्कों के विविध रूपों ने भारतीय भाषा और संस्कृति के ताने-बाने में भी खुद को स्थापित किया। कई हिंदी कहावतें और मुहावरे उनके महत्व को दर्शाते हैं। जैसे, “कौड़ी-कौड़ी जोड़ना”, “पाई-पाई का हिसाब रखना”, “सिक्का चलना” और “खोटा सिक्का”। दो कौड़ी का आदमी नहीं होना, बाप बड़ा न भैया सबसे बड़ा रुपैया, पैसे का पेड़ लगा है क्या? चमड़ी जाए पर दमड़ी ना जाए, पैसा हाथ की मैल है और आमदनी अठन्नी, खर्चा रुपय्या, आदि कहावतें-मुहावरे हमारे देश की एक समृद्ध विरासत के प्रतीक हैं। सिक्का-आधारित अर्थव्यवस्था में पैदा हुए ये भाव दैनिक जीवन में मुद्रा का स्पर्शनीय और प्रतीकात्मक महत्व दर्शाते हैं।

हालांकि डिजिटल लहर के बावजूद, खासकर ग्रामीण अर्थव्यवस्था में सिक्के लाखों लोगों के लिए महत्वपूर्ण बने हुए हैं। तथ्य बताते हैं कि 31 मार्च, 2025 तक, हमारे देश में 50 पैसे, ₹1, ₹2, ₹5, ₹10 और ₹20 जैसे मूल्यवर्ग के सिक्कों की कुल मात्रा 13.7 लाख थी, जिसका मूल्य ₹36,589 करोड़ था। ₹1, ₹2 और ₹5 के सिक्कों की कुल मात्रा में 81.6 प्रतिशत और मूल्य में 64.2 प्रतिशत हिस्सेदारी थी, जो कम मूल्य के लेन-देन में उनके प्रभुत्व को रेखांकित करता है। छोटे खुदरा विक्रेताओं, सड़क विक्रेताओं, बसों और मंदिरों जैसे स्थानों पर अपनी उपयोगिता के कारण सिक्के आज भी अपरिहार्य हैं, खासकर उन क्षेत्रों में जहां डिजिटल बुनियादी ढांचा विरल या गैर-भरोसेमंद है।