एमपी में टूरिज्म को प्रमोट करने के लिए टूरिस्ट स्थलों की खूबियों को बताने के लिए अजब-गजब मध्य प्रदेश कैंपेन चलाया गया था. यह काफी सफल भी था. प्रदेश में टूरिज्म बढ़ा लेकिन अजब-गजब खबरों से मध्य प्रदेश ऐसा जुड़ गया कि उसका पीछा ही नहीं छूट रहा है..!!
अब मध्य प्रदेश की अजब-गजब इंजीनियरिंग का नमूना सुर्खियों में है. सोशल मीडिया पर राजधानी भोपाल के ऐशबाग में बने नब्बे डिग्री पुल की चर्चा विश्व व्यापी हो गई है. भारत अपने इंजीनियरिंग कौशल से दुनिया को पिछाड़ रहा है, लेकिन मध्य प्रदेश की इंजीनियरिंग अपनी अक्षमता के रिकॉर्ड बना रही है. यह पुल कोई एक दिन में नहीं बना है. इसके डिजाइन में कंसल्टेंट भी लगे होंगे. करोड़ों का जनधन खर्च किया गया होगा. सरकार का सिस्टम शिलान्यास से लेकर हर स्टेज पर मॉनिटरिंग की औपचारिकता भी पूरी की होगी.
आश्चर्यजनक यह है, कि किसी भी स्टेज पर किसी भी जिम्मेदार का इस पर ध्यान नहीं गया, कि नब्बे डिग्री समकोण के साथ बना पुल जानलेवा साबित हो सकता है. यह पुल जिस क्षेत्र में है, उसका विधानसभा में प्रतिनिधित्व एक अति सक्रिय मंत्री द्वारा किया जाता है. ऐसा कहा जाता है कि उनके क्षेत्र में किसी भी कार्य पर उनकी नजर होती है. किसी भी विकास कार्य के लिए भले ही प्रक्रिया पूरी कर ली जाए लेकिन टेंडर उसे ही मिलेगा जो सरेंडर की मुद्रा में रहेगा. हर स्टेज पर पुल का क्रेडिट लेने में उनके द्वारा कोई कंजूसी नहीं की गई होगी. इतनी सक्रियता के बाद भी पुल के डिजाइन में जानलेवा इंजीनियरिंग लापरवाही की तरफ उनका भी ध्यान नहीं गया.
अब ऐसा बताया जा रहा है, कि इस पुल को पर्याप्त कर्व देने के लिए रेलवे से जमीन लेने की बातचीत चल रही है. पत्राचार हो रहा है. जब पुल तैयार हो गया तब कॉमन मैन का ही ध्यान इस पर गया होगा. मध्य प्रदेश की इंजीनियरिंग की अक्षमता की यह त्रासदी स्मारक के रूप में बनाए रखने में कोई बुराई नहीं होगी. ताकि निष्ठुर सिस्टम को जवाबदेही का सबक मिल सके. यह अकेला पुल नहीं है, भोपाल में अंबेडकर ब्रिज और बावड़िया कला, आरओवी डिजाइन में भी खामियां हैं. मेट्रो प्रोजेक्ट में भी कंसल्टेंट की गलतियां तब उजागर हुई थीं. जब मुख्य सचिव द्वारा उसका निरीक्षण किया गया था.
अभी भी ऐसा बताया जाता है, कि हबीबगंज पर जो पुल बना है, उसके नीचे से बड़े वाहनों का निकलना मुश्किल है. अब इससे बचने के लिए सड़क को गहरा करने की इंजीनियरिंग का सहारा लिया जा रहा है.
एक तरफ भारत के इंजीनियरिंग कौशल ने विश्व रिकॉर्ड बनाया है.जम्मू कश्मीर में बना चिनाब ब्रिज दुनिया का सबसे ऊंचा ब्रिज है. दूसरी तरफ मध्य प्रदेश में इंजीनियरिंग की त्रासदी कई शहर भुगतने के लिए मजबूर होते हैं. केवल पुल नहीं सड़क, डेम और भवनों के मामले में कई बार खामियां उजागर होती हैं. जब प्रोजेक्ट बनते हैं, तो उससे जनहित को होने वाले लाभ का जो आंकलन किया जाता है, वह कभी भी पूरा नहीं होता.
अगर राजधानी भोपाल का ही उदाहरण दिया जाए तो स्मार्ट सिटी प्रोजेक्ट आधा अधूरा पड़ा हुआ है. केवल अटल पथ दिखाई पड़ता है, जिसको अगर उपयोगिता की दृष्टि से देखा जाएगा तो इस पर खर्च धन बहुत उपयोगी नहीं लगेगा.राजधानी में निर्माण के नाम पर वृक्षों की बलि भी कहीं ना कहीं इंजीनियरिंग की प्लानिंग में खामियों के कारण होती हैं.
निर्माण की क्वालिटी पर तो चर्चा ही बेकार होगी. पुल बनकर तैयार होते हैं और उनमें से लीकेज की शिकायत चालू हो जाती है. हबीबगंज पर जो ब्रिज बना है, उसको लेकर की समस्या अभी से शुरू हो गई है. निर्माण की गुणवत्ता पर तो हमेशा सवाल खड़े होते हैं, अगर देखा जाए तो मध्य प्रदेश में इंजीनियर सर्विसेज को तो दोयम दर्जे में रखा गया है. कई बार उनकी सलाह भी नहीं मानी जाती है. सिस्टम का नियंत्रण जिस लेवल पर होता है, उनमें इंजीनियरिंग का योगदान नगण्य होता है .
मध्य प्रदेश में डेम टूटने की भी घटनाएं सामने आई हैं. सबसे बड़ा सवाल यह है, कि निर्माण के लिए लेआउट और डिजाइन पर उच्च स्तर से ध्यान क्यों नहीं दिया जाता. निर्माण कार्य में करप्शन की शिकायतें आम हैं. इस पर पब्लिक लगभग समझौता कर चुकी है. करप्शन के बावजूद अगर निर्माण और सेवाएं सुविधाजनक ढंग से मिलती रहें तो किसी को भी करप्शन में कोई असुविधा नहीं है. निर्माण में सिस्टम के पार्ट करप्शन का अपना काम तो नहीं छोड़ते लेकिन लापरवाही और अक्षमता का खामियाजा पब्लिक को भुगतना पड़ता है.
गैर जवाबदेही और अक्षमता सिस्टम की त्रासदी बन गई है. पद पर पहुंचने का मतलब यह नहीं होता, कि सक्षमता की गारंटी है. सिस्टम में मॉनेटरिंग तो लगभग समाप्त हो चुकी है. हर स्टेज पर मिलीभगत के कारण ऐसी लापरवाही और खामियां सामने आती हैं. खामियों के लिए किसी की जिम्मेदारी तय नहीं होती. किसी को दंडित नहीं किया जाता. यह शायद इसलिए होता है, क्योंकि जिसने भी इस काम को अंजाम दिया है, वह सिस्टम के हर स्तर पर अपने तार बिछाए रखता है.
जमीन पर करप्शन के जो बीज बोए जाते हैं, उसके फल हर स्तर तक पहुंचते हैं. उसको पहुंचाने वाला सबसे निचले लेवल पर होता है. जब कभी ऐसी त्रासदी सामने आती है तो पूरा सिस्टम एक दूसरे को बचाने में लग जाता है.
नब्बे डिग्री पुल की निर्माण में इंजीनियरिंग की अक्षमता की फुल त्रासदी देखी जा सकती है. किसी एक को इसके लिए दोषी भी नहीं ठहराया जा सकता. पूरा सिस्टम इसके लिए दोषी है. सिस्टम के सोचने और काम करने का तरीका इसके लिए जिम्मेदार है. मॉनिटरिंग की व्यवस्था की इसमें पूरी असफलता है.
पुल सुविधा से गुजरने के लिए होता है. दुर्घटना में मरने के लिए इसे नहीं बनाया जाता. इस इंजीनियरिंग कौशल के लिए तो कोई शब्द ही नहीं हो सकते. जनता के लिए तो सिस्टम पर यही कहावत चरितार्थ होती है, कि इधर कुआं उधर खाई. सिस्टम के समकोण का पुल की डिजाइन में उतरना बेहद खतरनाक है.