• India
  • Wed , Jun , 11 , 2025
  • Last Update 05:26:PM
  • 29℃ Bhopal, India

बिना सबूतों के आरोपों की बकैती लोकतांत्रिक डकैती

सार

आदमी कुत्ते को काटने लगा है. संविधान संविधान से टकरा रहा है.  संवैधानिक पद नेता विपक्ष के चुनाव में मैच फिक्सिंग के आरोपों का संवैधानिक संस्था चुनाव आयोग न केवल खंडन बल्कि बेतुका तक बता रही है. दोनों संविधान को अपनी सांसे बता रहे हैं, लेकिन एक दूसरे का गला घोंटने के लिए मैदान में आमने-सामने हैं..!!

janmat

विस्तार

    ऐसा लोकतंत्र में ही हो सकता है, कि आरोप लगाने के लिए किसी सबूत की आवश्यकता नहीं है. केवल आरोपों पर ही ना केवल राजनीति की जा सकती है, बल्कि जीती भी जा सकती है. चुनाव जीतने के अलावा कोई जवाबदेही नहीं है. सर्कस सा मनोरंजन राजनीति अब देने लगी है. यह मनोरंजन लोकतंत्र के साथ हो रहा है. भाषा की मर्यादाएं टूट रही हैं. भारत की राजनीति विदेश में धमाका कर रही है. देश से ज्यादा दूसरे देशों में हमारे नेताओं को प्राइम टाइम और हैडलाइन में जगह मिल रही है. 

    राहुल गांधी द्वारा महाराष्ट्र चुनाव के संदर्भ में लिखा गया आलेख चर्चा में है. इसमें उन्होंने चुनाव आयोग पर मैच फिक्सिंग का आरोप लगाया है. उनका कहना है, कि सरकार चुनाव आयोग गठित करती है और आयोग उसके इशारे पर काम करता है. फर्जी मतदाता सूची तैयार कराई जाती है. फर्जी मतदान में सहयोग किया जाता है. चुनाव आयोग पर मतदान के आंकड़े में हेरा-फेरी का भी आरोप लगाया गया है. राहुल गांधी के आरोपों पर चुनाव आयोग ने ऐतराज व्यक्त किया है. आयोग का कहना है, कि पहले भी ऐसे आरोप लगाए गए थे, जिनका तथ्य आधारित जवाब दिया जा चुका है. 

    किसी को भी आयोग से कोई स्पष्टीकरण चाहिए, तो उस नेता को आयोग को पत्र लिखना होगा. आलेख के जरिए आयोग पर टीका टिप्पणी उचित नहीं है. ईवीएम के माध्यम से चुनाव की निष्पक्षता पर कई बार याचिकाएं सुप्रीम कोर्ट तक गई हैं. हर बार चुनाव प्रक्रिया को सही पाया गया है. इलेक्शन कमीशन में नियुक्ति के लिए पहली बार नरेंद्र मोदी की सरकार द्वारा बनाए गए कानून को सुप्रीम कोर्ट द्वारा संवैधानिक करार दिया गया है.

    इसके पहले कांग्रेस की सरकारों के समय चुनाव आयोग में नियुक्ति के लिए कोई नियम नहीं थे. सरकार का एकाधिकार था. पहले तो ऐसे भी उदाहरण रहे हैं, जब मुख्य चुनाव आयुक्त बाद में सरकारों में राज्यसभा सदस्य और मंत्री पद तक पर पदस्थ रहे हैं. कांग्रेस द्वारा संविधान पर हमले के पांसे इतनी बार फेंके गया हैं, कि अब इसकी सारी सच्चाई उजागर हो चुकी है.

    चुनाव की सारी प्रक्रिया राजनीतिक दलों की सहभागिता के बिना संभव ही नहीं हो सकती. चाहे मतदाता सूची का पुनरीक्षण हो या मतदान केंद्र पर मतदान की प्रक्रिया हो, सभी मान्यता प्राप्त राजनीतिक दलों के एजेंट की न केवल इसमें भागीदार होते हैं, बल्कि उन्हें लिखित रूप से पूरी प्रक्रिया को प्रमाणित करना पड़ता है. मतदान के समय किसी भी मतदान केंद्र पर कितना मतदान हुआ है, इसका अंतिम विवरण मतदान समाप्त होने के बाद सभी राजनीतिक दलों के एजेंट को प्रमाण पत्र देने के बाद ही प्रक्रिया समाप्त होती है. 

    आंकड़ों के अपडेशन में कोई डिले हो सकता है, लेकिन जब मूल स्थान मतदान केंद्र पर ही कांग्रेस सहित सभी दलों को आंकड़े चुनाव प्रक्रिया समाप्त होते ही दे दिए गए हैं, तो फिर उसमें किसी भी तरह के हेर-फेर की आशंका संविधान का सम्मान नहीं, बल्कि संवैधानिक संस्था का अपमान कहा जाएगा. चुनाव प्रक्रिया पर संशय बनाने का प्रयास कहा जाएगा. इससे पूरी चुनावी मशीनरी का मनोबल प्रभावित करने की कोशिश की जाती है. 

     चुनाव प्रक्रिया एक ही है. चुनाव आयोग एक ही है. जहां विरोधी दल विजयी हो जाता है, वहां तो पूरी प्रक्रिया निष्पक्ष और पारदर्शी मानी जाती है और जहां सरकार का राजनीतिक दल विजयी होता है, वहां विपक्षी दलों द्वारा चुनाव प्रक्रिया पर सवाल उठाना एक फैशन सा बन गया है. इससे लोकतंत्र की मर्यादा प्रभावित होती है. 

     ऑपरेशन सिंदूर पर जिस तरह के वक्तव्य नेताओं द्वारा दिए जा रहे हैं, वह भी लोकतंत्र में मिले अधिकारों का दुरुपयोग कहा जाएगा. राजनीति में आरोप-प्रत्यारोप स्वीकार में हो सकते हैं, लेकिन कम से कम सेना के मामले में तो हमेशा संविधान सम्मत बात ही सामने आना चाहिए. 

    भारत की राजनीति नकारात्मक मोड़ ले चुकी है. कई नेता और राजनीतिक दल ऐसे हैं, जिनका पूरा करियर केवल नकारात्मक सवाल खड़े करने तक ही सिमट गया है. राहुल गांधी इसमें सबसे आगे दिखाई पड़ते हैं. ऑपरेशन सिंदूर पर वह सवाल उठाते हैं. सरकार पर संविधान बदलने का आरोप लगाते हुए, बिना किसी तथ्य के नेगेटिव वातावरण बनाते हैं. आरक्षण समाप्त कर दिया जाएगा, यह आरोप तो नामालूम कितनी बार लगाया जा चुका है. लेकिन अभी तक आशंका सही साबित नहीं हुई. 

    नेताओं के बयानों की भाषा सीमाएं तोड़ रही है. सभी दलों में निचले स्तर पर तो भाषा आपत्तिजनक हो ही रही है. चिंता तो तब होती है जब राजनीतिक दलों का राष्ट्रीय नेतृत्व अपरिपक्व और अमर्यादित भाषा का उपयोग करते दिखाई पड़ते हैं.

    राहुल गांधी कांग्रेस में घोड़े के प्रतीक का सुधार के लिए उपयोग करते हैं. रेस, बारात और लंगड़े घोड़े के बीच में कांग्रेस नेताओं और कार्यकर्ताओं को विभाजित कर रेस के घोड़े चुनने की बात करते हैं. लोकतंत्र के लिए सबसे ज्यादा रोड़े बेलगाम घोड़े साबित हो रहे हैं. यह बेलगाम घोड़े किसी अनुशासन का पालन नहीं करते. मनमर्जी से जिसकी चाहे मान-मर्यादा, प्रतिष्ठा खंडित कर सकते हैं. इसके लिए किसी सबूत की आवश्यकता नहीं है. केवल आरोप लगाने की बात है. आरोपों के लिए किसी जवाबदेही की जरूरत नहीं है. ना किसी अदालत में जाना है, ना किसी को सबूत देना है. बस केवल आरोप लगा देना है. 

    आरोप ही इतना ज्यादा प्रचारित हो जाते हैं. कि तथ्यों पर तो किसी का ध्यान ही नहीं जाता. आरोप आधारित राजनीति की यह शैली लोकतंत्र पर चोट कर रही है.

    डाकू की मानसिकता यही होती है, कि वह अपने गिरोह के साथ मनमर्जी से जिसकी चाहे धन संपत्ति मान-सम्मान और इज्जत लूट सकता है. डाकू की यही मानसिकता आरोप आधारित राजनीति में पहुंच गई है. बिना किसी सबूत आरोपों की राजनीति लोकतांत्रिक डकैती का ही स्वरुप है. लोकतंत्र, स्व अनुशासन का तंत्र है. इसमें बात की ही कीमत होती है और बात ही विश्वास या अविश्वास बढ़ाती है.