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कितना बदला राजनीति का डीएनए

सार

देश की आंतरिक सुरक्षा और अस्थिरता के नाम पर पहली बार लगाए गए आपातकाल के 50 साल पूरे हो गए हैं. लगभग 2 साल चले आपातकाल को भुगतने वाली पीढ़ी अभी मौजूद है..!!

janmat

विस्तार

    युवा पीढ़ी को आपातकाल लगाने का कारण, लगाने वाले और देश पर उसके दुष्प्रभाव को जानना इसलिए भी जरूरी है, क्योंकि राजनीति में आपातकाल का डीएनए अभी समाप्त नहीं हुआ है. उच्च न्यायालय इलाहाबाद से अपना चुनाव रद्द होने के बाद त्यागपत्र देने की बजाय तत्कालीन राष्ट्रपति फखरुद्दीन अली अहमद के सहयोग से इंदिरा गांधी द्वारा देश में 25 जून 1975 को आपातकाल लागू किया था. 

    इसमें न्यायिक और मौलिक अधिकारों को निलंबित कर दिया गया था. विपक्षी राजनीतिक दलों को गिरफ्तार कर लिया गया था. संविधान के अंतर्गत नागरिकों को मिली स्वतंत्रता और अधिकारों को कुचल दिया गया था. मीडिया की स्वतंत्रता पर भी कुठाराघात किया गया.

    मेंटिनेन्स ऑफ इंटरनल सिक्योरिटी एक्ट मीसा के अंतर्गत नागरिक स्वतंत्रता का हनन करते हुए लोगों को गिरफ्तार किया गया. 

    संजय गांधी के रूप में एक्स्ट्रा कांस्टीट्यूशनल अथॉरिटी का दौर देश ने देखा था. इंदिरा गांधी का डीएनए ही भारत की राजनीति में राष्ट्रीय दल कांग्रेस का प्रत्यक्ष अप्रत्यक्ष रूप से आज भी नेतृत्व कर रहा है. 

    बीजेपी आपातकाल के 50 साल को संविधान हत्या दिवस के रूप में मना रही है. आपातकाल का अतीत वर्तमान में उसकी संभावनाएं और राजनीति में उसके डीएनए पर लोकतंत्र का भविष्य टिका हुआ है. 

    देश के संविधान में राष्ट्रीय स्तर पर बाह्य आक्रमण के समय और आंतरिक सुरक्षा पर खतरे के समय आपातकाल का प्रावधान है. वित्तीय आपातकाल की भी व्यवस्था संविधान में है. इसके अलावा राज्यों में राष्ट्रपति शासन के नाम पर राज्य आपातकाल का भी प्रावधान संविधान में है. बाह्य आक्रमण के नाम पर भारत चीन युद्ध और भारत-पाक युद्ध के समय आपातकाल लगाया गया था.

    वित्तीय आपातकाल अभी तक देश में कभी लगा नहीं है. जहां तक राज्य आपातकाल का सवाल है कांग्रेस की सरकारों के समय तो राष्ट्रपति शासन लगना सतत राजनीतिक प्रक्रिया बन गई थी. यद्यपि कांग्रेस की सरकारों के अतिरिक्त भी दूसरे दलों की सरकारों में राज्य आपातकाल लगाए गए हैं. न्यायिक सक्रियता के कारण अब इसमें काफी कमी आ गई है. सुप्रीम कोर्ट ने संविधान के इस प्रावधान के उपयोग के लिए स्पष्ट दिशा-निर्देश दिए हैं जिसके कारण अब राष्ट्रपति शासन के जरिए राज्य आपातकाल लगाना काफी कठिन हो गया है.

    पद मोह और सत्ता के नशे में इंदिरा गांधी ने आपातकाल लगाकर राजनीतिक अपराध किया था. तानाशाही, ज्यादती और निरंकुशता से लोकतंत्र एवं स्वाधीनता पर हमला आपातकाल का डीएनए है. अतीत में इंदिरा गांधी ने जो किया इसका दुष्परिणाम भी उन्होंने और उनके राजनीतिक दल कांग्रेस ने ना केवल भोगा है, बल्कि अभी तक भुगत रही हैं.

    इमरजेंसी के बाद ही पहली बार भारतीय राजनीति में विपक्षी एकता का दौर प्रारंभ हुआ था. उसके बाद हुए चुनाव में इंदिरा गांधी को पराजित होना पड़ा था. वैकल्पिक राजनीति के अभाव में भले ही कांग्रेस बाद में सत्ता में आ गई  हो लेकिन कांग्रेस के पतन की शुरुआत इसी दौर से हुई थी. उसका इतिहास उसके वर्तमान पर भारी पड़ रहा है.

    अतीत की घटनाओं और हादसों पर जितनी भी बात कर ली जाए उसका कोई मतलब नहीं है. हर घटना से सबक और सुधार वास्तविक लक्ष्य होना चाहिए. इंदिरा गांधी द्वारा लगाए गए आपातकाल पर रोना रो कर राजनीति तो की जा सकती है, लेकिन इससे कोई वास्तविक परिणाम हासिल नहीं किए जा सकते.

    भारत के लोकतंत्र को आपातकाल के डीएनए से फिर नहीं गुजरना पड़े, इसके लिए वर्तमान सोच विचार चिंतन और एक्शन पर आगे बढ़ने की जरूरत है. दुर्भाग्यपूर्ण स्थिति यह है, कि वर्तमान में भी आपातकाल का डीएनए दिखाई पड़ रहा है. राजनीति में तानाशाही और व्यक्तिवाद हावी हो गया है. राजनीति का पूरा आचरण और भाषा चुनावी लाभ-हानि पर सिमट गई है. राष्ट्र की भाषा राजनीति की भाषा के बाद स्थान पाती है.

    संविधान राजनीति का माध्यम बन गया है, जिस संविधान को राष्ट्र के विधान के रूप में लोकतंत्र के सिर माथे पर रखना चाहिए, उसे राजनीतिक सभा में राजनीति के लिए उपयोग किया जा रहा है. 

    आपातकाल के दौरान इंदिरा गांधी ने संविधान की मूल प्रस्तावना में बदलाव कर दिया था. संविधान संशोधन की प्रक्रिया संविधान में ही निहित है. लेकिन इस संवैधानिक प्रक्रिया को भी राजनीतिक हथियार के रूप में उपयोग करने की प्रवृत्ति आपातकाल के डीएनए का इशारा करती है. संवैधानिक पदों पर बैठे हुए राजनेताओं द्वारा ऐसी बातें कही जाती हैं, जिनकी ना वैधानिकता प्रमाणित है, ना संवैधानिकता. फिर भी उस पर कोई सवाल नहीं उठाता.

    इंदिरा गांधी ने जब आपातकाल लगाया था, तब मंत्री परिषद थी. लेकिन एक भी आवाज खिलाफ़ में उठाने का साहस कोई नहीं दिखा सका था. राष्ट्रपति के रूप में राष्ट्र की भाषा में सोचने से ज्यादा राजनीति की भाषा में सोचा गया था. राष्ट्रपति संविधान का संरक्षक होता है, जब संरक्षक ही संविधान की हत्या करने के लिए आपातकाल को मंजूरी देनेके लिए मजबूर हो जाएगा, तो फिर संविधान प्रदत्त नागरिक स्वतंत्रता कैसे सुरक्षित रहेगी.

    राजनीतिक दल संसदीय प्रणाली के महत्वपूर्ण अंग हैं. राजनीतिक दलों में आपातकाल जैसी ही परिस्थितियां कायम रहती हैं. कोई राजनीतिक दल ऐसा नहीं है, जहां व्यक्तिवाद हावी नहीं है. परिवारवाद भी आपातकाल के डीएनए का ही प्रतीक है. जिन राजनीतिक दलों में नेतृत्व परिवार के लोगों के पास ही रहता है, तो जैसे इंसान का डीएनए नहीं बदलता वैसे ही उन राजनीतिक दलों का डीएनए भी नहीं बदलता है. 

     पचास साल पहले लगाए गए आपातकाल की निरंकुशता के अतीत को याद करके कुछ हासिल नहीं होगा. वर्तमान में जो निरंकुशता दिखाई पड़ती है,  उस पर अंकुश लगना जरूरी है. अभी हाल ही में यूपी के एक विधायक ने वंदे भारत ट्रेन के अंदर पैसेंजर एक सामान्य नागरिक को अपने गुर्गों से इसलिए पिटवाया क्योंकि उनकी मंशानुसार सीट नहीं बदली गई. यह निरंकुशता आपातकाल से कम कैसे कही जा सकती है.

    आज राजनीतिक दल किसी पर भी कोई भी आरोप लगा देते हैं. उस आरोप  के ना कोई प्रमाण होते हैं और ना ही कोई तथ्य होते हैं, लेकिन संबंधित के जीवन संपत्ति और स्वतंत्रता के अधिकारों का हनन कर दिया जाता है. क्या इसे आपातकाल जैसा नहीं माना जाएगा?

    बहुत विरले राजनेता होंगे जो संवैधानिक पदों पर हैं और जिनके परिवार का सत्ता की राजनीति में कोई हस्तक्षेप नहीं है. किसी भी राज्य में किसी भी संवैधानिक पद पर बैठे व्यक्ति के आस-पास बारीकी से देखा जाएगा तो कोई ना कोई एक्स्ट्रा कॉन्स्टीट्यूशनल अथॉरिटी संचालन सूत्र अपने हाथ में पकड़े दिखाई पड़ेगा. 

    इंदिरा गांधी का आपातकाल तो अतीत का विषय है. लेकिन वर्तमान में सत्ता के आपातकाल की मानसिकता के जो कीटाणु, चारों तरफ दिखाई पड़ते हैं उन पर कठोर हमला जरूरी है. घटनाओं से ज्यादा मानसिकता को बदलना जरूरी है.

    आपातकाल कालखंड से ज्यादा अखंड मानसिकता का प्रतीक है. इस मानसिकता के खिलाफ एकजुट होकर देश को लड़ना होगा. व्यक्तिगत स्वतंत्रता पर कोई भी हमला करने की जब तक मानसिकता रहेगी, तब तक आपातकाल का डीएनए रहेगा. ऐसा डीएनए लोकतंत्र के मूल आधार के खिलाफ़ है.