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भारत की उच्च शिक्षा, अभी भी फिस्सडी है

राकेश दुबे राकेश दुबे
Updated Thu , 08 Dec

सार

वर्ष 2023 की क्यूएस वर्ल्ड यूनिवर्सिटी रैंकिंग में भारतीय विज्ञान संस्थान ने 31स्थानों का सुधार दर्ज किया है और देश का सर्वश्रेष्ठ संस्थानबनने का सेहरा उसके सिर आया है..!

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विस्तार

विश्व का शैक्षणिक परिदृश्य सामने है, जहाँ मैसाच्युसेट्स इंस्टीट्यूट ऑफ टेक्नोलॉजी लगातार 11 वें साल सर्वश्रेष्ठ विश्वविद्यालय घोषित हुआ है |वहीँ कैंब्रिज विश्वविद्यालय तथा स्टेनफोर्ड विश्वविद्यालय क्रमशः दूसरे और तीसरे स्थान पर रहे| भारत के भी अपनी स्थिति में सुधार किया है, परन्तु या सुधार गिना तो जा सकता है पर इसका इन स्थानों पर आना इस बात की गवाही तो देता है, भारत में यह परिदृश्य बदल रहा है, परन्तु अपेक्षित स्तर का नहीं है।  

वर्ष 2023 की क्यूएस वर्ल्ड यूनिवर्सिटी रैंकिंग में भारतीय विज्ञान संस्थान (आइआइएससी) ने 31स्थानों का सुधार दर्ज किया है और देश का सर्वश्रेष्ठ संस्थानबनने का सेहरा उसके सिर आया है। शीर्ष 200 वैश्विक संस्थानों की सूची में आइआइएससी ने 155 वां, आइआइटी बांबे ने 172 वां और आइआइटी दिल्ली ने 174 वां स्थान प्राप्त किया है। यह बात संतोष की है कि इस बार शीर्ष 1000 वैश्विक संस्थानों में भारतीय संस्थानों की संख्या 22 से बढ़कर 27 हो गयी है,लेकिन भारत इस दौड़ में काफी पीछे है | सरकार के साथ देश के सभी वर्गों से इस दिशा में कुछ करने की दरकार है। 

भारत के लिय विचार विषय होना चाहिए कि मैसाच्युसेट्स इंस्टीट्यूट ऑफ टेक्नोलॉजी लगातार 11वें साल सर्वश्रेष्ठ विश्वविद्यालय क्यों  रहा ? और कैंब्रिज विश्वविद्यालय तथा स्टेनफोर्ड विश्वविद्यालय क्रमशः दूसरे और तीसरे स्थान पर  क्यों हैं ? रैंकिंग मुख्य रूप से छह मानकों-अकादमिक प्रतिष्ठा, नियोक्ता प्रतिष्ठा, संकाय-छात्र अनुपात, प्रति संकाय उद्धरण, अंतरराष्ट्रीय संकाय अनुपात और अंतरराष्ट्रीय छात्र अनुपात, के आधार पर तैयार होती है। भारत का आइआइएससी, बेंगलुरु का प्रदर्शन छह में से चार मानकों पर बेहतर हुआ है, भारत को यह खोजना होगा कि देश के संस्थान सभी 6 मानको पर खरे क्यों नहीं हैं?

ये रैंकिंग दर्शाती है कि भारतीय संस्थानों का संकाय-छात्र अनुपात अपेक्षा अनुरूप नहीं रहा है। रैंकिंग में शामिल भारतीय विश्वविद्यालयों में मात्र चार में ही यह अनुपात सुधरा है। रैंकिंग से यह भी स्पष्ट है कि अनेक भारतीय विश्वविद्यालय शोधकार्यों में सुधार तो कर रहे हैं, लेकिन शिक्षण क्षमता में पर्याप्त सुधार की दरकार अभी बनी हुई है। 

शीर्ष शिक्षण संस्थानों में गुणवत्ता पूर्ण शिक्षा और शोध की मांग बढ़ने के साथ पढ़ाई की लागत का भी बढ़ना चिंताजनक है| व्यावसायिक पाठ्यक्रमों की फीस का बोझ असहनीय हो रहा है| इससे गुणवत्ता प्रभावित होने के साथ-साथ शिक्षा के बाजारीकरण होने का खतरा निरंतर बढ़ रहा है। वास्तव में  देश के विश्वविद्यालयों की ऐसी प्रणाली तैयार होनी चाहिए, जो सीखने और कौशल विकास का बेहतर जरिया बने और शिक्षार्थियों पर शिक्षण लागत का बोझ कम करे।   जरा राधाकृष्णन आयोग (1948) के पन्ने पलटिये, आयोग की रिपोर्ट के अनुसार, बौद्धिक विकास, न्याय, स्वतंत्रता, बौद्धिक दृष्टिकोण के साथ सामाजिक सुधार देश में उच्च शिक्षा का उद्देश्य होना चाहिए, जो अभी हम स्थापित नहीं कर सके हैं। 

हकीकत में आज उच्च शिक्षा में अच्छी कार्यनीति, गुणवत्ता पूर्ण और प्रायोजित शोधकार्यों को बढ़ावा देने की जरूरत है, साथ ही सामूहिकता को प्रोत्साहित कियाजाना जरूरी है| भारत को उच्च शिक्षा के अंतरराष्ट्रीयकरण, स्वदेशी अनुसंधान व नवाचार को प्रेरित करना होगा, ताकि उच्च संस्थानों से निकलनेवाले युवा देश और समाज हित में अपना योगदान दे सकें| संस्थानों को अधिक स्वायत्तता देने के साथ-साथ इंटरडिसीप्लिनरी विषयों के आकार और दायरे को भी बढ़ाना  बी जरूरी है|

जरा इस बात पर भी ध्यान दें, जो सबसे अहम है कि उच्च शिक्षा में सकल नामांकन अनुपात (जीइआर) बढ़े| वर्तमान में यह 26.3 प्रतिशत ही है, इसे 2035 तक कम से कम 50 प्रतिशत तक ले जाने की आवश्यकता है। शिक्षा में निवेश इस उम्मीद के साथ होना चाहिए कि यह व्यावसायिक और व्यक्तिगत विकास के लिहाज से बेहतर भविष्य की बुनियाद बनेगा| डिग्री और ज्ञान बराबर होते हैं। इस अवधारणा को तोड़ते हुए सुनिश्चित करने की जरूरत है कि उच्च शिक्षण संस्थान रचनात्मकता की उर्वर भूमि बनें, जहां देश के युवा अपनी क्षमता की सही पहचान करें और उसका सदुपयोग कर सकें।