इंटरनेट बंदी का उपयोग हमारे देश में सरकार द्वारा जनता के विरुद्ध एक हथियार के तौर पर किया जा रहा है, एक ऐसा हथियार जिसकी आवाज नहीं है, पर निशाना अचूक है..!
भारत के एक राज्य मणिपुर में हिंसा जारी है। इंटरनेट बंद है। इंटरनेट बंदी का उपयोग हमारे देश में सरकार द्वारा जनता के विरुद्ध एक हथियार के तौर पर किया जा रहा है, एक ऐसा हथियार जिसकी आवाज नहीं है, पर निशाना अचूक है।भारत में हरेक छोटी बड़ी घटना की आशंका का हवाला देकर कभी भी इंटरनेट बंद कर दिया जाता है और इससे सबसे अधिक प्रभावित समाज का सबसे वंचित वर्ग होता है, जिसकी तथाकथित विकास की चर्चा प्रधानमंत्री समेत भाजपा नेताओं के हरेक चुनावी भाषणों में की जाती है।
ह्यूमन राइट्स वाच की एक ताज़ा रिपोर्ट में बताया गया है कि वर्ष 2019 से 2022 के बीच भारत में कम से कम 127 बार इंटरनेट बंदी की गयी है। इस अवधि के दौरान देश के 18 राज्यों ऐसे थे जिसमें कम से कम एक बार इंटरनेट बंदी की गयी है। यह सब प्रधानमंत्री के उन दावों के बिलकुल विपरीत है, जिसमें वे बार बार देश के हरेक नागरिक तक इंटरनेट पहुंचाने की बात करते हैं और उनके प्रिय कार्यक्रमों में डिजिटल इंडिया भी है।
इंटरनेट बंदी से रोजगार की सभावनाएं धूमिल पड़ जाती हैं, बैंकिंग सुविधा में व्यवधान पड़ता है, राशन की सुविधा प्रभावित होती है और बुनियादी सुविधाएं जनता की पहुंच से दूर हो जाती हैं। भारत में किसी भी अन्य देश की तुलना में सबसे अधिक इंटरनेट बंदी की जाती है, जिसे अधिकतर विशेषज्ञ गैर-कानूनी बताते हैं और एक खतरनाक परम्परा भी। इंटरनेट बंदी को भारत में पुलिस तंत्र का एक अभिन्न अंग बना दिया गया है, जिसका सरकार के विरोध या प्रदर्शन की आशंका के समय सबसे पहले इस्तेमाल किया जाता है।
केवल इंटरनेट बंदी ही नहीं, बल्कि हमारा देश भारत नागरिकों के व्यक्तिगत जानकारियों को सार्वजनिक करने और सरकारी आदेश पर सोशल मीडिया से नागरिकों और निष्पक्ष पत्रकारों के पोस्ट और अकाउंट को ब्लाक करने के लिए भी बदनाम है। कोविड 19 से संबन्धित सरकारी वेबसाइट कोविन से करोड़ों लोगों की व्यक्तिगत जानकारी लीक होने की बात सामने पर ट्विटर के पूर्व सीईओ ने खुलासा किया है कि किसान आंदोलन के समय भारत सरकार ने सत्ता के विरोध में खड़े नागरिकों, पत्रकारों और नेताओं के ट्वीट ब्लाक करने का दबाव बनाया था।
सबसे अधिक इंटरनेट बंदी का शिकार जम्मू और कश्मीर रहा है। कश्मीर चैम्बर ऑफ कॉमर्स एंड इंडस्ट्रीज की एक रिपोर्ट के अनुसार वर्ष 2019 में धारा 370 हटाने के बाद लगातार 550 दिनों की रेकोर्ड़ तोड़ इंटरनेट बंदी के कारण राज्य को 2.4 अरब डॉलर का नुकसान उठाना पड़ा और लगभग 5 लाख युवा रोजगार से वंचित रह गए। इंटरनेट बंदी के कारण पत्रकारों का काम ठप्प हो गया, जिसका सीधा असर प्रेस की आजादी और जनता के सूचना के अधिकार पर पड़ा।
भारत में 38 इंटरनेट बंदी तो केवल परीक्षाओं में छात्रों द्वारा की जाने वाली नक़ल को रोकने के नाम पर की गई। 18 इंटरनेट बंदी जातिगत हिंसा को रोकने के नाम पर और इतनी ही बंदी क़ानून व्यवस्था के नाम पर की गयी। क़ानून के अनुसार हरेक इंटरनेट बंदी से पहले सरकारों को ऐसा आदेश समाचारपत्रों में प्रकाशित करना जरूरी है, पर सर्वोच्च न्यायालय के समक्ष एक मुकदमे के दौरान इंटरनेट बंदी वाले 18 राज्यों में से 11 राज्य ऐसा कोई विज्ञापन प्रदर्शित करने में असफल रहे, जबकि शेष राज्यों ने बंदी का कोई संतोषजनक कारण नहीं बताया।
यह एक विचित्र तथ्य यह है कि वर्ष 2014 के बाद से सत्ता में काबिज भाजपा सरकार हरेक सरकारी सुविधा और योजनाएं ऑनलाइन कर चुकी है, या फिर करने की प्रक्रिया में है और यही सरकार इंटरनेट बंदी के सन्दर्भ में भारत को विश्वगुरु बना चुकी है। हमारे प्रधानमंत्री जी इंटरनेट की 5-जी सेवा शुरू करते हैं, इसे देश की उपलब्धि बताते हैं, बताते है कि इससे फ़िल्में कितने सेकंड में अपलोड हो जाएंगी – पर इंटरनेट सेवा बंद करने का ख़याल भी सबसे अधिक केंद्र सरकार को आता है। यहाँ न्यायालयों के आदेशों की धज्जियां कैसे खुले आम उड़ाई जाती हैं यह उसका भी उदाहरण है। सर्वोच्च न्यायालय में वर्ष 2020 में कहा था कि इंटरनेट सेवा नागरिकों का मौलिक अधिकार है और बिना किसी उचित कारण के इसे ठप्प नहीं किया जा सकता है, और ना ही अनिश्चित काल के लिए यह सेवा कहीं प्रतिबंधित की जा सकती है। पर, सरकारें लगातार ऐसा ही कर रही हैं।