राष्ट्रीय शिक्षा नीति के त्रिभाषा फार्मूले पर महाराष्ट्र में भी विवाद शुरू कर दिया गया है. तमिलनाडु तो हिंदी के विरुद्ध हमेशा आक्रामक रहा है. हिंदी भाषा को कम्यूनल राजनीति से जोड़ने का अपराध किया जा रहा है..!!
महाराष्ट्र सरकार ने पांचवीं तक एक भाषा के रूप में हिंदी को अनिवार्य किया तो विरोध के स्वर उठने लगे. जबकि मराठी भाषा पहले से ही अनिवार्य है. ऐसे ही तमिल की भी स्थिति है. अगर हिंदी को एक भाषा के रूप में पीढियां पढ़ेंगी, समझेंगी तो इससे जीवन में बेहतरी ही आएगी. नुकसान की तो कोई भी संभावना नहीं है. फिर भाषा के विवाद क्यों पैदा किए जाते हैं.
संविधान निर्माताओं ने भाषा, क्षेत्र, राज्य और शासन व्यवस्था को लेकर स्पष्टता के साथ ऐसी व्यवस्था की है, जिसके कारण संघीय व्यवस्था और राज्यों की स्वायत्ता का संतुलन बना हुआ है. देश के पहले गृहमंत्री सरदार वल्लभभाई पटेल ने ऑल इंडिया सर्विसेज को स्टील फ्रेम ऑफ इंडिया कहा था. ऑल इंडिया सर्विसेज की संरचना अगर भारत में नहीं बनाई गई होती तो क्षेत्र, भाषा और राज्य के नाम पर विवाद इस सीमा तक बढाये गए होते कि, राष्ट्रीय एकता को बनाए रखना असंभव हो जाता.
ऑल इंडिया सर्विसेज राष्ट्रीय एकता का सबसे बड़ा डिफेंस मेकैनिज्म बन गया. इस सर्विसेज के जरिए भाषा, क्षेत्र और राज्य को भी संतुलन में रखा गया है. ऑल इंडिया सर्विसेज की संरचना ऐसी बनाई गई है कि किसी भी राज्य में इस सेवा के कुल अधिकारियों की संख्या का एक तिहाई ही उस राज्य का व्यक्ति हो सकता है. दो तिहाई हिस्सा दूसरे राज्यों के चयनित उम्मीदवारों से आएगा.
इस व्यवस्था से किसी भी राज्य में कम से कम शासन के स्तर पर क्षेत्र और भाषा का विवाद नहीं बढ़ा है, तो इसका सबसे बड़ा कारण ऑल इंडिया सर्विसेज ही मानी जाएगी. चाहे महाराष्ट्र में हो या दक्षिण भारत में हो उत्तर भारतीयों को नकारने की कोशिश की जाती है. हिंदी भाषियों को दोयम दर्जे का समझा जाता है जबकि इसके विपरीत सभी राज्यों में दो तिहाई आईएएस और आईपीएस अफसर दूसरे राज्यों के और दूसरी भाषा को जानने वाले होते हैं.
नॉर्थ इंडिया के राज्यों के ऑल इंडिया सेवाओं के अफसर दक्षिण भारत के राज्यों में भी तैनात हैं. उनकी पढ़ाई लिखाई हिंदी भाषा की अनिवार्यता के साथ हुई है. भले ही उन्हें अंग्रेजी का पर्याप्त ज्ञान होगा लेकिन उन्हें हिंदी का भी ज्ञान इसलिए है क्योंकि, उनकी शिक्षा में हिंदी भाषा की भी अनिवार्यता रही है. इसी प्रकार दक्षिण भारत के राज्यों में उस राज्य की भाषा में शिक्षित युवा अपनी स्किल के कारण ऑल इंडिया सर्विसेज में अपना स्थान बनाते हैं. ऐसे अफसर को नॉर्थ इंडिया के राज्यों में ऑल इंडिया सर्विसेज की संरचना के कारण मौके दिए जाते हैं.
यूपी, एमपी जैसे हिंदी भाषी राज्यों में केरल, तमिलनाडु, कर्नाटक, तेलंगाना, आंध्र प्रदेश के बड़ी संख्या में आईएएस और आईपीएस अफसर तैनात हैं. चुनावी राजनीति में तो भाषा, राज्य की बोली को भी राजनीतिक लाभ के लिए उपयोग, दुरुपयोग किया जाता है. लेकिन अगर शासन प्रशासन में इसका कोई प्रभाव नहीं पड़ता तो सबसे बड़ा क्रेडिट ऑल इंडिया सर्विसेज को ही जाएगा.
उत्तर भारत के लोग अधिकांशतः अंग्रेजी में कमज़ोर ही माने जाते हैं. ऐसे राज्यों में दक्षिण भारत के जो अफसर पदस्थ होते हैं अगर वह हिंदी नहीं जानेंगे तो फिर ना तो प्रशासन पर वह अपना प्रभाव छोड़ पाएंगे और ना ही अपनी जवाबदेही और जिम्मेदारी का ईमानदारी से पालन कर पाएंगे. इसी तरीके से दक्षिण भारत में जो उत्तरभारत के अफसर पदस्थ हैं, वह भी अंग्रेजी ज्ञान के सहारे शासन में अपनी भूमिका निभाने में सक्षम हैं, लेकिन हिंदी का उनका ज्ञान केंद्रीय डेपुटेशन के समय उपयोगी होता है.
ऑल इंडिया सर्विसेज की संरचना में केंद्रीय डेपुटेशन भी एक व्यवस्था है. जिसमें अधिकारी समय-समय पर पदस्थ होते हैं. राष्ट्रीय स्तर पर राष्ट्रभाषा हिंदी का ज्ञान इस दृष्टि से भी बहुत जरूरी है. इसीलिए इस प्रकार की व्यवस्था है कि, ऑल इंडिया सर्विसेज के अधिकारियों को उन राज्यों में राज्य की भाषा का प्रशिक्षण दिया जाता है, जहां शासन में उसकी उपयोगिता होती है. महाराष्ट्र में मराठी सीखनी पड़ती है. तमिलनाडु में तमिल, कर्नाटक में कन्नड़ और दूसरे राज्यों में वहां की भाषा का ज्ञान इन अफसरों को लेना पड़ता है. कश्मीर में जब आतंकवाद चरम पर था. जाति और भाषा के नाम पर लोगों के साथ भेदभाव किया जा रहा था, तब भी ऑल इंडिया सर्विसेज के स्टील फ्रेम के कारण ही स्थितियां कुछ सीमा तक संभाली जा सकीं.
जो राजनेता भाषा के नाम पर विवाद पैदा करते हैं वह भी शासकीय आचरण में राज्य की भाषा से ज्यादा अंग्रेजी भाषा का उपयोग करते हैं. विदेशी भाषा में राज्य की भाषा पर विवाद खड़ा किया जाता है. हाल ही में प्रधानमंत्री मोदी ने तमिलनाडु के दौरे के दौरान वहां के मुख्यमंत्री द्वारा हिंदी भाषा पर खडे़ किए गए विवाद के संदर्भ में कहा था कि कम से कम तमिल भाषा में तो पत्र व्यवहार और हस्ताक्षर किए जाना चाहिए.
ऐसे ही हालात सभी राज्यों में हैं. चुनावी राजनीति के कारण बातचीत भले ही राज्य की भाषा में की जाती हो लेकिन सरकारी कामकाज ज्यादातर अंग्रेजी में ही किया जाता है.
महाराष्ट्र में भाषा के विवाद के नाम पर मराठी एकता के लिए उद्धव ठाकरे और राज ठाकरे के एक साथ आने की बातें भी चल गई हैं. मुंबई हिंदी सिनेमा का देश का सबसे बड़ा केंद्र है. मुंबई में बनने वाली बॉलीवुड की हिंदी फिल्में पूरी दुनिया में छा जाती हैं. भाषा के नाम पर विवाद बेमानी है. संविधान ने प्रचलित देश की सभी भाषाओं को राजभाषा की लिस्ट में शामिल किया है.
भाषा अनेक भाव एक, राज्य अनेक राष्ट्र एक. चेहरे अनेक मुस्कान एक, बोली अनेक स्वर एक होता है. नृत्य की कोई भाषा होती है? दक्षिण भारतीय नृत्य को वहां की भाषा नहीं समझने वाला भी आराम से समझ सकता है. जीवन की जो भाषा है वह शब्दों की भाषा से बहुत अलग है. जीवन की बोली पूरे देश में ही नहीं बल्कि पूरी दुनिया में एक ही कहीं जाएगी.
काम, क्रोध, मद, लोभ का भाव क्या अलग-अलग भाषा में अलग-अलग अनुभूति देता है? यह अनुभूतियां भाषा से ऊपर हैं. यह जीवन की अनुभूतियां हैं. जब जीवन भाषा का मोहताज नहीं है तो फिर राजनीति भाषा की मोहताज क्यों होना चाहिए?
ऑल इंडिया सर्विसेज के हवाले देश है, इसीलिए देश की एकता सुरक्षित है. हम वन नेशन इसीलिए है क्योंकि हमारी वन सर्विसेज हैं. भाषा विवाद पॉलिटिकल मोशन है. पॉलिटिक्स जब इमोशन से खेलने लगती हैं तो फिर पूरा खेल बिगड़ जाता है और खिलाड़ी पिट जाता है.