आज सर्वोच्च अदालत है, तो आम आदमी की उस तक पहुंच बेहद पेचीदा और महंगी है, ऐसे उँगली पर गिने जानेवाले मामले होंगे, जिनका शीर्ष अदालत स्वत: संज्ञान लेती है और फिर पीड़ित पक्ष की लड़ाई लड़ते हुए उसे न्याय देने की कोशिश करती है..!!
अपने देश भारत का लोकतंत्र सर्वोच्च अदालत के भरोसे होता जा रहा है। आम आदमी को यही संस्था अंतत:, इंसाफ देती है। यदि सर्वोच्च अदालत न होती, तो देश का आम आदमी कराहते, चिल्लाते, इधर-उधर धक्के खाते हुए जीवन के अंत तक पहुंचता और हमारे भारत में भी ‘जंगल-राज’ का माहौल होता! आज सर्वोच्च अदालत है, तो आम आदमी की उस तक पहुंच बेहद पेचीदा और महंगी है। ऐसे उँगली पर गिने जानेवाले मामले होंगे, जिनका शीर्ष अदालत स्वत: संज्ञान लेती है और फिर पीडि़त पक्ष की लड़ाई लड़ते हुए उसे न्याय देने की कोशिश करती है।
कतंत्र की जिम्मेदारी और जवाबदेही न्यायपालिका की ही नहीं है। उसके लिए विधायिका की बुनियादी जिम्मेदारी है, लेकिन विधायक हो अथवा सांसद हो, उन्हें इस जिम्मेदारी का एहसास तक नहीं है। बस, उन्हें ईवीएम का बटन दबाने के लिए ही जनता की दरकार है, लिहाजा वे पांच साल के कार्यकाल के बाद, कुछ दिनों के लिए, जनता की मनुहार और गुहार करते हैं। उसके बाद जनता की मदद का संदर्भ आता है, तो वे गायब हो जाते हैं।
जनता के एक-एक वोट से ही विधायक और सांसद चुने जाते हैं। हमें लगता है कि बस, जनता का दायित्व वोट तक सिमट कर रह गया है। अब औसत मतदाता, अर्थात देश का नागरिक, ‘ह्यूमन वोटिंग मशीन’ बनकर रह गया है। अदालतों को जनता के वोट नहीं चाहिए, लेकिन न्यायाधीशों के भीतर आम आदमी, न्याय और सामाजिक-विधिक व्यवस्था अब भी जिंदा हैं। वे देश को ‘केला गणतंत्र’ बनने से बचाना चाहते हैं। वे लोकतंत्र के प्रहरी हैं। वे अपराधियों, बलात्कारियों, व्यभिचारियों, हत्यारों और माफिया आदि को कानून के अंतिम निष्कर्ष तक पहुंचाने और दंडित करने के पक्षधर हैं।
कोलकाता अस्पताल रेप-मर्डर कांड को ही लें। सर्वोच्च अदालत देश भर के डॉक्टरों की लड़ाई लड़ रही है, लिहाजा उसकी आग्रहपूर्ण अपील पर डॉक्टरों और उनके संगठनों ने हड़ताल खत्म कर दी है। अदालत का यह आग्रह मानवीय सरोकार वाला था, क्योंकि असंख्य मरीज इलाज के अभाव में तड़प रहे थे। कुछ भी अनहोनी हो सकती थी। शायद कोई त्रासदी हुई भी हो! डॉक्टरों को भी, अंतत:, मानवीय दायित्व का एहसास हुआ। इस केस का सर्वोच्च अदालत ने स्वत: संज्ञान लिया है।
न्यायिक पीठ कोलकाता के आरजी कर मेडिकल कॉलेज एंड अस्पताल की युवा डॉक्टर के साथ बर्बर बलात्कार और निर्मम हत्या की सुनवाई तो कर रही है। बंगाल की सरकार और पुलिस की नालायकी, लापरवाही, अराजकता, सांठगांठ के मद्देनजर उन्हें जवाबदेही पर टांग भी दिया है। इसके साथ-साथ अस्पतालों की चाक-चौबंद सुरक्षा के लिए केंद्रीय स्वास्थ्य सचिव को आदेश दिए हैं। वह राज्यों के मुख्य सचिवों और पुलिस महानिदेशकों से संवाद कर अकाट्य सुरक्षा-तंत्र लागू करेंगे।
कोलकाता के दागदार अस्पताल में सीआईएसएफ के जवान तैनात हो चुके हैं। देश के प्रधान न्यायाधीश जस्टिस चंद्रचूड़ ने डॉक्टरों की 36 और 48 घंटे की निरंतर ड्यूटी को ‘अमानवीय’ करार दिया है। जाहिर है कि शीर्ष अदालत के हस्तक्षेप से यह व्यवस्था भी बदलेगी। यदि एक शिक्षित और पेशेवर व्यक्ति की नियति यही है, तो वह शिक्षा और हुनर बेमानी हैं। सर्वोच्च अदालत ने करीब 24 लाख छात्रों की नीट परीक्षा के संदर्भ में भी कमाल का फैसला दिया। शाहबानो से तीन तलाक और मौजूदा यौन दरिंदगी के मामलों तक सर्वोच्च अदालत ने ही आम आदमी और समाज को बचाया है।
जन-प्रतिनिधियों की संसद ने या तो शीर्ष अदालत और संविधान पीठ के फैसले पलटे हैं अथवा सदनों में शोर मचाया है। क्या जन-प्रतिनिधि आम आदमी को इसी तरह बचाएंगे और अपने मतदाता की रक्षा करेंगे। कोलकाता रेप-मर्डर केस में राजनीति दोफाड़ हुई है और उंगलियां तोड़ देने तक की हुंकार भरी गई है। सर्वोच्च अदालत ने चुनावी बॉन्ड सरीखे मुद्दों पर फैसला दिया है और पूरी विधायिका, कार्यपालिका को बेनकाब किया है। राजनीतिक भ्रष्टाचार और अनुच्छेद 356 के दुरुपयोग सरीखे मामलों में भी शीर्ष अदालत ने ‘न्याय’ किया है। कुछ अपवाद सर्वोच्च अदालत में भी हो सकते हैं, कुछ फैसले भी सवालिया हो सकते हैं, लेकिन समग्रता में हमारा देश सर्वोच्च अदालत के ही भरोसे है।