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मणिपुर: आख़िर भाजपा चाहती क्या है?

राकेश दुबे राकेश दुबे
Updated Wed , 05 Oct

सार

सवाल यह है कि आखिर, सुरक्षा बल कब तक शांति बनाए रख सकेंगे? भाजपा मूल समस्या से कब तक आँखे मूँदे रहेगी?

janmat

विस्तार

कश्मीर की भाँति मणिपुर भी इंटरनेट प्रतिबंध झेल रहा है। सामान्य स्थिति की बहाली के प्रयासों के तहत अब तक खास किस्म के ड्रोन या क्वैडकॉप्टर, स्निफर डॉग्स, खास इलाकों में पेट्रोलिंग और अतिरिक्त सशस्त्र जवानों की तैनाती की गई है। सवाल यह है कि  आखिर, सुरक्षा बल कब तक शांति बनाए रख सकेंगे? भाजपा मूल समस्या से कब तक आँखे मूँदे  रहेगी ?

इन दिनों  मणिपुर के पहाड़ी इलाकों में कुकी-चिन जनजातियों और इम्फाल घाटी में मैतेईयों के बीच अविश्वास की खाई और गहरी तथा चौड़ी हो रही है। 3 मई को शुरू हुई हिंसा में मैतेई और जनजातीय समूहों के अनेक लोगों की मृत्यु हुई है । इस जातीय हिंसा में मारे गए लोगों के बारे में निश्चित  तौर पर अब भी कुछ तय नहीं है। राज्य सरकार द्वारा पेश किए जा रहे 50-70 के आंकड़े पर कोई भरोसा नहीं कर रहा है ।

मणिपुर के लोग पास के मिजोरम, असम और अन्य इलाकों में शरण ले रहे हैं। इस हिंसा के खौफनाक विवरण मिल रहे हैं। पड़ोसी राज्यों में इंटरनेट पर कोई प्रतिबंध नहीं है इसलिए वे विवरण दूसरे हिस्सों में पहुंच रहे हैं। मणिपुर में क्या हो रहा है , इस बारे में यकीन करने वाली कथाएं चूंकि गायब हैं इसलिए आदिवासियों को गोलियां मारने, उन पर हमले और उनके साथ बलात्कार की कहानियां यहां-वहां तैर रही हैं जो स्थिति बिगाड़ने वाली ही हैं।

मिजोरम मणिपुर के सबसे पास का पड़ोसी राज्य है और मणिपुर की पहाड़ी जनजातियों का वहां के लोगों से जातीय रिश्ता है।  बड़ी संख्या में कुकी लोगों ने असम और मेघालय से लेकर दिल्ली तक में अपने सगे-संबंधियों के यहां शरण ले रखी है। इससे पहले मणिपुर ने आज जैसी पीड़ा झेली भी नहीं थी।

 इतिहास कहता है मणिपुर की पहाड़ियों में बसे नगा और कुकी के बीच कथित अतिक्रमण के नाम पर 1992-1997 के बीच कई बार संघर्ष हुए थे। नगाओं का कहना था कि कुकी लोगों ने उनके पैतृक घरों पर कब्जा कर लिया है। कुकी लोगों का दावा है कि केन्द्र सरकार के साथ बातचीत करने वाले नगा आतंकी संगठन एनएससीएन (आईएम) ने उस वक्त 350 गांवों को उजाड़ दिया और करीब 1,500 निःशस्त्र कुकी लोगों की हत्या कर दी थी। उस वक्त भी हजारों कुकी लोग विस्थापित हुए थे।

फिर भी, दोनों जनजातियों के बीच रिश्ते इतने खराब नहीं हुए कि वे एकसाथ न रह पाएं। लेकिन मणिपुर के 10 कुकी विधायकों ने जिनमें 7 विधायक भाजपा के हैं। केन्द्रीय गृह मंत्री को लिखे एक पत्र में अलग 'प्रशासन' की मांग की है। इस पत्र में अलग राज्य की मांग तो नहीं है, पर प्रकारांतर से वही बात कही गई है।

आबादी और जमीन का असमान वितरण इस संघर्ष मुख्य बिंदु मे है। मैतेई की आबादी 52 से 60  प्रतिशत के बीच है लेकिन वे मणिपुर के 10 प्रतिशत इलाके में रहते हैं। बाकी बचे हिस्से में अधिकांशतः आदिवासी हैं जो राज्य के भौगोलिक क्षेत्र के 90 प्रतिशत हिस्से में फैले हुए हैं। इस बार हिंसा पहाड़ी जनजातियों की इस आशंका से फैली कि अगर वैष्णवी हिन्दू मैतेई को अनुसूचित जाति श्रेणी दी गई, तो न सिर्फ वे अधिक नौकरियां पा लेंगे बल्कि पहाड़ियों में जमीन खरीदने में भी सक्षम होंगे जिनकी अभी उन्हें इजाजत नहीं है क्योंकि वे आदिवासी नहीं हैं। मैतेई बेहतर आर्थिक स्थिति में हैं और जनजातीय लोगों को आशंका है कि पहाड़ों में जमीन ख़रीदना उनके लिए आसान होगा। 

ज़मीन की जनजातियों के लोग पुरखों द्वारा दिया उपहार मानते  है और इसे किसी गैर-जनजाति को किसी भी रूप में दे देना उस जमीन का अपमान करना जैसी धारणा  है। मैतेई सिर्फ इम्फाल घाटी में केन्द्रित हैं। मणिपुर का इलाका करीब 20,000 वर्ग किलोमीटर है। इम्फाल घाटी इनमें से लगभग 2,000 वर्ग किलोमीटर है। मैतेई लोगों का कहना है कि उनकी आबादी बढ़ रही है और उनके लिए भी जमीन बहुमूल्य है जबकि संसाधनों की कमी है।मैतेईयों का गुस्सा और जनजातियों की आशंकाएं- दोनों ही अपनी-अपनी जगह सही हैं जबकि स्थिति संभालने के प्रयास न के बराबर हो रहे हैं। समाधान की तलाश में राज्य सरकार ने आदिवासी परिषदों और संवैधानिक तौर पर बने हिल एरिया काउंसिल (एचएसी) से संपर्क नहीं किया है। इसकी जगह, एचएसी या जनजातियों को विश्वास में लिए बिना ही मणिपुर की भाजपा सरकार ने पहाड़ियों के वन क्षेत्र में घुसपैठ कर और उन्हें सुरक्षित और संरक्षित वन और वन्य जीव अभयारण्य में बदलकर मामले को पेचीदा बना दिया ।

जमीन और आबादी के बीच इस किस्म की असमानता के ऐतिहासिक कारण हैं। कुकी-चिन जनजातियां मूल रूप से बर्मा (अब म्यांमार) की चिन पहाड़ियों की हैं। माना जाता है कि नृशंस बर्मी शासकों से बच निकलने के लिए वे वहां से आ गए। वस्तुतः, बर्मी राजा दहला देने वाले थे और उन लोगों ने 1819 से 1825 के बीच सात वर्षों तक मणिपुर में शासन किया था। उस अवधि को इतिहास सात साल की तबाही के तौर पर पहचानता है। बर्मी जनरल मिंगी महा बंदुला ने राजा मारगीत सिंह और उनके समर्थकों को कछार से भागने को विवश कर दिया था। बड़ी संख्या में मणिपुरी भी कछार से भाग गए क्योंकि वे बर्मी दमन और अत्याचार नहीं झेल सके। 

तब ब्रिटिश और बर्मी शासकों के बीच यान्डाबू समझौता हुआ जिसमें बर्मा ने असम, कछार और जैंतिया तथा मणिपुर के शासन-क्षेत्र में हस्तक्षेप न करना स्वीकार किया। मणिपुर के राजा ब्रिटिश राजनीतिक एजेंटों की देखरेख में काम करते रहे, पर उनकी सलाह के बिना ही ब्रिटिश शासन ने काबो घाटी बर्मा को दे दी। मणिपुर के पूर्वी सीमा और चिंदविन नदी के बीच का लगभग 1,200 वर्ग किलोमीटर का यह इलाका काफी उर्वर है।

 आजादी के बाद सितंबर, 1949 में महाराजा बोधचंद सिंह के हस्ताक्षर से मणिपुर भारत में शामिल हो गया। पहले वह केन्द्रशासित क्षेत्र था, 1962 में राज्य बना। लेकिन जमीन और आबादी की असमानता की समस्या अब तक नहीं सुलझ पाई।आदिवासियों के लिए अलग राज्य की मांग इस वक्त काफी अपरिपक्व है लेकिन इन सबके स्थायी समाधान को काफी दिनों तक नहीं टाला जा सकता।