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मराठा आरक्षण, कुनबी जाति में पुनर्नियोजन 

सार

महाराष्ट्र में मराठा आरक्षण आंदोलन फिलहाल स्थगित हो गया है. मुंबई आंदोलनकारियों से खाली हो गई है. मराठा आरक्षण के लिए मराठियों को कुनबी जाति में मानकर ओबीसी आरक्षण कोटा देने की मांग सरकार ने एक सीमा तक मान ली है..!!

janmat

विस्तार

    हैदराबाद निजाम के शासनकाल में मराठवाड़ा के किसान मराठी लोगों को कुनबी के रूप में मानने की व्यवस्था की गई थी. महाराष्ट्र सरकार ने इस गजट को मानने पर सहमति दी है. इसका मतलब है कि सारे मराठी इस गजट के अंतर्गत नहीं शामिल होंगे. राहत की बात यह है कि फिलहाल आंदोलन समाप्त हो गया है.

    आंदोलनकारियों की मांग और सरकार के निर्णय जब जमीन पर उतरेंगे तो फिर से मराठा आरक्षण राजनीति शुरू होगी. राजनीति के कारण आरक्षण सियासी लोकरण बन गया है. हर दल और हर राज्य इस राजनीति में हिस्सेदार है.

    एक तरफ आरक्षित पद हजारों की संख्या में खाली पड़े हुए हैं. दूसरी तरफ आरक्षण की सियासत कंटिन्यूअस प्रक्रिया बनी हुई है.

    ओबीसी आरक्षण लागू होने के बाद नई जातियों को इसमें शामिल करना राजनीतिक हथियार बन गया. जातियों के इसी पुनर्नियोजन में मुस्लिम आरक्षण भी शामिल हो गया है. ओबीसी जातियों में अनेक मुस्लिम जातियां भी शामिल हैं. उन्हें आरक्षण का लाभ मिलता है. कई राज्यों में विशेष कर कांग्रेस और विपक्षी शासित राज्यों में मुस्लिम जातियों को उदारतापूर्वक इस लिस्ट में शामिल कर लिया जाता है.

    राजनीतिक दल एक दूसरे को आरक्षण विरोधी साबित करने में जुटे रहते हैं. पिछले लोकसभा चुनाव में तो राहुल गांधी ने संविधान बदलने के नाम पर आरक्षित वर्गों में ऐसी ग़लतफ़हमी फैलाने में सफलता प्राप्त की, कि बीजेपी सरकार आरक्षण समाप्त कर सकती है. 

    इसके कारण लोकसभा चुनाव में बीजेपी को राजनीतिक नुकसान भी उठाना पड़ा. आरक्षण में जितने प्रकार के प्रलोभन दिए जा सकते हैं, वह देने के प्रयास किए जाते हैं. सरकार जो कर नहीं सकती है, वह प्रलोभन दे नहीं सकते लेकिन विपक्ष के लिए यह बहुत सुविधाजनक होता है कि आरक्षण से जुड़ा कोई भी वायदा किया जा सकता है.

    आजकल राहुल गांधी आरक्षण की अधिकतम निर्धारित सीमा 50% की दीवार को तोड़ने की बात कर रहे हैं. यह लिमिट किसी सरकार द्वारा निर्धारित नहीं की गई है, बल्कि सर्वोच्च न्यायालय द्वारा इसे तय किया गया है. सीमा की इस दीवार को तोड़ने की बात सर्वोच्च न्यायालय के निर्णय के अवेहेलना की श्रेणी में आता है. लेकिन इस तरह भ्रम की राजनीति होती है.

    आरक्षण पर अंदरूनी विवाद इतने बढा  दिए जाते हैं कि समानता का इसका आधार ही प्रभावित हो जाता है. प्रमोशन में आरक्षण भी सियासत की ही उपज है. आज हालात यह बन गए हैं कि, न्यायालय ने रोक लगा दी है. हजारों कर्मचारी, अधिकारी बिना प्रमोशन के रिटायर हो रहे हैं. अब इस पर कोई भी राजनीतिक दल आवाज नहीं उठा रहा है. 

    सभी राष्ट्रीय दल चुप्पी साधे हुए हैं. जब तक प्रमोशन में रिजर्वेशन राजनीति के लाभ सौदा था तब तक उसका लाभ उठाया गया. अब इस मुद्दे की लाभ की क्षमता कम हो गई इसलिए राजनीतिक दलों ने अब 50% की आरक्षण सीमा समाप्त करने के मुद्दे की मशाल उठा ली है.

    मध्य प्रदेश में 27% ओबीसी रिजर्वेशन की राजनीति चरम पर चल रही है. इसके कारण बहुत सारी भार्तियां प्रभावित हो रही हैं. चयन एजेंसियां अदालतों में प्रभावशील नियमों के अनुरूप शपथ पत्र दे रही हैं. अधिकतम सीमा के कारण मध्य प्रदेश में ओबीसी को 14% आरक्षण लागू है. दोनों प्रमुख दल कांग्रेस और बीजेपी इसे 27% करने की राजनीतिक इच्छा शक्ति तो बताते हैं, लेकिन इसके कारण भर्तियों में जो बाधा पैदा हो रही है उस पर चुप्पी साध लेते हैं.

    अभी मध्य प्रदेश में इस पर सर्वदलीय बैठक बुलाई गई थी. राजनीतिक दल कैसे जनमानस को भ्रमित करते हैं, इसका सबसे बड़ा उदाहरण सर्वदलीय बैठक को माना जा सकता है. जब तक आरक्षण की अधिकतम सीमा 50% की दीवार बनी रहेगी तब तक मध्य प्रदेश में ओबीसी आरक्षण 14% से अधिक नहीं बढ़ाया जा सकता.

      एससी, एसटी और ओबीसी को मिलाकर अधिकतम सीमा पर आरक्षण पहले से ही राज्य में लागू है. इसका मतलब यह बैठक केवल राजनीति के अलावा कुछ नहीं हो सकती. आरक्षण की अधिकतम सीमा बढ़ाने की एक ही शर्त है कि इस पर संविधान संशोधन किया जाए.

    आरक्षण का यह संघर्ष राजनीतिक कारणों  से जातीय टकराव का आधार बन सकता है. महाराष्ट्र में मराठा आरक्षण मामले में इसी का खतरा बना हुआ है. मराठा जो संस्कृति और भारतीयता के प्रतीक माने जाते हैं, वह आज अपने आप को आरक्षण दिलाने के लिए ओबीसी की कुनबी जाति में शामिल होने के लिए संघर्ष कर रहें हैं. 

    महाराष्ट्र सरकार ने उनकी बात इस सीमा तक स्वीकार कर ली है कि, निजाम रुल के समय जिन मराठा समूहों को कुनबी जाति में माना जाता था, उनको नए सिरे से इस जाति में स्वीकार किया जाएगा. लेकिन इससे विवाद समाप्त नहीं होगा. यह नए विवाद की शुरुआत हो सकती है. जब मराठा समुदाय के एक वर्ग को कुनबी मान लिया जाएगा, तो फिर निश्चित रूप से सभी मराठियों को इसमें शामिल करने के लिए राजनीति शुरू होगी. 

    सियासी रोटी के रूप में आरक्षण को उलट पलट कर राजनीतिक लाभ की कोशिशें भले होती रहे लेकिन इस मुद्दे का असर धीरे-धीरे सामाजिक जीवन पर अपना प्रभाव खोता जा रहा है. आरक्षित वर्गों में ही एक नया वर्ग खड़ा हो गया है. जो लोग आरक्षण से बाहर हैं, वह दूसरे क्षेत्रों में खासकर काम धंधा और व्यवसाय में अपनी प्रगति को तलाशने में लगे हैं. नौकरियों में आरक्षण होने के बाद भी भर्तियाँ होती नहीं है. प्रमोशन में आरक्षण लगभग समाप्त जैसा ही हो गया है. 

   आरक्षण की राजनीति सामाजिक न्याय दिला पाएगी इस पर अब तक के अनुभव तो संदेह ही पैदा कर रहें हैं. राजनीति में सत्ता और विपक्ष की आरक्षण पर भाषा अलग होती है. धर्म आधारित आरक्षण की भी बातें चलती हैं. सामान्य निर्धन वर्गों को भी आरक्षण की परंपरा शुरू हो गई है.इस आरक्षण में आर्थिक आधार है. इसे सर्वोच्च न्यायालय ने वैधानिक साबित किया है.

   राजनीतिक दलों को सामाजिक न्याय का लोक ऋण पूरा करने की तरफ आगे बढ़ना चाहिए. आरक्षण को लोक रण बनाने से समानता की बजाय, असमानता का नया दौर बढ़ेगा.