जनधन से स्वप्रचार की लालसा में राज्यों के मुख्यमंत्री और सरकारें सुप्रीम कोर्ट के निर्णय की धज्जियां उड़ाने से भी नहीं चूक रहे. सुप्रीम कोर्ट के निर्णय के खिलाफ कांग्रेस की तेलंगाना सरकार के एक एडवर्टाइजमेंट में सीएम और डिप्टी सीएम की फोटो छपी है..!!
यह सर्वोच्च न्यायालय के निर्णय का खुला उल्लंघन है. सरकारी विज्ञापन में फोटो और कंटेंट के लिए सुप्रीम कोर्ट ने निर्णय दिया था, जिसका पालन किसी भी राज्य में होता दिखाई नहीं पड़ रहा है.
राजनीतिक लाभ के लिए सरकारी विज्ञापनों के दुरुपयोग को रोकने और संवैधानिक पदों की गरिमा बनाए रखने के लिए सुप्रीम कोर्ट ने वर्ष 2016 में यह आदेश जारी किया था. इसमें राष्ट्रपति, गवर्नर, पीएम, सीएम और सीजेआई के चित्र सरकारी विज्ञापनों में प्रकाशित करने की अनुमति दी गई थी. इस आदेश में यह भी कहा गया था कि, केंद्रीय और राज्य के मंत्रियों की फोटो उनके विभागीय विज्ञापनों में इस शर्त के साथ प्रकाशित हो सकते हैं कि, उसमें एक ही चित्र होगा, चाहे वह पीएम,सीएम हो या फिर विभागीय या प्रभारी मंत्री का.
सुप्रीम कोर्ट के निर्णय के अनुसार किसी भी राज्य के सरकारी विज्ञापन में मुख्यमंत्री के साथ किसी भी दूसरे मंत्री या डिप्टी सीएम का फोटो प्रकाशित नहीं हो सकता. तेलंगाना सरकार के विज्ञापन में मुख्यमंत्री के साथ ही वहां के डिप्टी सीएम का भी चित्र प्रदर्शित किया गया है जो कि, सुप्रीम कोर्ट के निर्णय का उल्लंघन है.
सुप्रीम कोर्ट का मानना है कि विज्ञापनों में हमेशा व्यक्ति पूजा की बजाय जनहित के संदेश पर जोर हो. साथ ही स्वतंत्रता और निष्पक्षता बनी रहे. संवैधानिक पदों पर बैठे राजनेताओं के चित्र के साथ ही सरकारी विज्ञापन के कंटेंट को भी रेगुलेट करने का सुप्रीम कोर्ट ने निर्णय लिया था.
इसके लिए केंद्र और राज्य स्तर पर विशेषज्ञों की समितियां गठित करने के निर्देश दिए गए थे. इन समितियां द्वारा सरकारी विज्ञापनों के कंटेंट को गाइडलाइन के अनुरूप होना सुनिश्चित किया जाना था. कई राज्यों में तो कमेटी का गठन ही नहीं हुआ और जहां गठित की गई है वहां भी कंटेंट की गाइडलाइन का पालन नहीं हो रहा है.
मध्य प्रदेश सरकार की ओर से आठ दिसंबर के समाचार पत्रों में एक फुल पेज का विज्ञापन प्रकाशित हुआ है. इसमें जो कंटेंट है, उसमें खजुराहो में मंत्री परिषद की बैठक की जानकारी दी गई है. इसमें यह भी बताया गया है कि, बैठक की अध्यक्षता मुख्यमंत्री डॉ. मोहन यादव करेंगे. विज्ञापन के कंटेंट में नए दौर के पर्यटन विकास का संदेश दिया गया है. इस विज्ञापन कंटेंट में दो स्लोगन भी डाले गए हैं, जो राज्य सरकार के निकलने वाले सभी विज्ञापनों में दिखाई पड़ते हैं. इनमें डॉ. मोहन यादव का अभ्युदय मध्य प्रदेश और साकार होता विरासत के साथ विकास का संकल्प शामिल है.
इस विज्ञापन को प्रकाशित करने में जनधन के लाखों रुपए खर्च किए गए हैं. इसमें ऐसा कोई भी कंटेंट नहीं है, जिसकी जानकारी देने के लिए जनधन खर्च करने की आवश्यकता हो. कैबिनेट की बैठक एक सामान्य प्रक्रिया है. मुख्यमंत्री ही इसकी अध्यक्षता करते हैं. इस जानकारी को जन सामान्य तक पहुंचाने के लिए जनधन से विज्ञापन बांटने की जरूरत नही थी. इस पर खर्च धनराशि एक तरीके से बर्बादी ही कही जा सकती है.
जिन समाचार पत्रों में कैबिनेट की सूचना देने वाला विज्ञापन प्रकाशित हुआ है, इन्हीं में केंद्रीय शिक्षा मंत्री धर्मेंद्र प्रधान का भाषण छपा है, जो आंख खोलने वाला है. सरकारी कार्यक्रम में दिए जाने वाले गुलदस्ते का उदाहरण देते हुए केंद्रीय मंत्री कहते हैं, गुलदस्ता रुपये पांच सौ का लेकिन इसकी लाइफ सिर्फ बीस सेकंड. इन पैसों से बच्चों को सेव खिलाए जा सकते हैं. इनमें से कोई अब्दुल कलाम निकल जाए.
केंद्रीय मंत्री की चिंता जायज है. जनधन का उपयोग अंतिम व्यक्ति के कल्याण में होना चाहिए. एक तरफ केंद्रीय मंत्री का यह विचार और दूसरी तरफ कैबिनेट बैठक की सूचना देने के लिए सरकार करोड़ों रुपए का धन खर्च कर रही है. यह दोहरापन ही शासन व्यवस्था को रसातल की ओर ले जा रहा है.
प्रत्येक राज्य में प्रचार-प्रसार के लिए एक विभाग होता है. सरकार की नीति होती है. राजनीतिक इच्छाओं के विपरीत ब्यूरोक्रेसी की जिम्मेदारी है कि, वह देश के विधान का पालन करते हुए कार्रवाई करे. दुर्भाग्यजनक यह है कि, ऑल इंडिया सर्विसेज के अधिकारी भी राजनीतिक नेतृत्व के सामने सरेंडर होने के लिए तत्पर दिखाई पड़ते हैं.
उस प्रशासन का दौर समाप्त हो गया है, जब कोई अफसर नियम कानून की बात करने की हिम्मत करता था. अब तो बिना बोले इशारों में ही राजनीतिक नेतृत्व के हितों को साधने के लिए दौड़ लगाई जाती है. यह दौड़ भले ही संवैधानिक पद पर बैठे व्यक्ति के लिए दिखाई देती हो लेकिन इसका असली उद्देश्य खुद के स्वार्थ के लिए ही होता है.
दिल्ली में आम आदमी पार्टी की सरकार ने भी सरकारी धन का विज्ञापनों में खुला दुरुपयोग किया था. विज्ञापनों का राजनीतिक लाभ होता तो उनकी पार्टी चुनाव जीत जाती. यह सवाल अपने आप में महत्वपूर्ण है, क्या संवैधानिक पदों पर बैठे लोगों के सरकारी धन से फोटो छपने से उन्हें कोई राजनीतिक लाभ होता है? जन धन तो बर्बाद हो जाता है लेकिन उसका लाभ किसको होता है.
सरकारी संसाधनों के दुरुपयोग पर सेंसिटिविटी समाप्त हो गई है. आम लोगों को तो फर्क नहीं पड़ता लेकिन जो जिम्मेदार है उन्हें भी कोई फर्क नहीं पड़ता. सरकारी धन के सदुपयोग पर कदम उठाने के लिए महालेखाकार जिनकी जिम्मेदारी है, वह भी इतनी देरी से जागते हैं कि तब तक सब कुछ अपना महत्व खो चुका होता है.
राज्य सरकारें सुप्रीम कोर्ट की गाइडलाइन का ही जब उल्लंघन करने लगेंगी तो फिर कानून का राज बनाए रखना कैसे संभव हो सकता है. जिन पर इसे कायम रखने की जिम्मेदारी है, वही जब उसका पालन नहीं करेंगे तो फिर सारा ढांचा चरमरा जाएगा.
सरकारी धन से प्रचार और काम की असलियत में जब अंतर होता है तो वैसे ही सरकारों की विश्वसनीयता कम हो जाती है.