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मोरबी हादसा या हत्या, अंतहीन राजनीतिक कथा

सार

मौत शाश्वत सत्य है। मौत का एक बहाना होता है। जीवन के इस सत्य को समझने वाला मौत के सत्य से साक्षात्कार करने में सक्षम होता है। हमारे चारों ओर हर रोज बेवक्त मौतें हो रही है फिर भी हम मौत को लेकर संवेदना शून्य दिखाई पड़ते हैं। जन्म-मृत्यु के चक्र में कई बार मृत्यु के हादसे विचलित कर देते हैं।

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विस्तार

गुजरात के मोरबी में झूलते पुल के हादसे में सैकड़ों लोगों ने अपनी जान गवाई है। एक दिन बाद भी नदी में लाशें तलाशी जा रही हैं। अभी भी कई लोग लापता हैं। खुशी की तलाश में गए लोगों ने अपने परिवारों को गम का ऐसा समंदर दे दिया है जिससे निकलना नामुमकिन सा है। यह पुल एक पिकनिक स्पॉट था। लोग परिवार के साथ पिकनिक मनाने यहाँ आये थे। किसने सोचा था कि पिकनिक की बजाए उनकी दुनिया से ही पैकिंग हो जाएगी।

सैकड़ों लोगों की मौत के लिए जिम्मेदार इस हादसे को हादसा माना जाए या हत्या माना जाए? इसे ‘एक्ट ऑफ़  गॉड’ कहा जाए या इसे 'एक्ट ऑफ़ गवर्नमेंट' माना जाए? इस हादसे की अंतहीन राजनीतिक कथा तो चुनाव परिणाम आने तक पूरी ताकत के साथ चलती रहेगी। 

गुजरात में चुनाव किसी भी समय घोषित हो सकते हैं। सरकार के विरोधी दलों को सैकड़ों मौतों में भी उनका राजनीतिक शेयर उछाल लेता दिख रहा है।  प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का गृहराज्य होने के कारण गुजरात चुनाव के बिगुल बजने से पहले इस वीभत्स घटना को राजनीतिक शतरंज के लिए उपयोग करना शुरू कर दिया गया है। 

कांग्रेस का प्रतिनिधिमंडल राजस्थान के मुख्यमंत्री अशोक गहलोत के नेतृत्व में घटनास्थल का दौरा कर चुका है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी भी घटनास्थल का जायजा लेने पहुंच रहे हैं। आम आदमी पार्टी इस घटना के लिए गुजरात सरकार को जिम्मेदार ठहराने का प्रयास कर रही है। 

इसे चाहे हत्या माना जाए या हादसा, लेकिन नुकसान हमेशा जनता को ही उठाना पड़ता है। सरकारी तंत्र लगातार सिमटता जा रहा है। सभी सेक्टर में आउट सोर्स या ठेके पर छोटी बड़ी हर चीज का मैनेजमेंट प्राइवेट सेक्टर के पास चला गया है। मोरबी घटना में केबल ब्रिज का मेंटेनेंस एक प्राइवेट कंपनी के पास था। वहां की नगर पालिका यह दावा कर रही है कि पुल मेंटेनेंस के लिए बंद किया गया था लेकिन बिना परमिशन के प्राइवेट कंपनी द्वारा इसे दोबारा शुरू कर दिया। 

100 लोगों की क्षमता वाले पुल पर घटना के समय 400 से ज्यादा लोग उपस्थित थे। पुल पर जाने के लिए टिकट लगता है तो फिर लोग ज्यादा संख्या में पुल पर कैसे जा सकते हैं? इसका सीधा अर्थ है कि टिकट क्षमता से कहीं ज्यादा बेचे गए। यानी प्राइवेट कंपनी ने कमाई के खातिर लोगों की जान को खतरे में डाला।

जब भी ऐसी दुर्घटनाएं होती हैं तो डिजास्टर मैनेजमेंट और सेना सक्रिय रूप से  राहत और बचाव में भूमिका निभाती है। मारे गए लोगों के परिजनों को मुआवजा भी सरकार ही देती है। इसमें भी प्राइवेट कंपनी  बच जाती है। 

देश में प्राइवेटाइजेशन को विकास की नई रणनीति के रूप में काफी लंबे समय से उपयोग किया जा रहा है। पुरानी सरकारों ने भी इसी रणनीति पर काम किया और वर्तमान सरकार भी इसी रास्ते पर आगे बढ़ रही हैं। आज हर छोटी बड़ी चीज का प्रबंधन और सुविधाओं का प्रदाय प्राइवेट सेक्टर के हाथ में दे दिया गया है। 

ऐसा सोचा गया था कि प्राइवेट सेक्टर सरकारी सेक्टर से ज्यादा दक्षता के साथ परिणाम दे सकता है। अभी तक के जो अनुभव सामने आ रहे हैं उनसे तो यह आशा निराशा में बदलती दिख रही है। आज किसी भी सरकार में किसी भी विभाग में सरकारी तंत्र केवल फाइलें बनाने और  टेंडर निकालने में ही व्यस्त रहता है। रियल एक्जीक्यूशन प्राइवेट एजेंसियां कर रही हैं। केवल गुजरात में ही नहीं हर स्टेट में यही हालात हैं। 

हादसे हो जाते हैं, लोग अपनी जान गवा देते हैं, उनके परिवार जन पूरी जिंदगी उस त्रासदी को भुगतते हैं। सरकार ने या सिस्टम ने क्या गलतियां की हैं उस पर केवल बयानबाजी और बहस ही होती रहती हैं। न तो हादसों से सबक लिया जाता है और न कोई सुधार होता है, न ही भविष्य में बेहतर करने का कोई प्रयास होता है। 

मध्यप्रदेश में तो भोपाल गैस त्रासदी के बाद दुनिया में भोपाल को हादसों के शहर के रूप में ही देखा जाता है। भोपाल गैस त्रासदी के लिए भी आज तक जिम्मेदारी तय नहीं हो पाई है। भोपाल के ही एक अस्पताल में नवजात बच्चों का वार्मर में जलकर काल कवलित हो जाना, आज भी उन परिवारों को विचलित कर देता है। झाबुआ में विस्फोट के कारण 70 से अधिक लोगों ने अपनी जान गवाई थी। उस हादसे में भी सभी अदालती फैसले आ गए लेकिन किसी को भी हादसे के लिए जिम्मेदार नहीं पाया गया। 

पिछले कुछ महीनों में रोप-वे दुर्घटनाओं का सिलसिला तेजी से बढ़ा है। जहां-जहां घटनाएं हुई हैं वहां-वहां प्राइवेट सेक्टर की भूमिका रही है। अब तो टूरिज्म पुलिस और प्राइवेट सेक्टर में पुलिस भी स्थापित करने की चर्चाएं चल रही हैं। सरकारी सेक्टर को नाकारा साबित कर प्राइवेट सेक्टर को बढ़ाने में राजनीतिक शेयर की भूमिका भी देखी जाती है। जब राहत और बचाव सरकार के लोगों को ही करना है इसके लिए प्राइवेट एजेंसी की कोई व्यवस्था नहीं है तो फिर प्रबंधन का दायित्व भी सरकारी सेक्टर से ही क्यों नहीं लिया जा सकता?

आज हम राजनीति के ऐसे दौर से गुजर रहे हैं जब सियासी दल हादसे, हत्या, धर्म, नफरत, विभाजन कुछ भी हो उसका राजनीतिक उपयोग करने से पीछे नहीं रहते। लक्ष्य सत्ता का वरण करना होता है। मोरबी हादसा भी गुजरात में राजनीतिक मोहरे के रूप में उपयोग किया जाएगा। हादसे रोकना शायद किसी के हाथ में नहीं होता हो लेकिन हम जो कर रहे हैं उसको पूरी दक्षता और ईमानदारी से करना तो हमारा दायित्व है। चाहे सरकार हो, चाहे प्राइवेट एजेंसी हो या चाहे कोई व्यक्ति हो, सभी को अपने कर्तव्य के प्रति सतर्क रहने का समय है। 

आज कमाई का दौर चल रहा है लोग केवल कमाने में व्यस्त हैं। वह कमाई नैतिक तरीके से है या अनैतिक तरीके से है यह सोचने तक का वक्त लोगों के पास नहीं बचा है। इससे ज्यादा आश्चर्य क्या हो सकता है कि मौत किसी को नहीं छोड़ती, चाहे अमीर हो, चाहे गरीब हो, चाहे किसी भी राजनीतिक पद पर हो। फिर भी जीवन में पड़ाव को मंजिल समझकर अहंकार में अपना और दूसरों का हम जाने-अनजाने नुकसान कर रहे हैं। हादसे में मारे गए लोगों के परिवारजनों के साथ अपनी संवेदना व्यक्त करते हुए इतनी ही आशा कर सकते हैं कि कम से कम इस हादसे को राजनीतिक हादसा नहीं बना कर इंसानियत को जिंदा रखा जाएगा।