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सिर्फ़ “राजदंड” हाथ आने से कुछ नहीं होता,सरकार ! 

राकेश दुबे राकेश दुबे
Updated Sun , 26 Apr

सार

देश में 23 करोड़ नागरिक ऐसे हैं, जो रोजाना 375 रुपए कमाने में भी असमर्थ हैं। इनके अलावा, 21 करोड़ से ज्यादा भारतीय आज भी ‘गरीबी-रेखा’ के तले जीने को अभिशप्त हैं।

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विस्तार

संसद आज से नए भवन में चली जाएगी । संसद के नए भवन में जाने को लेकर कुछ राजनीतिक दल रुष्ट है तो कुछ अपनी पीठ थपथपा रहे हैं और  जिस जनता के ये नुमाइंदे है,वो बेहाल है। देश में 23 करोड़ नागरिक ऐसे हैं, जो रोजाना 375 रुपए कमाने में भी असमर्थ हैं। इनके अलावा, 21 करोड़ से ज्यादा भारतीय आज भी ‘गरीबी-रेखा’ के तले जीने को अभिशप्त हैं। महंगाई तो ग़रीबों की इस जमात को लील रही है। 

नासिक जैसी बड़ी मंडियों में किसान को प्याज की फसल का औसतन एक रुपया किलो का भाव नहीं मिल रहा।आढ़तिए टमाटर 2 रुपए किलो भी  खरीदने को तैयार नहीं हैं । नतीजतन फसलों को सडक़ पर फेंका जा रहा है अथवा टै्रक्टर तले कुचल कर नष्ट किया जा रहा है। वही प्याज, टमाटर खुदरा बाजार में या रेहडिय़ों पर 25-30 रुपए किलो बेचे जा रहे हैं। इसके बाद सरकार खुश है कि उसके हाथ में वो राजदंड आ गया है, जो उसे शासक बनाता है। 

इतना मुनाफा और उपभोक्ता का शोषण और बेचारगी …!  क्या महंगाई और मुद्रास्फीति में कोई अंतर नहीं है? तकनीकी और अर्थशास्त्र के मुताबिक, दोनों में भिन्नता है, लेकिन दोनों के बुनियादी प्रभाव समान हैं। मुद्रास्फीति ज्यादा होगी, तो बाजार में महंगाई भी अधिक होगी। महंगाई आज भी बड़ा और संवेदनशील मुद्दा है। 

कर्नाटक के हालिया विधानसभा चुनाव के दौरान महंगाई को करीब 40 प्रतिशत मतदाताओं ने मुद्दा माना था। अपनी चिंता जताई थी। जाहिर है कि उसका प्रभाव जनादेश पर भी पड़ा होगा, लेकिन भारतीय रिजर्व बैंक जनवरी, फरवरी से ही खुदरा मुद्रास्फीति के कम होने के रुझानों का विश्लेषण कर रहा था, लेकिन अब मई माह बीत रहा है, बाजार की महंगाई पर कोई असर नहीं दिख रहा। तो मुद्रास्फीति महंगाई से अलग क्या है? देश की आम जनता को यह अर्थशास्त्र समझाना चाहिए। बाजार में जो वस्तु या सेवा जिस मूल्य पर मिल रही है, आम उपभोक्ता उसी के आधार पर महंगाई या सस्ती का मूल्यांकन करेगा। 

वैसे उपभोक्ता मूल्य सूचकांक के मुताबिक, मार्च में मुद्रास्फीति 5.66 प्रतिशत और अप्रैल में 4.7 प्रतिशत तक लुढक़ आई थी। यही रुझान जारी रहने के आसार हैं। आरबीआई के गवर्नर शक्तिकांत दास ने उम्मीद जताई है कि मुद्रास्फीति, अप्रैल की मुद्रास्फीति से, कम हो सकती है, लेकिन सचेत और सावधान भी किया है, क्योंकि मुद्रास्फीति के खिलाफ युद्ध अभी समाप्त नहीं हुआ है।

हम इस दोहरे कथन को समझ नहीं पा रहे हैं, क्योंकि मुद्रास्फीति भारत सरकार और केंद्रीय बैंक द्वारा तय अधिकतम सीमा 6 प्रतिशत से लगातार कम है। मूलभूत मुद्रास्फीति में भी नरमाई स्पष्ट देखी जा सकती है। उपभोक्ता मूल्य सूचकांक भी 4.5 प्रतिशत के स्तर पर जारी है। यह इसी 12 मई तक वस्तु और सेवाओं की लागत में परिवर्तन का सूचकांक है। सीधा आम उपभोक्ता और खर्च करने की उसकी क्षमता से जुड़ा है। आईसीआरए का भी आकलन 4.5प्रतिशत के करीब का है। इनसे लगता है कि अप्रैल-जून की पहली तिमाही में मुद्रास्फीति आरबीआई की भविष्यवाणी 5.1 प्रतिशत से कम रहेगी, लेकिन आरबीआई का यह भी आकलन था कि 2023-24 की दूसरी और तीसरी तिमाही में मुद्रास्फीति 5.4 प्रतिशत तक बढ़ सकती है। मोटे मायनों में अभी महंगाई और बढ़ेगी। तो फिर मुद्रास्फीति कम होने के फायदे क्या हैं? 

आम आदमी को रसोई गैस का सिलेंडर आज भी करीब 1120 रुपए में मिल रहा है। गेहूं और आटा महंगे हो गए हैं। पेट्रोल और डीजल के दाम वही हैं, हालांकि अंतरराष्ट्रीय बाजार में कच्चा तेल सस्ता है। हम रूस से और भी सस्ते दामों पर, वह भी भारतीय मुद्रा रुपए में, कच्चा तेल खरीद रहे हैं। दूध इसी साल 10-11 रुपए प्रति लीटर महंगा हो चुका है। दालों के खुदरा भाव भी यथावत हैं। खाद्य तेल कुछ सस्ता हुआ था, लेकिन वह भी ऊंट के मुंह में जीरा समान है।रेलवे यात्रा भी महंगी कर दी गई है। वरिष्ठ नागरिकों को किराए में जो रियायत दी जाती थी, उसे भी कोरोना काल के बाद छीन लिया गया है। मुद्रास्फीति बनाम महंगाई के इस खेल में केंद्रीय बैंक और भारत सरकार दावा करते रहे हैं कि इस वित्त वर्ष में आर्थिक बढ़ोतरी की दर करीब 7 प्रतिशत रहेगी। कुछ अर्थशास्त्री और विश्लेषक 6.5 प्रतिशत आंक रहे हैं। देश विकास कर रहा है और बहुत बड़ी आबादी गरीब है, यह कैसा विरोधाभास है?

 “राजदंड” इलाहाबाद के संग्रहालय में रहे या संसद में, आपके हाथों में रहे या किसी और के हाथ में। राजदंड धारक होने का अर्थ जनहित करने वाला होना चाहिए। अभी तो कोई भी ऐसा नहीं दिख रहा जो जनहित के लिए कुछ कर रहा हो।