बिहार में पहले फेस का मतदान हो गया है. राज्य की आधी सीटों पर मतदाताओं ने अपनी पसंद ईवीएम में लॉक कर दी है. दूसरे फेस का चुनाव प्रचार जोरों पर है. दोनों गठबंधन में नीतीश ब्रांड पर नजर है..!!
कोई भी उनके खिलाफ नहीं है. यहां तक कि, विरोधी गठबंधन भी बीजेपी पर नीतीश कुमार को सीएम नहीं बनाने के षड्यंत्र का आरोप लगा रहा है. ओपिनियन पोल तो नीतीश ब्रांड पर मोहर लगा रहे हैं. परिणाम कुछ भी हो लेकिन अगले सीएम नीतीश कुमार बनेंगे, इस पर आम राजनीतिक सहमति पढ़ी जा सकती है.
ओपिनियन पोल यही इशारा कर रहे हैं कि, बिहार के चुनाव परिणाम पिछले परिणाम जैसे ही आएंगे. बीजेपी सबसे बड़ा दल बनेगी. राजद दूसरे नंबर पर रहेगी, जदयू की सीटें बढ़ेंगी. इसमें थोड़ा फेर बदल भी होता है, तब भी सीएम का ताज नीतीश कुमार के सिर पर ही सजेगा. वह अपनी मर्जी से किसी और को सीएम बना दें तो बात अलग है, अन्यथा दोनों हाथों में लड्डू हैं.
बिहार चुनाव परिणाम देश की भावी राजनीतिक दशा तय करेंगे. राजनीति पोलेराइज हो रही है. नीतीश कुमार भी एनडीए के खेमें में मजबूत चेहरा बनकर उभरे हैं. पलटी मारने की उनकी छवि के कारण भाजपा भले ही उन पर पूरी तरह से आश्वस्त ना हो पाए, लेकिन उसके लिए नीतीश कुमार राजनीतिक मजबूरी हैं. केंद्रीय सत्ता में उनकी भागीदारी है.
चुनावी अभियान में स्थानीय मुद्दों से ज्यादा राष्ट्रीय मुद्दों की चर्चा हो रही है. अगर चुनावी भाषणों और डायलॉग्स का विश्लेषण किया जाएगा तो पीएम नरेंद्र मोदी, राहुल गांधी और योगी आदित्यनाथ सबसे ज्यादा लाइमलाइट में रहे हैं. जंगल राज और कट्टा संस्कृति पर मोदी के लगातार हमले ने लालू राज की याद ताजा की है.
योगी आदित्यनाथ ने तो पप्पू, टप्पू और अप्पू का नाम देकर गांधी जी के तीन बंदरों को भी बिहार के चुनाव में उतार दिया. भाजपा नेता तो पार्टी लाइन, एजेंडा और ध्रुवीकरण के समीकरण साधते दिखे, लेकिन राहुल गांधी तो चुनाव को मोदी वर्सेस राहुल बनाने की रणनीति पर काम करते ही नज़र आये.
राहुल गांधी जरुर जानते होंगे कि, जब भी चुनाव मोदी वर्सिस राहुल हुआ है, तो कांग्रेस और उसके गठबंधन को हार मिली है. लेकिन उन्होंने स्थानीय मुद्दों से ज्यादा मोदी विरोध को अपना प्रचार अभियान बनाया. उनका सबसे चर्चित बयान यह रहा कि, मोदी वोट के लिए कुछ भी कर सकते हैं, अगर पब्लिक कहे कि वोट तभी देंगे जब आप डांस करेंगे तो मोदी डांस भी कर देंगे. इस पर राहुल को सभा में तालियाँ तो बहुत मिली लेकिन पार्टी के वोट बढ़ने की बजाय घटते ही दिखे.
राहुल गांधी के डायलाग हमेशा कैची और अट्रैक्टिव होते हैं लेकिन उनका मतलब जनभावना के खिलाफ ही निकलता है. अगर कोई नेता जनता की मांग पर डांस करता है, इसका मतलब कि, वह जन भावनाओं का सम्मान करता है. यही तो किसी नेता की सबसे बड़ी ताकत होती है, कि वह जनभावना का सम्मान करे.
राहुल गांधी के डांस वाले बयान पर सोशल मीडिया पर ऐसे-ऐसे वीडियो वायरल हो गए हैं, जो कांग्रेस को तकलीफ पहुंचा रहे हैं. कोई कह रहा है कि, मोदी जब से राष्ट्रीय परिदृश्य पर आए हैं तब से कांग्रेस को नाच ही तो नचा रहे हैं. जहां कांग्रेस पहले पूरे देश की सत्ता पर नाचती थी, अब वह कुछ राज्यों तक सिमट गई है.
राहुल गांधी मीडिया अट्रैक्शंस खींचने में तो हमेशा सफल रहते हैं. बिहार चुनाव के दौरान तालाब में छलांग लगाकर मछली पकड़ने का उनका दृश्य चर्चित रहा. लेकिन उसका कितना असर चुनाव में पड़ेगा यह तो परिणाम ही बताएंगे. ओपिनियन पोल तो यही बता रहें है कि, महागठबंधन में कांग्रेस ही कमजोर कड़ी साबित होगी. पिछले चुनाव की सदस्य संख्या भी शायद कांग्रेस इस बार नहीं जीत सकेगी.
पीएम नरेंद्र मोदी राहुल गांधी का नाम नहीं लेते लेकिन उनके हर एक्शन को जन भावनाओं से कनेक्ट कर अपने समर्थक समूह को उत्साहित कर देते हैं. राहुल गांधी की तालाब छलांग को उन्होंने मछली पालन और निषाद मल्लाह समाज से कनेक्ट करते हुए कहा कि, कांग्रेस के बड़े नेता अब उतक राम मंदिर नहीं गए हैं. लेकिन शबरी और निषाद राज का भी मंदिर है, उनके दर्शन के लिए तो जा ही सकते हैं.
अगड़े, पिछड़े, दलित, आदिवासी, अल्पसंख्यकों को नब्बे प्रतिशत बताकर देश की सत्ता, उद्योग जगत, न्याय तंत्र, मीडिया और सभी क्षेत्रों में इन वर्गों का प्रतिनिधित्व नहीं होने का आरोप लगाकर वह बीजेपी को इनका विरोधी साबित करना चाहते हैं. आरक्षण खत्म करने का उनका आरोप भी इसी रणनीति का हिस्सा है.
उनके आरोप इसलिए विश्वसनीयता नहीं पाते क्योंकि यह सत्य के करीब नहीं होते. देश की राष्ट्रपति आदिवासी महिला हैं. सुप्रीम कोर्ट के कई बार चीफ जस्टिस दलित रह चुके हैं. यहां तक की अल्पसंख्यक भी राष्ट्रपति और चीफ जस्टिस बन चुके हैं. अखिल भारतीय सेवाओं में भी सभी वर्गों का पर्याप्त प्रतिनिधित्व है. राजनीतिक प्रतिनिधित्व इसलिए कम नहीं हो सकता क्योंकि लोकसभा और विधानसभा में आरक्षण की व्यवस्था है.
सेना में अपर कास्ट के लिए दस फीसदी के जरिए जाति, धर्म को लाने की राहुल गांधी की कोशिश निंदा योग्य हैं. राष्ट्र को विभाजित करने की कोशिश के रूप में इसे देखा जा रहा है. राजनीति के लिए सब जायज हो सकता है, लेकिन इसमें भी एक सीमा तो रहेगी. भारतीय सेना जाति, धर्म से ऊपर है. इसे जाति और धर्म में बांटने की दूषित मानसिकता ही ऐसी राजनीतिक सोच पैदा कर सकती है.
नीतीश कुमार भी राहुल गांधी के साथ गए थे, लेकिन ऐसी सोच ने ही शायद उन्हें पलटने के लिए मजबूर कर दिया. चुनाव हारने से राहुल गांधी की सेहत पर असर नहीं पड़ता होगा, लेकिन दूसरे दलों में तो नेता इन्हीं परिणामों से बनते और बिगड़ते हैं.