• India
  • Tue , Dec , 09 , 2025
  • Last Update 06:45:PM
  • 29℃ Bhopal, India

नीचे से ऊपर जाता विरोध का राजनीतिक गुरुत्वाकर्षण

सार

वंदे मातरम की शुरुआत भले ही इतिहास में हो लेकिन हर काल में वह देश के वर्तमान में जीता है. संसद में बहस वंदे मातरम पर नहीं बल्कि उसके टुकड़े करने पर थी..!!

janmat

विस्तार

    पीएम नरेंद्र मोदी इसके लिए जवाहरलाल नेहरू की तुष्टिकरण की नीतियों को जिम्मेदार मानते हैं. वह कहते हैं, अगर मुस्लिम लीग के दबाव में नेहरू ने वंदे मातरम के टुकड़े नहीं किए होते तो देश के टुकड़े होने से रोका जा सकता था. वंदे मातरम आजादी का भी महामंत्र था और आज भी यही देश का महामंत्र है.

    कांग्रेस की ओर से प्रियंका गांधी ने वंदे मातरम की चर्चा को बंगाल चुनाव से जोड़ा. मुद्दों को भटकाने की कोशिश और नेहरू को बदनाम करने का इरादा बताया. प्रियंका गांधी कहती हैं, नेहरू नहीं होते तो इसरो नहीं होता और हम चांद पर नहीं पहुंचते. डीआरडीओ नहीं बनता तो तेजस नहीं बनता.ऐसे तमाम राष्ट्रीय संस्थानों का उल्लेख किया. 

    इस पर कोई सवाल ही नहीं है कि नेहरू का देश के विकास में योगदान महत्वपूर्ण है. अगर किसी नेता का विकास में योगदान रेखांकित होगा तो उसके द्वारा की गई गलतियां भी उजागर होगी. भारत व्यक्ति पूजा का देश नहीं है. नेहरू नहीं होते फिर भी भारत होता. बीजेपी जो विचार प्रस्तुत करती है, उसके मुताबिक नेहरू की गलत नीतियों के कारण पाकिस्तान बना. उनके तुष्टीकरण के कारण वंदे मातरम के साथ विश्वासघात किया गया. उसको काटा गया. 

    कांग्रेस को जबाव इसका देना चाहिए कि ऐसा किया गया या नहीं. किसी गलत नीति का अच्छे काम बता कर मुकाबला नहीं हो सकता. अगर राजनीति में तुष्टिकरण नहीं शुरू हुआ होता तो क्या वंदे मातरम की धरती बंगाल में कोई मुगल आक्रांता बाबर के नाम पर बाबरी मस्जिद बनाने की सोच की कल्पना कर सकता था.

    हिंदू मुस्लिम दोनों को मिल-जुलकर इस देश में रहना है. जिन तत्वों से हिंदू बना है. उन्ही तत्वों से मुसलमान बना है. मातृभूमि के उन्हीं तत्वों से वंदे मातरम रचा गया है. मातृभूमि की भक्ति और वफादारी किसी भी धर्म में आड़े नहीं आती. जो कौम संविधान की बात करती है, वह संविधान में अंगीकृत राष्ट्रगीत को गाने में परहेज करती है. यह उस विकृति की ओर इशारा करता है, जिस पर देश की नींव रखी गई.

    वंदे मातरम के डेढ़ सौ साल होने पर भारत की आत्मा इस गीत पर संसद में चर्चा को केवल राजनीतिक नजरिए से देखना ही अनुचित है. लोकसभा में चर्चा की शुरुआत पीएम नरेंद्र मोदी करते हैं और उस समय विपक्ष के नेता राहुल गांधी नदारद होते हैं और प्रियंका गांधी भी. एलओपी का यह आचरण संविधान की गरिमा का खुला उल्लंघन है.

    कांग्रेस की ओर से जिन भी वक्ताओं ने पक्ष रखा लेकिन  इसका कोई जवाब नहीं दिया कि वंदे मातरम गीत के कुछ अंशों को क्यों काटा गया. उन अंशों को पीएम ने सदन में पढ़कर सुनाया. इस मूल विषय पर अपनी बात कहने के बजाय केवल बीजेपी और संघ को इस बात पर कटघरे में खड़ा करने की कोशिश की गई कि उनके पूर्वज आजादी की लड़ाई में शामिल नहीं रहे.

    यह बात ही दूसरी है, जब आजादी की लड़ाई हुई थी तब न राहुल थे और ना प्रियंका. कांग्रेस के भी जो लोग शामिल हुए थे उनकी पीढ़ियां समाप्त हो गई. अब तो जो कांग्रेस की  कमान संभाल रहे हैं वह केवल इतिहास का बोझ ढो रहे हैं. किसी व्यक्ति या राजनीतिक दल ने अगर आजादी की लड़ाई में हिस्सा नहीं लिया है तो क्या उसे आज वर्तमान में वंदे मातरम की गरिमा के लिए संघर्ष करने का अधिकार नहीं है?

    वर्तमान राजनीति वर्तमान से ज्यादा इतिहास पर टिकी है. कांग्रेस इसकी सबसे ज्यादा हितग्राही है. अगर अपने पूर्वजों की अच्छी बातों का कांग्रेस क्रेडिट लेना चाहती है, तो अगर वर्तमान कुछ गलतियों को इंगित करता है तो उसे भी न केवल स्वीकारना होगा बल्कि उसके लिए देश से माफी भी मांगना होगी. 

    वंदे मातरम को भले ही काटकर राष्ट्रगीत के रूप में कुछ ही हिस्से को शामिल किया गया हो, लेकिन बहुसंख्यक दिलों में पूरा वंदे मातरम धड़क रहा है. यह धड़कन उसी समय से है जब इसे रचा गया था. राजनीति के लिए ही इसे काटा गया था और राजनीति ही इसके पूर्णता के लिए संघर्ष करती दिखाई पड़ रही है. 

    बीजेपी और कांग्रेस के बीच केवल वंदे मातरम अकेला मुद्दा नहीं है, जिसमें नीतिगत मतभेद है. धर्मनिरपेक्षता पर भी कांग्रेस और बीजेपी के दृष्टिकोण में अंतर है. कांग्रेस के इसी दृष्टिकोण के कारण शायद वंदे मातरम को मातृभूमि की भक्ति से ज्यादा हिंदू मुस्लिम के नजरिया से देखा गया. बीजेपी अगर पूर्ण वन्दे मातरम को अपनाने की बात करती है तो सेकुलर तत्वों को इसका ऐतराज हो सकता है लेकिन संविधान में जितना राष्ट्रगीत स्वीकार किया है, उसको गाने से तो सेकुलरिज्म प्रभावित नहीं होता. फिर ऐसे हालात क्यों बने हैं कि, एक संप्रदाय इसे अपनी धार्मिक मान्यताओं के खिलाफ बताता है.

    वंदे मातरम वर्ष 1875 में रचा गया था. वर्ष 1937 तक इसको सभी धर्म के लोगों ने कांग्रेस के अधिवेशन में गया था. मोहम्मद अली जिन्ना के विरोध के बाद इसमें काट-छांट की गई थी. ऐतिहासिक संदर्भ सार्वजनिक है. अब तो कट्टरता पहले से भी अधिक है. 

    न्यूटन का गुरुत्वाकर्षण का नियम ऊपर से नीचे चलता है, जबकि राजनीतिक विरोध का नियम नीचे से ऊपर की ओर जाता है. वंदे मातरम के ऐतिहासिक संदर्भ इसकी पूर्णता को समर्पित शक्तियों के राजनीतिक उभार में देखा जा सकता है. यह आकस्मिक नहीं है, राष्ट्र की चेतना में आ रहे बदलाव का इशारा है. 

    देश के लिए हर प्रधानमंत्री महत्वपूर्ण है. नश्वर शरीर तो मिट जाएगा लेकिन पीएम के रूप में किया गया कार्य हर दौर में उसके प्रभाव और दुष्प्रभाव के साथ आंका जाएगा.देश के लिए महत्वपूर्ण नेहरू और नरेंद्र मोदी नहीं है. देश की आत्मा वंदे मातरम है और यह हर काल खंड में रहेगा.