इंडिगो एयरलाइंस में अचानक उत्पन्न संकट से उदारीकरण और सेवा गुणवत्ता की पोल खुल गई है. लाखों यात्री रोते-बिलखते भटकते रहे. यात्रियों की लगेज की अफरा-तफरी हुई..!!
हवाई जहाज से हजारों रुपए खर्च कर अर्जेंसी में ही यात्रा की जाती है. सबका डेस्टिनेशन पर पहुंचने का टारगेट और उद्देश्य होता है. इंडिगो संकट के जिस तरह के दृश्य दिखे उससे तो यही लगता है कि यात्रियों के लिए यह एयर क्रेश जैसा दुखदाई रहा.
नागरिक उड्डयन मंत्री ने संसद में बयान दिया. इंडिगो के पास लगभग चौसठ परसेंट से ज्यादा एयर ट्रैफिक है. जेट बंद होने के बाद इंडिगो अचानक फला-फूला. सरकार ने संकट पर गंभीरता दिखाई. यात्रियों के पैसे रिफंड किए गए. अब सरकार ने इस एयरलाइन का दस प्रतिशत ट्रैफिक कम करने का निर्णय लिया है. संकट का कारण जानने के लिए जांच की जा रही है. इसकी शुरुआत डीजीसीए के उस आदेश के साथ हुई, जिसमें पायलट और फ्लाइट क्रू को रेस्ट देने के नियमों को सख्त किया गया.
इंडिगो को नए नियमों के मुताबिक नई भर्तियां करनी थीं, लेकिन नहीं की गईं. जब तय समय सीमा करीब आ गई तो सरकार के दबाव से बचने के लिए एयरलाइंस ने अपने एयर ट्रैफिक को क्रेश कर दिया. एक हफ्ते होने जा रहे हैं, लेकिन अभी तक इंडिगो का फ्लाइट शेड्यूल सामान्य नहीं हो पाया है. इसके पीछे कोई साजिश है, प्रबंधकीय असफलता है, यह जांच निष्कर्ष के बाद ही पता लगेगा.
सब अपनी जगह है, लेकिन जिन यात्रियों ने इंडिगो संकट के कारण अपने लाइफ से जुड़े महत्वपूर्ण मौके को खोए हैं, उसकी भरपाई नहीं हो सकती है. एयरलाइन द्वारा मनमाना किराया वसूली भी एक्सपोज हुई. सरकार ने किराए की लिमिट निर्धारित की, लेकिन फिर भी मनमाने किराया वसूली की शिकायतें तो जारी रहीं. अब यह मांग उठ रही है, कि एयरलाइंस की अनियमितता के कारण यात्रियों को हुए नुकसान पर हर्जाने के लिए कानून बनाने की आवश्यकता है. हवाई यात्रा की सुरक्षा पर गंभीर सवाल अभी भी बने हुए हैं.
केवल एयर लाइन्स ही नहीं देश के हर क्षेत्र में प्राइवेटाइजेशन की जड़ें बहुत गहरी हो गई हैं.
उदारीकरण की शुरुआत कांग्रेस की सरकार में की गई थी. जब देश की अर्थव्यवस्था संकट में थी, भारत का सोना भी गिरवी रखना पड़ गया था, तब नरसिंह राव की सरकार के समय उदारीकरण की नीतियों को लागू किया गया.
अभी तक सरकारें इसे व्यवस्था में सुधार का बड़ा जरिया मान रही थीं. यहां तक कि कांग्रेस उदारीकरण के अपने प्रयासों का श्रेय लेने से कभी पीछे नहीं रहती. मनमोहन सिंह वित्त मंत्री और बाद में प्रधानमंत्री के रूप में उदारीकरण के प्रणेता के रूप में देखे जाते हैं. भाजपा केंद्र में भले सरकार बनाने में सफल हुई हो, लेकिन उदारीकरण की नीतियों में उसकी सोच कांग्रेस से अलग नहीं रही. अभी भी देश में वही नीतियां प्रभावी हैं, जो कांग्रेस की सरकारों में चल रही थीं.
इंडिगो संकट ने बहुत बड़ा सवाल पैदा किया है, कि निजीकरण के कारण क्या देश पर कभी बड़ा संकट आ सकता है. सरकारों के रूल मेकर निजीकरण के साथ हिल-मिल गए हैं. इसको पेड़ की जड़ों और पत्तों के रूप में देखा जा सकता है. निजी क्षेत्र व्यवस्था के पेड़ की जड़ बन गया है और रूल मेकर पत्तों की तरह से अपनी भूमिका निभा रहे हैं. पत्ते, पेड़ की जड़ों से ही अपना पोषण लेते हैं. यही निजी क्षेत्र और सरकारी तंत्र का रिश्ता भी दिखाई पड़ता है.
केवल एयर सेवाएं ही नहीं कोई भी क्षेत्र ऐसा नहीं बचा है, जहां निजीकरण चरम पर नहीं हुआ हो. अब तो रेलवे भी उसी दिशा में आगे बढ़ रहा है. कई राज्यों में तो परिवहन सेवाएं पूरी तरह से निजी हाथों में चली गई हैं. राज्य परिवहन बंद हो गए हैं. शिक्षा के मामले में भी प्राइवेट स्कूल और कॉलेज का बोलवाला है. स्वास्थ्य सेवाएं भी अब निजी क्षेत्र में ही फल-फूल रही है.
निजी क्षेत्र पर नियंत्रण के लिए जो भी नियामक संस्थाएं बनाई गई हैं, वह जनता के हितों की रक्षा की बजाय निजी क्षेत्र की रक्षा में ज्यादा सक्रिय दिखाई पड़ते हैं.
कोई पॉलिसी एक्सीडेंट हो, पब्लिक को संकट झेलना पड़े और राजनीति ना हो, ऐसा कभी हो सकता है. इंडिगो संकट पर फुल राजनीति हो रही है. यहां तक कहा जा रहा है, कि इंडिगो के हवाई जहाज चल नहीं रहे हैं या चलाए नहीं जा रहे हैं.
यह बड़ा नीतिगत विषय है, कि प्राइवेटाइजेशन में मोनोपॉली को रोकना प्राथमिकता है या सेवाओं की गुणवत्ता और प्रतिस्पर्धा को विकसित करना जरूरी है. जहां तक मोनोपॉली का सवाल है, यह एक मानसिकता है. यह व्यवसायिक जगत में भी है, राजनीतिक क्षेत्र और समाज में भी है.
उदारीकरण और निजीकरण से पीछे हटना अब असंभव है. इसने अपनी जड़े जमा ली हैं. अब इन्हीं जड़ों पर व्यवस्था का आधार टिका हुआ है. सेवा की गुणवत्ता को बढ़ाने के लिए और नियामक व्यवस्था को मजबूत करने के लिए सरकारों को चिंता करने की जरूरत है. कानून का राज कहा तो जाता है लेकिन करते समय इसमें कहीं ना कहीं कमी आ जाती है.
उदारीकरण अपनाते समय हर क्षेत्र का निजीकरण सरकारों का ईगो बन गया था. यही अब हमारे सामने इंडिगो संकट के रूप में आया है. जिस भी निजी क्षेत्र में संकट अभी आया नहीं है, वहां भी मिलजुल कर पल रहा है. मोनोपॉली की मानसिकता हर क्षेत्र की वास्तविकता बन गई है. इंडिगो तो एक बानगी है. अगर नियामक संस्थाएं अपनी जिम्मेदारी निभाने से चूकती रहीं तो हर निजी क्षेत्र में ऐसे संकट खड़े होने में देर नहीं लगेगी.
जो ग्राहक भगवान हुआ करता था. निजी क्षेत्र उसे केवल इंसान समझता रहे, यही सरकारों की भूमिका और जिम्मेदारी है. इंडिगो को कानून का सबक दूसरे निजी क्षेत्र के लिए भी यादगार बने यही सरकार की जवाबदेही है.