हिंदुस्तान का नेता बनने की चाहत रखने वाले राहुल गांधी सोचते और बोलते अंग्रेजी में है. वह बात आम मतदाता की करना चाहते हैं लेकिन उस भाषा में करते हैं जो वह समझता ही नहीं है..!!
भारत के लोकतंत्र पर अपना स्टैंड राहुल गांधी अक्सर विदेश में ही रखते हैं. शायद इसीलिए वहीं को समझाने के लिए उनकी ही भाषा को संसद में उन्होंने चुना. देश में चुनाव सुधार की चुनौती बरकरार है. राहुल और चुनाव दोनों में देश को सुधार का इंतजार है. जिसके लिए संसद नहीं चलने दी और परिसर में नारे लगाए. जब SIR और वोट चोरी पर बोलने का मौका आया तो राहुल गांधी लगता है, खुद डर गए.
प्रेस कॉन्फ्रेंस में जब निर्वाचन आयोग पर वोट चोरी का आरोप लगाया, तब मुख्य चुनाव आयुक्त ने शपथ पत्र देने या अदालत में जाने की बात कही. उन्होंने दोनों से इनकार कर दिया. लेकिन फिर भी जनता के बीच अपने इस एजेंडे को ले जाते रहे. चुनावी राजनीति में यह एजेंडा फेल हो गया.
जब भी कोई मुद्दा कोई भी पकड़ता है और वह लगातार फेल होता जाता है तो फिर उससे पीछे हटना ही पड़ता है. ऐसा बताया जाता है कि, राहुल गांधी वोट चोरी पर लंबे भाषण की तैयारी के साथ संसद गए थे, लेकिन अचानक बीच में ही भाषण रोक दिया. उन्हें लगा कि, संसद के रिकॉर्ड पर अगर वह सभी बातें आ गई जो प्रेस कॉन्फ्रेंस में आती रही हैं, तो आगे चलकर इसको साबित भी करना पड़ेगा. इसी डर से तो इलेक्शन कमीशन में शपथ पत्र नहीं दिया और ना ही अदालत जाने का साहस जुटाया.
राहुल गांधी अक्सर सफेद टी-शर्ट में रहते हैं. पार्लियामेंट भी इसी ड्रेस में जाते हैं. चुनाव सुधार पर चर्चा के लिए वह बाकायदा भारतीय ड्रेस कुर्ते पजामें में सदन में आए. इसकी भी चर्चा रही कि यह बदलाव, क्या अपनी गंभीरता बताने के लिए किया.
संसद में बैठने वाले आधे से ज्यादा सांसद ऐसे हैं जो अंग्रेजी में सिद्धहस्त नहीं होते. वहां अनुवाद की सुविधा है, लेकिन सामान्य नागरिक तो समझ ही नहीं पाया कि राहुल गांधी क्या कह रहे हैं. वोट चोरी के आरोपों को देशद्रोह निरूपित करने की उनकी बात सिद्धांततः तो गलत नहीं है. अगर लोकतंत्र में कोई वोट चोरी होती है तो यह देशद्रोह है.
इसके लिए सबसे पहले राहुल गांधी को आरोप साबित करने पड़ेगें. जब तक कानून के दायरे में राहुल गांधी संवैधानिक प्रक्रिया का पालन करते हुए अपने आरोप साबित नहीं करते, तब तक उनकी राजनीतिक विश्वसनीयता भी नहीं बन सकती.
पूरा विपक्ष SIR का विरोध कर रहा है. बीएलओ की मौतों को बड़ा मुद्दा बनाया जा रहा है. राहुल गांधी ने सदन में अपने भाषण में इस पर एक शब्द भी नहीं बोला. चुनाव सुधार की देश में सर्वाधिक जरूरत है. राहुल गांधी ने इसके लिए जो भी सुझाव दिए हैं, वह सुधार से ज्यादा संवैधानिक नियुक्तियों और कार्यप्रणाली से संबंधित है.
चुनाव आयुक्त की नियुक्ति में सीजेआई को नहीं शामिल करने को राहुल गांधी निर्वाचन आयोग पर सरकार के कब्जे का आधार बता रहे हैं. देश में ऐसा पहली बार हुआ है जब चुनाव आयुक्तों की नियुक्ति के लिए पीएम की अध्यक्षता में नेता प्रतिपक्ष की सदस्यता के साथ तीन सदस्यों की समिति बनाई गई है. इसके पहले तो कांग्रेस की सरकारों में सीधे प्रधानमंत्री यह नियुक्ति करता था.
चुनाव सुधार के नाम पर राहुल गांधी ने दूसरा सुझाव दिया है कि राजनीतिक दलों को मशीन रीडेवल वोटर लिस्ट मिलना चाहिए. अभी भी राजनीतिक दलों को वोटर लिस्ट की प्रिंटेड कॉपी दी जाती है. आईटी में एआई और डीपफेक का जमाना है. अगर इलेक्शन कमीशन मशीन रीडेवल वोटर लिस्ट देने लगे तो इसके डीपफेक वर्जन बनने का खतरा है. फिर भी इस सुझाव पर विचार किया जा सकता है.
ईवीएम् के मामले में राहुल गांधी या कांग्रेस का कोई दूसरा नेता अब तक अनियमितता की संभावना पर कोई भी सबूत नहीं दे सका है. सर्वोच्च न्यायालय ने भी इस पर फैसला दिया है. वीवी पेट से वोटों का मिलान एक सीमा तक किया जाता है.
एक और आरोप जो राहुल ने सरकार पर लगाया, उसमें चुनाव आयुक्त को उनके कार्य के लिए किसी भी एक्शन पर इम्यूनिटी देने पर सवाल उठाया है. यह कोई नई व्यवस्था नहीं है. न्यायाधीशों और संवैधानिक पदों पर बैठे व्यक्तियों को यह इम्यूनिटी प्राप्त है, लेकिन कार्यकारी पदों पर बैठे पीएम और मंत्रियों को यह प्राप्त नहीं है.
राष्ट्रपति, राज्यपाल, न्यायाधीशों और संवैधानिक निर्वाचन आयोग के आयुक्त को यह मिला हुआ है. जो संविधान के पालन करने की दृष्टि से जरूरी व्यवस्था है. इस तरह का सवाल केवल प्रक्रिया पर अविश्वास पैदा करने की राजनीतिक कोशिश कही जाएगी.
कांग्रेस ने पंजाब की एक महिला नेत्री को इस बात के लिए निलंबित किया है कि उसने आरोप लगाया कि पार्टी में सीएम बनने के लिए पांच सौ करोड़ की अटैची देनी पड़ती है. सीएम बनाने की प्रक्रिया क्या राजनीतिक रूप से पारदर्शी है. खासकर कांग्रेस में ढाई-ढाई साल की प्रक्रिया क्या संवैधानिक है. पार्टी में सुधार जो राहुल गांधी के हाथ में है, वह तो वह कर नहीं पाए.
चुनाव सुधार में सबसे बड़ी जरूरत चुनाव में काले धन के उपयोग रोकने का है. राजनीतिक दलों को चंदे के बारे में स्पष्ट विधान का है. बार-बार हो रहे चुनाव को रोककर एक देश, एक चुनाव का है. निर्वाचित प्रतिनिधियों की कार्यप्रणाली में पारदर्शिता और ईमानदारी का है.राजनीतिक अपराधीकरण मिटाने का है. जेल में रहकर भी निर्वाचित जनप्रतिनिधियों द्वारा सरकार चलाने की बढती प्रवृत्ति को रोकने का है. इस सभी मुद्दों पर राहुल गांधी ने अपना मुंह तक नहीं खोला.
राहुल गांधी बीस साल से ज्यादा के सांसद हैं. कई बार सदन में उन्होंने भाषण दिए. उनका एक भी भाषण ऐसा नहीं रहा जो पार्टी राजनीति से आगे बढ़कर संसदीय राजनीति को मजबूत करने के लिए हो. राहुल गांधी जब तक स्क्रिपेटेड मुद्दे उठाते रहेंगे, जब तक लोकतंत्र को आत्मसात कर अनुभव से उनके मुद्दे नहीं निकलेंगे, तब तक कांग्रेस और राहुल गांधी जीतने का केवल सपना ही देख सकते हैं.
पार्ट टाइम पॉलिटिक्स असली एजेंडे को पकड़ने में सफल कैसे हो सकती है. इसके लिए पीएम के परिवार की विरासत छोड़कर खुद को मेहनत करना पड़ता है.