देश भर में बैंकों की छोटी-मोटी बकाया राशि नहीं चुकाने की वजह से बड़ी संख्या में किसानों को जेल में डाल दिया जाता है..!
मेरे एक रिटायर्ड बैंकर मित्र को भी कल यकायक देश की बैंकिंग प्रणाली पर ग़ुस्सा आया। उन्होंने रोष में कहा कि “देश भर में बैंकों की छोटी-मोटी बकाया राशि नहीं चुकाने की वजह से बड़ी संख्या में किसानों को जेल में डाल दिया जाता है। अगर किसान को जेल नहीं भेजा जा सका तो बैंक पहले तो किसानों की ट्रैक्टर जैसी चल संपत्ति जब्त कर लेते हैं और उसके बाद भी बकाया नहीं मिला तो खेत जब्त कर लेते हैं। इसके विपरीत भारतीय रिजर्व बैंक ने अमीर, बदमाश, धोखेबाजों और जानबूझकर लोन न चुकाने वालों के लिए ‘रक्षा कवच’ की सुविधा उपलब्ध कराने का फैसला किया है ।“ प्राकृतिक न्याय के सिद्धांतों को ताख पर रखते हुए, इसने राष्ट्रीयकृत बैंकों को जानबूझकर चूक करने वालों के तौर पर पहचाने गए खातों के लिए समझौता निपटान या फिर लोन राशि को बट्टे खाते में डालने की इजाजत दे दी है। इससे 12 महीने की कूलिंग अवधि के बाद, ये डिफॉल्टर जिनके पास भुगतान करने की क्षमता है लेकिन वे ऐसा नहीं करते हैं, नए लोन तक ले सकते हैं।उनका ही नहीं सभी कोईस विषय पर रोष व्यक्त करना चाहिए।
जैसा कि आरबीआई कहता है यह वैध समाधान तंत्र है,, तो सबसे पहला प्रश्न यही उठता है कि यही फॉर्मूला किसानों, एमएसएमई क्षेत्र और मध्यम वर्ग पर क्यों लागू नहीं किया है घर या कार लोन लेने के लिए नियमों का पालन करते हुए कर चुका कर अपनी गाढ़ी कमाई के पैसे लगाते हैं ,उनके लिए क्या है ? बैंकों, गैर-बैंकिंग वित्तीय कंपनियों और माइक्रो-फाइनेंस संस्थानों के किराये के गुंडे आए दिन डिफॉल्टरों की चल संपत्ति को जब्त करने के लिए जोर-जबरदस्ती की रणनीति क्यों अपनाते हैं ?
इसके बाद भी कोई शर्मिंदा नहीं है –जैसे एनबीएफसी प्रमुख ने झारखंड में कर्ज न चुकाने वाले एक किसान की गर्भवती बेटी की मौत के लिए माफी मांगी । उसे तब कुचल दिया गया था जब रिकवरी एजेंट ट्रैक्टर के साथ भागने की कोशिश कर रहे थे जिसके लिए किसान ने लोन ले रखा था। लेकिन आरबीआई की नजरें इस तरफ नहीं हुई ।
आश्चर्य है आरबीआई ने बैंकों को जान-बूझकर कर्ज न चुकाने वालों के साथ समझौता करने की इजाजत देने वाला पत्र भला कैसे जारी कर दिया? जिन लोगों को तो कायदे से अब तक जेल में होना चाहिए था। उनके पक्ष में आरबीआई के इस पत्र पर हंगामा मचा तो मामले को ठंडा करने के लिए जो ‘नरम’ स्पष्टीकरण दिए गए, उससे और भी सवाल खड़े हो गए। इससे केवल यही बात स्पष्ट होती है कि आरबीआई की सारी उदारता “अमीर डिफॉल्टरों” के लिए है। जो बैंकिंग नियामक के नियम-कायदों की परवाह नहीं करते।
जानबूझकर कर्ज न चुकाने वालों की संख्या लगातार बढ़ ही रही है। पिछले दो वर्षों में इनकी संख्या में 41 प्रतिशत तक की बढ़ोतरी हुई है। इनकी संख्या बढ़कर 16,044 हो गई है और इन पर बैंकों का कुल मिलाकर 3.46 लाख करोड़ रुपये बकाया है। इसके अलावा, मीडिया रिपोर्टों में कहा गया है कि पिछले सात वर्षों में बैंक धोखाधड़ी और घोटालों में हर दिन 100 करोड़ रुपये का नुकसान हुआ है। जो भी हो, कई जानबूझकर कर्ज न चुकाने वालों जिनमें विजय माल्या, मेहुल चोकसी और ललित मोदी जैसे लोग शामिल हैं, जो देश छोड़कर भाग गए हैं, उन्हें भी अब आरबीआई के इस रुख से राहत मिलेगी कि बैंक उनके साथ समझौता कर सकेंगे। इनमें से कई को बकाए की बड़ी राशि के बट्टे-खाते में जाने का फायदा होगा और उसके बाद भी वे आगे फिर से लोन लेने के पात्र होंगे।
दूसरा बड़ा प्रश्न यह है कि आरबीआई ने छोटी राशि के बकाएदारों जिनमें किसान भी शामिल हैं, के प्रति कभी इतनी उदारता क्यों नहीं दिखाई? छोटे किसानों को जेल की सजा क्यों भुगतनी पड़ती है जबकि व्यापार में अमीर बदमाशों को नियमित रूप से जमानत मिल जाती है और उनके लिए लोन की राशि में भी भारी कटौती कर दी जाती है और इसलिए उनके पास खोने के लिए कुछ भी नहीं होता है। वे शानदार जीवनशैली जारी रखते हैं। आरबीआई के ताज़ा सर्कुलर से उन्हें बड़ी राहत मिली है और अब इस धंधे से जुड़े धोखेबाजों को अभय दान मिल गया है।
बैंक और बैंकिंग प्रणाली को धोखा देने वाले उधारकर्ताओं के साथ इस तरह का व्यवहार जारी ॰रहता हैं, तो यह उस गेम प्लान हिस्सा है जो अमीरों को धन इकट्ठा करने में मदद करता है। इसलिए नहीं कि वे प्रतिभाशाली हैं बल्कि इसलिए कि बैंक जनता के पैसे से उन्हें उबारते रहते हैं। पहले से ही, बैंकों ने पिछले 10 वर्षों में 13 लाख करोड़ रुपये से अधिक की गैर-निष्पादित परिसंपत्तियों को बट्टे खाते में डाल दिया है और अब यह जान-बूझकर कर्ज न चुकाने वालों के लिए समझौता फार्मूला तैयार करने का दिया गया विवेक उनके लिए स्वर्णिम अवसर है।
अखिल भारतीय बैंक अधिकारी परिसंघ और अखिल भारतीय बैंक कर्मचारी संघ आरबीआई की इस नीति के आलोचक रहे हैं, दिलचस्प बात यह है कि जब भी कॉरपोरेट्स को लाभ पहुंचाने का कोई मुद्दा सामने आता है, तो कॉरपोरेट अर्थशास्त्रियों की एक टीम अचानक सामने आकर उसका बचाव करने की कोशिशों में जुट जाती है, भले ही वह निर्णय कितना भी गलत क्यों न हो।
जब ऑक्सफैम इंटरनेशनल ने विकराल होती असमानताओं को कम करने के लिए संपत्ति कर लगाने के लिए कहा। भारत में कुछ अर्थशास्त्रियों ने तब कहा था कि अमीरों के एक छोटे वर्ग के ऊपर संपत्ति कर बढ़ाना सही नहीं होगा। ऋण की वसूली करते समय बैंक को इस बात में कोई अंतर नहीं करना चाहिए कि डिफॉल्ट जानबूझकर किया गया, या अनजाने में या फिर किसी भी और इरादे से।
यदि ऐसा है, मध्यम वर्ग के निवेशकों और किसानों के लिए इस अपवाद की अनुमति क्यों नहीं है? यदि किसानों और मध्यम वर्ग के डिफॉल्टरों को समान विशेषाधिकार मिलते हैं तो आप उन्हीं अर्थशास्त्रियों को इस नीति पर सवाल उठाते हुए देखेंगे। इस ‘दोहरे मानक’ को रोकने के लिए एक ठोस प्रयास करना होगा ।जो हर स्थिति में अमीरों का पक्ष लेता है।