हर एक दो महीने में किसी ना किसी जिले में कलेक्टर और विधायक के बीच टकराव सामने आ जाता है. ताजा मामला भिंड कलेक्टर और विधायक के बीच का है. उंगली और मुक्का दिखाने के जो दृश्य सामने आए हैं वह सिस्टम में आ रही गिरावट बताते हैं..!!
कलेक्टर और विधायक दोनों में कौन ज्यादा दोषी है, यह कहना मुश्किल है. अगर छवि कोई पैमाना है तो फिर दोनों पर ही सवाल उठते रहे हैं. कलेक्टर और विधायक महोदय ने एक दूसरे के खिलाफ़ पुलिस में शिकायत की है. पुलिस मामले की जांच कर रही है. दोनों एक-दूसरे पर आरोप लगा रहे हैं.
विधायक महोदय का कहना है कि किसानों की खाद की समस्या को लेकर मैं गया तो कलेक्टर ने मुझे धमकाया, हत्या कराने की धमकी दी. दूसरी तरफ अपनी शिकायत में कलेक्टर ने कहा है, कि विधायक कुशवाहा मेरे शासकीय बंगले पर आए. यहां उनके समर्थकों ने कलेक्टर चोर के नारे लगाए. विधायक ने मेरे साथ अभद्रता की और मोबाइल छीन लिया. उन्होंने मुझे गाली दी. दरवाजे पर धक्का मारकर अंदर घुस गए और मुक्का दिखाया.
दो लोगों के बीच हुए इस घटनाक्रम पर तो सत्यता जांच में ही सामने आएगी, लेकिन इससे पूरी संसदीय व्यवस्था पर जरूर प्रश्न खड़े हो गए हैं.
केवल मध्य प्रदेश में ही नहीं लगभग हर राज्य में विधायकों और ब्यूरोक्रेसी के बीच में टकराव आम बात है. मीडिया में तो ऐसे टकराव तब आते हैं, जब मामला विस्फोटक हो जाता है. विधायिका और कार्यपालिका का टकराव सतत चलता रहता है. इसका कारण यह है, कि जन सेवा के बहाने कई बार ऐसी सेवा भी लेने की कोशिश की जाती है, जो कानून के अंतर्गत नहीं होती. सिस्टम में करप्शन इस तरह के टकरावों का सबसे बड़ा कारण माना जा सकता है.
सिविल सेवाओं में भी ईमानदारी का लेवल लगातार घटा है. विधायकों का जहां तक सवाल है, उन्हें तो हर पांच साल में चुनाव में जाना पड़ता है. चुनाव में खर्च के लिए धन प्रबंधन की मजबूरी हो सकती है, लेकिन सिविल सेवा अफसरों को नियमों के अनुरूप काम करना जरूरी होता है.
कोई ऐसा जिला नहीं है जहां माफिया सक्रिय नहीं हो. अगर प्रशासन सख्त हो तो कोई भी माफिया लंबे समय तक सरवाइव नहीं कर सकता. भिंड में तो हर तरह के माफिया मौजूद हैं. वहां जो अफसर होते हैं उनके लिए माफिया घाटे का सौदा नहीं होते. माफिया कॉमन फैक्टर होते हैं. ऐसा नहीं है, कि जिला स्तर पर एक-दूसरे से, एक-दूसरे के कारनामे छिपे हुए होते हैं. कलेक्टर साहब का कामकाज और शैली टॉक ऑफ द टाउन होती है.
विधायक महोदय की कोई बात छुपी नहीं हो सकती. दोनों एक दूसरे को किसी भी विशेषण से संबोधित कर सकते हैं, लेकिन असली विवाद करप्शन के कारण ही पैदा होता है. जो भी गलत धंधा चल रहा है उसमें बिना विधायक महोदय की सहमति या भागीदारी के संभव नहीं हो सकता है. जो भी कलेक्टर वहां पहुंचता है, अगर वह अपनी भागीदारी को प्रमुखता देगा, तो फिर माफिया हिस्सा बंटवारे में जो जितना ताकतवर होगा उस हिसाब से काम करेगा. इसी बंटवारे में ही विवाद की जड़ छुपी होती है.
यह कोई एक जिले का मामला नहीं है. रेत माफिया तो हर जगह सक्रिय हैं. भिंड मुरैना तो ऐसे इलाके हैं, जहां रेत माफिया कितना ताकतवर है, इसका अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है, कि आईपीएस अफसर को अपनी जान गंवानी पड़ी थी.
कलेक्टरों का जिलों में कार्यकाल लंबा नहीं होता. दो-तीन साल कलेक्टर जिले में रह जाएं यह बहुत बड़ी बात होती है. पहले पदस्थापना के लिए पापड़ बेलने पड़ते हैं, फिर उसको बनाए रखने के लिए सियासी प्रबंध करना पड़ता है.
स्थानीय ताकतवर राजनेताओं से भी संतुलन बनाना पड़ता है. अगर इसमें कोई टकराहट हो गई तो फिर भिंड जैसे हालात पैदा हो जाते हैं. कभी कलेक्टर जिले का सबसे सम्मानित और प्रतिष्ठित पद हुआ करता था. सब इतिहास की बातें हो गई हैं. अब तो कलेक्टरों को जिस स्तर की सियासी चाकरी करनी पड़ती है, उससे बहुत सारे अफसर फील्ड से दूर रहना चाहते हैं.
विधायक रूल मेकर हैं. विधानसभा के अंदर रूल मेकिंग में कई विधायकों से तो पूरे पांच साल में एक भी शब्द सुनाई नहीं पड़ता. जो सवाल भी पूछे जाते हैं वह भी सब व्यक्तिगत आरोप-प्रत्यारोप या उनमें भी करप्शन की रेसिपी छिपी होती है. विधायिका में भी करप्शन के बीज पहुंच गए हैं. पैसे लेकर सवाल पूछने तक के मामले सामने आते हैं. घूस लेकर सरकारों के पक्ष में वोट देने के उदाहरण भारतीय संसदीय व्यवस्था में उपलब्ध हैं.
पूरा तंत्र ही भ्रष्टाचार की चपेट में आ गया है, इसके लिए विधायिका दोषी है या कार्यपालिका यह निर्णय करना मुश्किल है. ईगो की भी टकराहट होती है. पर्यावरण एजेंसी सिया में रिटायर्ड आईएएस और वर्तमान आईएएस के ईगो की टकराहट सुप्रीम कोर्ट तक पहुंच गई है. एक-दूसरे पर करप्शन का आरोप लगाया जा रहा है. मंत्री और उनके सचिवों के बीच में विवाद भी कम नहीं उभरते हैं. आईएएस अफसरों के ट्रांसफर नीति आधारित नहीं होते, बल्किमर्जी आधारित होने लगे हैं.
सीएमओ जैसे महत्वपूर्ण स्थान पर अफसर एक साल भी नहीं टिक पाते. जिम्मेदारी और जवाबदेही सिस्टम से गायब हो गई है. भोपाल में बने 90 डिग्री ओवर ब्रिज से मध्य प्रदेश को पूरी दुनिया में बदनामी मिली है.
विधायक और कलेक्टर दोनों लोकसेवक हैं. जन सेवा में कोई कॉनफ्लिक्ट ऑफ इंटरेस्ट नहीं हो सकता. कॉनफ्लिक्ट ऑफ इंटरेस्ट करप्शन नहीं हो सकता है. करप्शन के साथ विधायक और कलेक्टर का नाम जरूर चल सकता है, लेकिन इससे नाम हो नहीं सकता.
नीयत नापने का कोई पैमाना नहीं है. बिजनेस रूल नीति तो बता सकते हैं, लेकिन उन पर चलने की नीयत तो इंसान की ही होगी. इसके लिए सेल्फ रूल ही काम करेगा.