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शहरों में स्कूल, प्राइवेट फुल

सार

सरकार हमेशा प्रयोगशाला में ही रहती है. सरकार का विज्ञान नए-नए प्रयोग करता है. इन प्रयोगों का सर्वाधिक शिकार स्कूली शिक्षा होती है. मध्य प्रदेश में तो स्कूली शिक्षा में हर मुख्यमंत्री ने नए-नए प्रयोग किए..!!

janmat

विस्तार

     किसी प्रयोग को अपना इच्छित लक्ष्य मिला है, ऐसा तो नहीं लगता. अभी स्कूल शिक्षा विभाग में तबादलों में भी इच्छाधारी प्रयोग किए गए हैं. कहने को तो शिक्षकों के सारे ट्रांसफर ऑनलाइन पोर्टल पर पारदर्शी ढंग से किए गए हैं. लेकिन मनमर्जी चलाने वाले को तो पोर्टल नहीं रोक सकता. 

    पोर्टल का सबसे बड़ा खेल तो व्यापम के रूप में परीक्षा में हो चुका है. तमाम सारी जांच, न्यायालय के आदेश, गिरफ्तारियां और सब तरह के प्रयोगों के बाद भी व्यवस्था में सुधार परिलक्षित नहीं हुआ. फिर अभी पुलिस की भर्तियों में ऐसे मामले प्रकाश में आए हैं. दूसरे को बिठाकर परीक्षा पास करने के आरोप में बहुत सारी गिरफ्तारियां हुई हैं. मुद्दे की बात है, कि मनमर्जी और करप्शन का वायरस ख़त्म ही नहीं होता, वह अपने रूप बदल लेता है. फाइलों से निकलकर पोर्टल पर पहुंच जाता है. फिर भी होता वही है, जो पदधारी इच्छा करते हैं.

    तारीफ़ तो उन अखबारों की होना चाहिए जो जनहित से जुड़े मामले में पीड़ा उठाकर ऐसी खबरें सार्वजिनक कर देते हैं. ऐसी एक खबर में यह तथ्य सामने आया है, कि स्कूलों में शिक्षा विभाग ने तबादलों में गांव के स्कूल खाली कर दिए हैं और शहरों में जरूरत से ज्यादा शिक्षक भेज दिए गए. 

    सरकार की मंशा यही रही होगी, कि इन तबादलों में पारदर्शिता रखी जाए. लेकिन फिर भी ऑनलाइन पोर्टल पर भी विभाग के इच्छाधारियों ने अपनी इच्छा चलाने में सफलता प्राप्त कर ली. शिक्षकों के तबादले में शिक्षा विभाग की कार्य प्रणाली पर फिर सवाल खड़े कर दिए हैं. यह सवाल तो ऐसे हैं, जो खड़े होने के लिए होते हैं. जिनके खिलाफ़ खड़े होते हैं, उनको भी पता होता है, कि सवाल खड़े होते रहेंगे और सब चलता रहेगा. इसीलिए तो सिस्टम में शामिल लोग ऐसा साहस कर पाते हैं. 

    इसका एक ही मतलब हो सकता है या तो ऐसी अनैतिकता में ऊपर से नीचे तक पूरा सिस्टम शामिल होगा. सिस्टम का कोई एक पार्ट गड़बड़ी करके बच नहीं सकता है. उसको तो पकड़ लिया जाएगा. वह इसी सूरत में बच सकता है जब पूरा सिस्टम मिलजुल कर किसी प्रयास को अंजाम दे रहा हो.

     खबर में ऐसा बताया गया है, कि कई दूरस्थ गांवों में कई स्कूल ऐसे हैं, जहां सभी शिक्षकों के तबादले कर दिए गए. जिससे वह पूरी तौर से खाली हो गए. शहरी स्कूलों में जहां पहले से ही जरूरत से ज्यादा शिक्षक थे, वहां और भेज दिए गए हैं. कुछ स्कूल तो ऐसे भी हैं, जहां एक भी विद्यार्थी दर्ज नहीं है, फिर भी वहां शिक्षकों की पोस्टिंग की गई है.

    गड़बड़ी की खबर उजागर होने के बाद प्रमुख सचिव स्कूल शिक्षा विभाग इस मामले को गंभीर मानते हुए कहते हैं, इसके लिए जिला शिक्षा अधिकारी की जिम्मेदारी तय की जाएगी और कार्रवाई की जाएगी. पारदर्शिता के लिए बने पोर्टल में जानबूझकर ऐसी कमियां छोड़ी गईं, जिसमें चहेते लोगों का ट्रांसफर किया जा सके. खबर में यह भी दावा किया गया है, कि 18 जिलों के 80 स्कूलों की पड़ताल की गई, उसके आधार पर ही तबादलों में गड़बड़ियां उजागर हुई हैं.

     अब इसमें तो कोई संदेह नहीं है, कि वही अभिभावक अपने बच्चों को सरकारी स्कूल में भेजते हैं, जो प्राइवेट स्कूलों का खर्च उठाने में सक्षम नहीं होते. शिक्षा विभाग चलाने वाले सिस्टम के बड़े और छोटे सारे अपने बच्चों को प्रायवेट स्कूलों में ही भेजने की कोशिश करते हैं. स्टेट बोर्ड और सीबीएसई बोर्ड की अलग व्यवस्थाएं हैं, अलग पाठ्यक्रम है.

    शिक्षा के लोकव्यापीकरण के नाम पर कभी यह व्यवस्था शिक्षा कर्मियों के हाथ में चली गई थी. अब धीरे-धीरे वह व्यवस्था सुधर रही है. शिक्षा एक सतत नीति और व्यवस्था की मांग करती है. एक ही दल की सरकार में भी शिक्षा की नीतियों में बदलाव देखा जाता है. 

    नाम बदलने का तो ट्रेंड जैसे इसलिए होता है, कि हर नए नेता को अपनी उपस्थिति जनता के बीच स्थापित करना जरूरी होता है. सीएम राइज स्कूल के रूप में जिन स्कूलों को चुना गया था उनमें जो सुधार और निर्माण होने थे, गुणवत्ता के हिसाब से जो बदलाव किए जाने थे, वह सब तो अभी भी अधूरे पड़े हुए हैं. इतना जरूर हुआ कि सीएम राइज स्कूल का नाम बदलकर संबंधित सांदीपनी स्कूल कर दिया गया है. नाम बदलने से गुणवत्ता कैसे सुधरेगी. यह बात आम आदमी तो नहीं समझ सकता. सरकारी सिस्टम ही इस रहस्य को समझने में सक्षम हो सकता है. 

    सांदीपनी वह आश्रम है, जहां भगवान कृष्ण ने शिक्षा ग्रहण की थी. मध्य प्रदेश की उज्जैनी को यह गौरव हासिल हुआ है, कि कृष्ण ने वहां शिक्षा पाई है. पहली बार उज्जैन को यह गौरव मिला है, कि वहां के राजनेता को मुख्यमंत्री का पद हासिल हुआ है. स्कूलों का नामकरण सांदीपनी के नाम पर तो पहले से ही किया जाना चाहिए था. इससे अधिक उपयुक्त नाम स्कूलों के लिए नहीं हो सकता. सीएम राइज स्कूल वह फीलिंग नहीं  देता जो सांदीपनि नाम से मिलती है.

    केंद्र सरकार द्वारा लाई गई नई शिक्षा नीति में त्रिभाषा का फॉर्मूला लागू किया गया है. दक्षिण भारत और महाराष्ट्र में हिंदी को लेकर विवाद खड़े किए जा रहे हैं. भाषा अनुभव देती है. जितनी ज्यादा भाषा का ज्ञान होगी उतना ही रोजगार की संभावना बढ़ेगी. 

    सरकारों को स्कूली शिक्षा में बार-बार प्रयोग से बचने की जरूरत है. स्कूली शिक्षा की अधोसंरचना के विकास के साथ ही शिक्षा की गुणवत्ता पर सियासत से ऊपर उठकर काम करने की जरूरत है. शिक्षा ही भविष्य है. इसमें कोई भी गड़बड़ी भविष्य प्रभावित कर सकती है.

    शिक्षा व्यवस्था इच्छाधारी ढंग से नहीं बल्कि गुणवत्ता और निरंतरता में होना जरूरी है. तबादलो में गड़बड़ियां सुधारने की बातें ही नहीं बल्कि वास्तव में किया जाना चाहिए. सरकारी स्कूलों की गुणवत्ता बढ़ेगी, तो प्राइवेट स्कूलों में अधिक धन खर्चकर बच्चों को भेजने की प्रवृति भी घटेगी.

    वक्त ही है, जो चलता रहता है. किसी की प्रतीक्षा नहीं करता. वक्त के साथ वक्त पर जो सटीक कदम उठा लेगा, वही कल्याणकारी और विजयी साबित होगा.