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लीजिए,फिर देखिये नए वायदों का तिलिस्म 

राकेश दुबे राकेश दुबे
Updated Fri , 28 Apr

सार

आज़ादी के इतने सालों के बाद नई वैचारिक चेतना उभरती उससे पहले ही यह खतरा दिख रहा है कि कभी भी लोग सिर उठाएंगे तो जीने की राह मांगेंगे, पेट भरने का ज़रिया मांगेंगे..!!

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विस्तार

यह युग नये सामंतों का है, वे चाहे इस दल में रहे या उस दल में उनके बदलने की कोई उम्मीद नहीं है। देश के करोड़ों छोटे-बड़े नौजवानों ने एक लंबी लड़ाई लड़ कर भारत से  सामंतवाद को नेस्तनाबूद कर दिया यह  इतिहास  में दर्ज है। उसके बदले जो व्यवस्था यहाँ आई उसने  नए रजवाड़े और नए सामंत पैदा कर दिए है ? वे भी और ये भी नाम जनता के राज का लेते हैं और पहले तो उम्र भर अपनी कुर्सी नहीं छोड़ते, फिर वंशगत परम्परा में उनके वारिसों को सत्ता सौंपते थे । अब भी यही हो रहा है,आने वाले सब वारिसों की वोटों की वसीयत मिले इसके लिए कुछ भी करने में कोई गुरेज़ नहीं हैं। जैसे-जैसे वोट डालने के दिन नजदीक आते हैं, तो जनता जनार्दन के टूटे सपनों के रूप खण्डहरों की मरम्मत में सारे दल जुटे दिखाई दे रहे है।

आज़ादी के इतने सालों के बाद नई वैचारिक चेतना उभरती उससे पहले ही यह खतरा दिख रहा है कि कभी भी लोग सिर उठाएंगे तो जीने की राह मांगेंगे। पेट भरने का ज़रिया मांगेंगे।  अव्यवस्था से खोई हुई जानों का हिसाब मांगेंगे। इसलिए इससे क्या बेहतर नहीं कि ये सिर उसी प्रकार झुके रहें, और अपनी जान और माल की खैर खैरियत हमसे मांगते रहें। आप पूछ सकते हैं, कौनसी जान और कौनसा माल? क्या वह जान जो संक्रमित होकर इसलिए दम तोड़ गई, कि उसके फेफड़ों को चालू रखने के लिए प्राण वायु के सिलेंडर नहीं थे। किस माल की हिफाजत करने की बात कहते हैं आप? 

आज जनता को नई वायवीय घोषणाओं की बैसाखियों के साथ खड़ा करके उपलब्धियों का एक नया सब्जबाग बना कर पेश कर दिया जाता है। इस जमाने का कोई भरोसा नहीं है, जाने कब करवट बदल ले। जाने किस दांव अपना हाथ बदल अपनी हार को जीत में बदल दे। वैसे भी जीत का लड्डू हमेशा ही ऊपर वालों के हाथ रहता है। 

जब भी  मतदान का समय आया मौसम बना, और आपने युगों से लम्बित अच्छे दिनों का सपना साकार होने का एक ट्रेलर हमें दिखा दिया और पूरी फिल्म दिखाने का सपना भविष्य के कंधों पर लाद दिया। कल, आज और कल में जो बीत गया वह कल तो कभी मुडक़र आता नहीं और आने वाला कल कभी मिलता नहीं, जब भी मिलेगा, वह यही आज बन कर ही मिलता है। वही रंग उतरा आज जिसमें आने वाले दिनों में अच्छे दिन दे देने के वायदों को दोहराया जाता है। उन लोगों ने दोहराया है, जो बरसों बाद आपका और भी निर्जीव होता चेहरा पहचानने चले आए थे। नए वायदों के कनकौओं के साथ, एक बार फिर से आकाश में उडऩे का एहसास दे रहे हैं। यह वे एहसास हैं जो काम किए बिना देश के आत्मनिर्भर हो जाने की तस्वीर बनाते हैं।

ये दल आंकड़ों के ऐसे खेल दिखाते हैं कि गिरावट की ओर सटपट भागती अर्थव्यवस्था का शेयर सूचकांक बल्लियों उछलने लगता है। इन्होंने पूरा विश्व एक मंडी बना देने का वायदा किया था न। लीजिये पूरे विश्व में पैट्रोल और डीजल की कीमतें कम हो गईं हैं, फिर भी देश की चाल धीमी हो गई तो क्या? इस देश के लोगों को तो वैसे ही  लड़खड़ाती चाल से रेंगने की आदत है। धरती पर रेंगना और आकाशचारी होकर विकास के आंकड़ों के वायुयान की सवारी करना इनकी पुरानी आदत है। 

ये आंकड़े बहुत बड़ी चीज हैं। आप जितना चाहें आंकड़ों की सत्यता की जांच कर वैकल्पिक आंकड़े ले आएं, हमने संकट बचा लिया और अपनी कुर्सी भी। ये खैरात बांटते रहेंगे, अब बस दुआओं से काम चलाइए। बदलाव के नारे मंचों तक सीमित रहे तो बेहतर।