संविधान निर्माताओं की मंशा के विपरीत आपातकाल में संविधान की मूल उद्देश्यिका में सेकुलरिज्म और सोशलिज्म जोड़ा गया. इसको जुड़े भी पचास साल हो गए हैं..!!
सरकार की नीतियों में समाजवाद की तो अब गुंजाइश रही नहीं. अब तो उदारवाद और पूंजीवाद के जरिए गरीब कल्याण, समाजवाद को परिभाषित कर रही है. यह दोनों शब्द संविधान में रहे या नहीं रहें, इसका सरकार की नीतियों पर कोई भी असर नहीं है. धर्मनिरपेक्षता तो संविधान में है ही नहीं, इसमें पंथनिरपेक्षता उल्लेखित है. लेकिन राजनीति की भाषा में धर्मनिरपेक्षता ही प्रचलन में है. यह शब्द ही वोट बैंक पॉलिटिक्स की आधारशिला है.
दोनों शब्दों को लेकर ताजा विवाद राष्ट्रीय स्वयं संघ के सह-सरसंघचालक होसबोले की ओर से यह मांग किए जाने के बाद खड़ा हुआ है, कि इमरजेंसी में जोड़े गए धर्मनिरपेक्षता और समाजवाद शब्द को हटाने के बारे में विचार विमर्श किया जाना चाहिए. संघ से उठी मांग पर बीजेपी के भी कई कद्दावर नेताओं ने उसका समर्थन किया. उपराष्ट्रपति ने तो यहां तक कहा कि यह दोनों शब्द संविधान में नासूर जैसे हैं. इनको हटाया जाना चाहिए.
देश में संविधान लागू होने के लगभग 26 साल बाद आपातकाल लगा था. इसके जरिए नागरिक अधिकारों का हनन किया गया, मौलिक और न्यायिक अधिकारों को निलंबित किया गया. इसी दौर में संविधान संशोधन के जरिए इन दोनों शब्दों को संविधान की प्रस्तावना में जोड़ा गया. जबकि प्रस्तावना को नहीं बदला जा सकता.
सबसे पहले धर्मनिरपेक्षता की बात करते हैं. यह शब्द मुस्लिम तुष्टिकरण का पर्याय बन गया है. इस शब्द को हिंदू विरोधी के रूप में राजनीतिक उपयोग किया जाता है. ऐसा इसलिए कहा जाता है, क्योंकि अगर संविधान धर्मनिरपेक्ष या पंथनिरपेक्ष होता तो किसी भी धर्म के पर्सनल कानून को इसमें स्थान नहीं दिया जाता.
संविधान निर्माताओं ने इन दोनों शब्दों को लेकर संविधान सभा में व्यापक बहस की थी. अंततः बाबा साहब अंबेडकर धर्मनिरपेक्षता और समाजवाद को मूल प्रस्तावना में शामिल करने से सहमत नहीं हुए.
जहां तक सवाल गैर बराबरी को दूर कर समानता की बात है, इसके लिए संविधान के विभिन्न अनुच्छेदों और मौलिक अधिकारों में स्पष्ट प्रावधान है. प्रत्येक नागरिक को अपना धर्म और उपासना पद्धति अपनाने की पूरी स्वतंत्रता है. इसी प्रकार समाज में भेदभाव को दूर करने के लिए भी संविधान के अंतर्गत प्रावधान निहित हैं.
जब संविधान में धर्मनिरपेक्षता और समाजवाद शब्द नहीं थे, तब से ही गैर बराबरी को दूर करने के लिए प्रावधान देश में लागू किए गए थे. यहां तक कि लोकसभा, विधानसभा में प्रतिनिधितिव और नौकरियों में आरक्षण की व्यवस्था भी इन दोनों शब्दों को प्रस्तावना में शामिल करने के पहले से ही देश में लागू है. सभी को मतदान का अधिकार महिलाओं को समान अवसर की प्रक्रियाएं पहले से ही लागू हैं. इसका मतलब है, कि इन दोनों शब्दों की प्रस्तावना में राजनीतिक उपयोग के अलावा कोई औचित्य नहीं है.
कोई भी सरकार संविधान की प्रस्तावना से एक्ट नहीं करती. शासन की नीतियां संविधान के विभिन्न अनुच्छेदों के प्रावधानों से संचालित होती हैं. यह दोनों शब्द तो केवल राजनीतिक उपयोग के लिए शामिल किए गए हैं.
जहां तक समाजवाद का सवाल है, सरकारों के पास तो ऐसे संसाधन ही नहीं बचे हैं, कि जिनको समानता के साथ वितरण करने की बात हो सके. सबसे बड़ा संसाधन भूमि होती है. इसमें जो भी सुधार संभव हैं किए जा चुके हैं और इसका वितरण भी किया गया है. केंद्र और राज्य की सरकारें अपने आय-व्यय को संतुलित ढंग से चला सकें, यह भी अब कठिन हो गया है, बिना कर्जों के सरकारों का संचालन असंभव हो गया है. समाजवाद शब्द अब पाखंड जैसा हो गया है.
सरकार की नीतियां उदारवादी और पूंजीवादी व्यवस्था पर आधारित हैं. यह बात जरूर है, कि कल्याणकारी राज्य के रूप में सरकारें अपने संसाधनों को विभिन्न योजनाओं के माध्यम से बिना भेदभाव के गरीबों में पहुंचाती हैं. यही समाजवाद का स्वरूप है. जिसे कई हल्कों में तो मुफ्तखोरी की योजनाओं के रूप में देखा जाता है. अस्सी करोड़ लोगों को निशुल्क राशन देने की योजना को विपक्ष की ओर से सवालों में खड़ा किया जाता है.
सरकारों की जो भी योजनाएं हितग्राहियों को सीधे खातों में नकद राशि देने की देश में चल रही हैं वह सब समाजवाद का ही आधुनिक रूप हैं. सरकारों के जितने भी संसाधन हैं, वह उदारवाद और पूंजीवाद से निर्मित हो रहे हैं. औद्योगिकरण के कारण ही विकास को गति मिलती है और सरकारों को राजस्व मिलता है. समाजवाद के नाम पर अगर उदारवाद और पूंजीवाद को कोई भी राष्ट्र प्रोत्साहित नहीं करेगा, तो पूंजीवादी विश्व में गरीबों का समाजवाद ही हमारे पास बचेगा.
समाजवाद का विचार जिस दौर का विचार है, वह दौर अब समाप्त हो चुका है. वामपंथी विचारधारा अंतिम सांसे ले रही है. आज विश्व हाईटेक दौर में पहुंच गया है. वहां जो देश समाजवाद की नीतियों को ही छाती से लगाए रखना चाहेगा, वह अपनी मौत स्वयं तय करेगा.
संघ की ओर से यह मांग आना ही विपक्ष के विरोध की गारंटी कही जा सकती है. संविधान बदलने का डर दिखा कर तो बीजेपी विरोधी दल अपनी राजनीति की मजबूती लाने की कोशिश कर रहे हैं. ऐसे समय में जब बिहार का चुनाव है, तो यह मुद्दा दो शब्दों तक सीमित नहीं रहेगा, बल्कि संघ और बीजेपी पर संविधान को समाप्त करने तक के आरोप लगेंगे. यह आरोप भी उन दलों द्वारा लगाए जाएंगे, जो आपातकाल के रूप में संविधान की हत्या कर चुके हैं.
संविधान में ऐसे बदलाव और प्रावधान कर चुके हैं, जो बाबा साहब अंबेडकर के विचारों के भी खिलाफ है. अब तो सर्वोच्च न्यायालय के वर्तमान मुख्य न्यायाधीश ने भी स्पष्टता से कह दिया है, कि संविधान में धारा 370 लगाना बाबा साहब अंबेडकर की भावनाओं के खिलाफ था.
धर्मनिरपेक्षता या पंथनिरपेक्षता और समाजवाद को संविधान की प्रस्तावना से हटाया जाए या नहीं हटाया जाए, इससे ना संविधान को कोई फर्क पड़ेगा और ना हीसंविधान के किसी प्रावधान में कोई अंतर आएगा जब यह केवल वोट बैंक की राजनीति के रूप में ही लाया गया था और यही इसका उपयोग हो रहा है. तो फिर जो इसको हटाना चाहते हैं, उन्हें किसी भी चीज को हटाने से ज्यादा इसमें कोई एक नया शब्द जोड़कर, इसके राजनीतिक उपयोग की संभावनाओं को ही समाप्त करना ज्यादा उपयुक्त होगा.
सोशल मीडिया डिबेट तो धर्मनिरपेक्षता को आंशिक मुस्लिम राष्ट्र और समाजवाद को नमाजवाद के रूप में रेखांकित करता है. इन पर राजनीति कभी भी नहीं रुकेगी. इन शब्दों के होते हुए भी देश की राजनीतिक धारा बदली है. मतदाताओं की जागरूकता बढ़ी है. धीरे-धीरे इन दोनों शब्दों का राजनीतिक जहर अपने आप कम हो जाएगा.