जब भवन का कोई हिस्सा टूटता है तो फिर उसे निर्मित किया जाता है. उसका इंटीरियर किया जाता है. फिर से उसको पूरे भवन के ओरिजिनल स्वरूप के साथ मिलाने का प्रयास किया जाता है. राजनीतिक दलों के प्रशिक्षण भी सत्ता का इंटीरियर कहे जा सकते हैं..!!
जब ऐसा लगने लगता हैकि, सत्ता की राजनीतिक दिशा भटक रही है. बड़बोलापन बढ़ रहा है. पर्सनैलिटी पार्टी पर भारी पड़ रही है, तब राजनीति में पीएचडी होल्डर सांसदों और विधायकों को प्रशिक्षण की बात शुरू होती है. इसका कितना असर होता है, यह तो आए दिन देखने को मिलता है.
पचमढ़ी में आयोजित भाजपा का तीन दिवसीय शिविर एक सकारात्मक प्रयास है, लेकिन यह कोई पहला नहीं है. पार्टी द्वारा लगभग हर साल ऐसे प्रशिक्षण शिविर आयोजित किए जाते रहे हैं. फिर भी बड़बोलेपन के कारण पार्टी को थोड़ा नुकसान उठाना पड़ता है. ऑपरेशन सिंदूर पर मंत्री विजय शाह की बयानबाजी ने मजबूत राष्ट्रवाद पर बीजेपी को रक्षात्मक रुख अपनाने के लिए मजबूर किया है.
उनके वक्तव्य को विपक्ष ने जितना उपयोग किया है, उतना शायद पहले कभी नहीं हुआ होगा. राजनीति की इसे मजबूरी ही कहा जाएगा कि, विजय शाह के खिलाफ कोई भी अनुशासनात्मक कार्यवाही नहीं की जा सकी. सुप्रीम कोर्ट के निर्देश पर एसआईटी की जांच ज़ारी है. इस पर अंतिम निर्णय अदालत से ही आएगा.
विजय शाह इतने पुराने विधायक हैंकि उन्होंने पार्टी के नामालूम कितने शिविरों में अब तक प्रशिक्षण लिया होगा. कोई भी प्रशिक्षण उन पर कोई प्रभाव नहीं डाल पाया. हर हमेशा अपने बयान से वह कंट्रोवर्सी क्रिएट कर देते हैं. उनकी राजनीतिक ताकत सामाजिक ताकत से जुड़ी हुई है. इसीलिए उन पर कभी भी कोई कार्यवाही लंबे समय तक नहीं हो सकी.
हर बार उनको बचने का रास्ता मिल जाता है. यह एक घटना इस बात का प्रमाण है कि, प्रशिक्षण शिविर कितने प्रभावी होते हैं. जो भी सांसद विधायक है, उन्होंने राजनीति में इतना प्रैक्टिकल नॉलेज ले लिया है कि, अब उन्हें प्रशिक्षण शिविरों के ज्ञान से कोई लाभ हो सकेगा, यह संदेहास्पद है.
राजनीतिक दलों के सामने नेताओं और कार्यकर्ताओं में संवाद, संस्कार, समर्पण और सुशासन के विकास की गंभीर चुनौती है. कोई भी प्रशिक्षण शिविर केवल तात्कालिक घटनाओं पर कुछ टिप्स दे सकता है, लेकिन इससे संस्कार नहीं बदले जा सकते. राजनीति में संस्कार के लिए प्रवेश द्वार पर ही प्रशिक्षण और मानदंडों को अपनाना जरूरी है.
राजनीति में करप्शन एक बड़ी समस्या बन गई है. आज किसी भी सामान्य आदमी का चुनाव लड़ना असंभव सा हो गया है. राजनीति में काला धन इतना उपयोगी हो गया है कि सामान्य व्यक्ति इसके दुष्प्रभाव के कारण प्रतिस्पर्धा में मुकाबला नहीं कर सकता. चुनाव में काले धन की जरूरत से ही करप्शन का सीधा रिश्ता है.
सांसद या विधायक हर पांच साल में चुनाव की प्रक्रिया के लिए धन एकत्र करने में लगे रहते हैं. ऐसा नहीं है कि किसी भी दल को इस बारे में पता नहीं होता है, बल्कि इस राजनीतिक मजबूरी को सभी दल स्वीकार करने के लिए विवश होते हैं.
देश में राजनीति और चुनावी प्रक्रिया में सुधार की प्रबल आवश्यकता है. आज पूरी राजनीति सत्ता केंद्रित हो गई है. सत्ता से दूर राजनीतिक दल चुनावी प्रक्रिया को ही संदिग्ध बनाने में लगे रहते हैं. संवैधानिक पदों पर बैठे हुए भी राजनीतिज्ञ उसे ही अपना लक्ष्य मानते हैं.
घर, परिवार, समाज, विद्यालय, विश्वविद्यालय जब संस्कार बनाने में असफल हो रहे हैं तो फिर प्रशिक्षण शिविरों की बिसात ही क्या? सोशल मीडिया के जमाने में नेताओं और कार्यकर्ताओं के ऐसे ऐसे वीडियो वायरल होते हैं, जो समाज में नकारात्मकता नहीं बल्कि अपराध की प्रवृत्ति को प्रोत्साहित करते हैं.
केवल बड़बोलापन ही समस्या नहीं है. लोगों का चरित्र और व्यक्तित्व भी समस्या बनता जा रहा है. व्यक्तित्व निर्माण केवल राजनीति की त्रासदी नहीं है बल्कि समाज में भी इस पर चिंतन बहुत जरूरी है. राजनेता कहां से निकलतें हैं? इसी समाज के अंग होते हैं. कोई भी स्वार्थ से ऊपर उठकर न सोचने को और ना ही करने को तैयार है.
कोई दल किसी राज्य में सत्ता में है तो दूसरा दल दूसरे राज्य में. सत्ता में उलट पलट भी होती है. सत्ता और विपक्ष की राजनीति का चरित्र एक जैसा दिखाई पड़ता है. राजनीति की बुराई किसी एक दल के सरकार में ही नहीं होती बल्कि इसमें दलीय समानता दिखाई पड़ती है. सत्ता में बदलाव, जनता बड़ी आशा और अपेक्षा के साथ करती है लेकिन वास्तविकता फिर पांच साल बाद बदलाव पर जाकर खत्म होती है.
ऐसे बदलाव से भी सिस्टम में कोई अंतर दिखाई नहीं पड़ता. कार्य शैली में बदलाव की बातें बहुत होती है लेकिन जमीन पर प्रैक्टिकल में कोई बदलाव नहीं देखा जाता. अब तो ऐसा लगने लगा हैकि, राजनीतिक दल के सारे इवेंट दिखावटी ज्यादा होते हैं. उनके प्रभाव व्यक्तित्व पर तो नहीं पड़ते हैं, नेताओं, सांसदों और विधायकों को किसी न किसी गतिविधि में एंगेज रखना है, इसलिए समय-समय पर इवेंट और कार्यक्रम होते रहते हैं.
इस नजरिये से देखा जाए तो देश की राजनीति में सुधार से ज्यादा गिरावट को ही जनता महसूस करती है. चुनाव जनता की मजबूरी है. जो चेहरे सामने है उसमें से बेस्ट चुना जाता है. जब तक राजनीति में शुचिता और संस्कार नहीं विकसित होंगे तब तक गिरावट की गति नहीं रुकेगी.
देश ने लंबे समय तक कांग्रेस की सरकारों का अनुभव लिया है. उसी अनुभव से त्रस्त होने के बाद ही देश की राजनीतिक धारा बदली है. बीजेपी का राजनीतिक उत्थान भी कांग्रेस की नकारात्मकता से जुड़ा हुआ है. जरूरी यह है कि, राजनीति नकारात्मकता से नहीं बल्कि सकारात्मक से चले.
जीवन में द्वन्द पर सब कुछ निर्भर होता है. अगर तुलना के नजरिए से देखा जाएगा तो निश्चित रूप से बीजेपी राजनीति में सुधार की पक्षधर दिखाई पड़ती है. बीजेपी में शुचिता और संस्कार के लिए कई स्तरों पर चिंतन और प्रयोग भी दिखाई पड़ते हैं. उनकी एक विचारधारा भी बनी हुई है. उसके बावजूद भी सुशासन की दिशा में जमीन पर सिस्टम में बदलाव की और ईमानदारी की सबसे ज्यादा जरूरत है.
लोभ की राजनीति नेताओं से उतरते हुए जनता तक पहुंच गई है. बहुत सोच विचार कर राजनीति ने जनता को भी इस लाभ में शामिल कर लिया है. मुफ़्तखोरी का यह लोभ सुशासन को नष्ट कर रहा है.
प्रशिक्षण की आशा इसमें कितना बदलाव लाएगी यह अब तक तो नहीं हो पाया है. आशा निराशा में ना बदले यही राजनीति का लक्ष्य होना जरूरी है.