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सत्तर की उम्र, सत्रह की समस्याएं

सार

हर स्थापना दिवस जैसा इस वर्ष भी राज्योत्सव संपन्न हो गया. सब ट्रेडीशन निभाए गए. हर साल जैसा सीएम का ब्यूरोक्रेटिक ब्लॉग भी पढ़ने को मिला. इसमें निजी भाव तो नहीं दिखा बल्कि सरकारी प्रेस नोट का कलेक्शन ब्लॉग बन गया..!!

janmat

विस्तार

    मध्य प्रदेश की अनंत संभावनाएं सत्तर साल की उम्र में भी सपना ही देख रही हैं. जो समस्याएं पहले थी, कमोवेश वैसी ही समस्याएं आज भी मौजूद हैं. सरकार के दावे और आंकड़े अपनी जगह हैं लेकिन जमीनी हकीकत कछुआ चाल से ही बदलती दिखती है. 

    आज भी मध्य प्रदेश राष्ट्रीय स्तर पर परसेप्शन में पिछड़े राज्य में ही गिना जाता है. नेशनल लेवल पर जब भी एमपी न्यूज़ में उछलता है, तो किसी पॉजिटिव काम से नहीं बल्कि किसी नेगेटिव परफॉर्मेंस से. 

    अभी भी मध्य प्रदेश नई उड़ान भरने की ही बात कर रहा है. भौतिक विकास से ज्यादा राज्य में सरकारी नारों का विकास हुआ है. हर साल नया नारा दिया जाता है. इस साल का स्थापना दिवस ‘अभ्युदय मध्यप्रदेश’ के नाम से मनाया जा रहा है.

    सीएम का फेस कैसे किसी राज्य के विकास का चेहरा बदल सकता है, इसका सबसे बड़ा उदाहरण गुजरात और उसके तत्कालीन मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी के कार्यकाल को देखा जा सकता है.

     मध्य प्रदेश में भी मुख्यमंत्री तो बहुत हुए लेकिन विकास के मामले में विजनरी लीडरशिप शायद राज्य को अब तक नहीं मिल सकी है. दिग्विजय सिंह के कार्यकाल से अब तक राज्य को पांच मुख्यमंत्री मिले हैं. हर सीएम ने अपने नवाचार किये फिर भी एमपी अभी लाचार स्थिति में ही है.

    किसी भी फील्ड में यह राज्य राष्ट्र में अगुआ नहीं बन पाया है. दिल होने के बावजूद मध्यप्रदेश देश की धड़कन नहीं बन पाया है. चाहे विकास के मामले में हो या राजनीति के मामले में, मध्य प्रदेश को दूसरे राज्यों की तुलना में दोयम दर्जे का ही माना जाता है. राज्य विकास के जिस पायदान पर खड़ा है, वह विकास की स्वाभाविक गति ही हो सकती है. इसमें कोई भी विजनरी लीडरशिप का रोल नहीं दिखाई पड़ता है.

    राजनीतिक तंत्र ईमानदार, स्पष्ट और विजनरी हो तो ब्यूरोक्रेटिक तंत्र भी वैसा ही बन जाता है. राज्य की ब्यूरोक्रेसी भी नवाचार को सपोर्ट करने वाली साबित नहीं हुई.

    सरकार ने इस वर्ष को उद्योग, रोजगार वर्ष घोषित किया था. इन दोनों पैमानों पर मध्यप्रदेश बहुत पीछे खड़ा है. ग्लोबल इन्वेस्टर्स समिट हर मुख्यमंत्री का पसंदीदा इवेंट रहा है. पहली इन्वेस्टर समिट खजुराहो में दिग्विजय सिंह ने की. शिवराज सिंह चौहान तो हर साल समिट करते थे. मोहन यादव ने भी इन्वेस्टर समिट के मामले में परंपरा को आगे बढाते हुए रीजनल समिट का नवाचार किया.

    समिट में इन्वेस्टमेंट के आंकड़े तो लाखों, करोड़ों के प्राप्त होते हैं लेकिन जमीन पर इंडस्ट्री लगती नहीं दिखाई पड़ती. सरकारें बदलने,  यहां तक कि एक ही दल की सरकार में मुख्यमंत्री के बदलने पर नीतियां बदल जाती है. अभियान बदल जाते हैं. 

    दिग्विजय सिंह के कार्यकाल में जिला सरकार, जन स्वास्थ्य रक्षक, शिक्षाकर्मी जैसे नवाचार किए गए थे, जो उनकी सरकार के साथ ही समाप्त हो गए. 

    विकास के प्रति कांग्रेस सरकार के नेगेटिव दृष्टिकोण के कारण ही उमा भारती के नेतृत्व में बीजेपी को राज्य में सत्ता मिली. तब से लगाकर अब तक कमलनाथ सरकार के कार्यकाल को छोड़कर लगभग बीस वर्षों से बीजेपी का ही शासन है. एक ही पार्टी की सरकार के कारण नीतियों में निरंतरता होनी चाहिए लेकिन दुर्भाग्य है कि हर मुख्यमंत्री का विकास का अपना नारा और एजेंडा है.

    उमा भारती पंच-ज लेकर आई थीं तो बाबूलाल गौर ने गोकुल ग्राम को अपना लक्ष्य बनाया था. दोनों के मुख्यमंत्री पद से हटने के बाद उनके सारे नारे, लक्ष्य और अभियान बदल गए. शिवराज सिंह चौहान ने तो अपने लंबे कार्यकाल में स्वर्णिम मध्य प्रदेश, आत्मनिर्भर मध्य प्रदेश और आओ बनाए मध्य प्रदेश अभियान से राज्य के विकास को नई ऊंचाइयां देने का दावा किया था.

    अब मोहन यादव के आते ही राज्य में कृष्ण युग शुरू हो गया है. श्री कृष्णपाथेय का विकास सरकार का लक्ष्य बन गया है. विक्रमादित्य का महानाट्य देश के कोने-कोने मंचित कर सुशासन के दर्शन कराए जा रहे हैं. अब वृंदावन गांव बनाए जा रहे हैं. गीता भवन सरकार का लक्ष्य बन गया है. 

    मध्य प्रदेश के साथ सबसे बड़ी समस्या है, सजावटी विकास. विकास के जुमले के मामले में अगर राज्यों में प्रतियोगिता होगी तो मध्य प्रदेश पीछे नहीं रह सकता था.

    महंगी बिजली, परिवहन महंगा तो फिर निवेश लाने के बारे में सोचने से पहले इनको सस्ता करने पर विचार करना पड़ेगा. सरकारी तंत्र में लगभग आधे पद खाली पड़े है. सरकार चल रही है लेकिन विकास का पहिया नवाचार में फंसा हुआ है.

    उत्सव धर्मिता में मध्यप्रदेश आगे बढ़ता जा रहा है. सरकार ही नहीं विपक्ष का राजनीतिक दल भी विकास से ज्यादा राजनीति को प्राथमिकता देते दिखाई पड़ता है. मुख्यमंत्रियों के विधानसभा क्षेत्रों में विकास की कहानी प्रदेश की कहानी से अलग नहीं दिखाई पड़ती.

    विजन और ललक अपने घर से ही शुरू होती है. जब अपने विधानसभा क्षेत्र में ही विकास का मॉडल नहीं बना सके तो राज्य को विकसित बनाने की मंशा भी सपना बनकर ही रह जाती है.

    विकास की प्रतियोगिता में जब सब आगे खड़े हो जाएंगे तो फिर मध्यप्रदेश भी आगे बढ़ेगा ही इसमें कोई संदेह नहीं है. सत्तर वें स्थापना दिवस पर राज्य जैसी समस्याओं से जूझ रहा है, इनमें से बहुत सारी समस्याओं का समाधान तो बहुत पहले हो जाना चाहिए था!