ओलिंपिक की सफलताएं और मोदी की ‘पर्सनल टच’ थेरेपी ! -अजय बोकिल


स्टोरी हाइलाइट्स

जैसी कि इस स्तम्भ में उम्मीद जताई गई थी कि हमारे पैराएथलीट समर ओलिंपिक में एथलीटों के ओलिंपिक में सर्वश्रेष्ठ के रिकॉर्ड .....

ओलिंपिक की सफलताएं और मोदी की ‘पर्सनल टच’ थेरेपी ! अजय बोकिल जैसी कि इस स्तम्भ में उम्मीद जताई गई थी कि हमारे पैराएथलीट समर ओलिंपिक में एथलीटों के ओलिंपिक में सर्वश्रेष्ठ के रिकॉर्ड को पीछे छोड़ सकते हैं, वही हो रहा है। भारतीय पैराएथलीटों ने वह स्वप्निल आंकड़ा छू लिया, जिसकी उम्मीद समर ओलिंपिक में देश ने अपने खिलाडि़यों से की थी। हालांकि दोनो अोलिम्पिक्स की आपसी तुलना सही नहीं है, फिर भी एक स्वस्थ प्रतिस्पर्द्धा के नाते इसे देखें तो यह देश में नए खेल युग के आरंभ का शुभ संकेत है। मैंने पहले भी कहा था कि प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने ओलिंपिक और पैरालिम्पिक पदक विजेताओं और अच्‍छा परफार्म करने वाले खिलाडि़यों के साथ सीधी बातचीत और हौसला अफजाई का जो नया सिलसिला शुरू किया है, उससे भी फर्क पड़ा है। खिलाडि़यों पर भी और प्रशासन पर भी। इसका अर्थ यह नहीं कि खेल में इस अभूतपूर्व उपलब्धि का सारा श्रेय अकेले मोदीजी के खाते में हैं। इसका पहला श्रेय तो स्वयं खिलाडि़यों, उनके प्रशिक्षकों को है। फिर सरकार की सकारात्मक भूमिका को है। खेल प्रगति की इस रफ्तार को गहराई से देखें तो इसके पीछे देश के पांच प्रधानमंत्रियों की मुख्‍य भूमिका है, जिन्होंने एक विजन के साथ अंतरराष्ट्रीय मंच पर भारत को खेल प्रमोटर राष्ट्र के रूप में पहचान दिलाने की कोशिश की। यह काम कोई रातो-रात नहीं हो गया। अभी भी भारत जैसे विशाल देश की खेल उपलब्धि अंतरराष्ट्रीय परिप्रेक्ष्य में बहुत ज्यादा गर्व करने लायक नहीं है। फिर भी यह देश क्रिकेट मेनिया से बाहर निकल कर एथलेटिक्स व अन्य खेलों के महत्व को समझ रहा है, यह अच्छी बात है। इस बार तोक्यो ओलिंपिक में समर ओलिंपिक में भारतीय खिलाडि़यों ने ऐतिहासिक प्रदर्शन कर एक गोल्ड सहित 7 मेडल अपने नाम किए तो टोक्यो पैरालिम्पिक में पैराएथलीट दो गोल्ड सहित 10 मेडल देश के नाम कर चुके हैं। यह संख्या अभी और बढ़ सकती है। बशर्ते कि खेल प्रबंधन और बेहतर तथा प्रोफेशनल हो। अफसरशाही पहले की तुलना में कम हुई है, लेकिन अभी इसे न्यूनतम करने की जरूरत है। साथ ही राज्य सरकारों और कारपोरेट जगत की भागीदारी भी बढ़ानी होगी। यकीनन आजादी के बाद देश के पुननिर्माण के स्वप्न में खेलों के लिए ज्यादा जगह नहीं थी। स्वास्थ्य के लिए खेलना जरूरी है, यह तो मान्य था, लेकिन खेल अपने आप में कॅरियर है, एक संपूर्ण दुनिया है और  ओलिंपिक के पदक किसी राष्ट्र का गौरव वैसा ही बढ़ाते हैं, जैसी किसी युद्ध में निर्णायक जीत बढ़ाती है, इसकी ज्यादा समझ नहीं थीं। देश के कर्णधारों की प्राथमिकताएं भी रोटी, कपड़ा मकान, शिक्षा आदि की थीं। चीन की तरह कोई व्यापक और दीर्घकालीन सुनियोजित कार्यक्रम भी नहीं था। 1900 से लेकर 1972 के 18 ओलिंपिकों में हमने कुल 14 पदक जीते थे, जिनमें 8 तो हॉकी के ही गोल्ड मेडल थे। इनके अलावा हॉकी में दो सिल्वीर व एथलेटिक्स में दो ब्रांज मेडल थे। हालांकि शुरू के कई ओलिंपिक्स में हमने भाग ही नहीं लिया था। भारत के ओलिंपिक पदकों की सही अर्थों में ‍शुरूआत 1928 के ओलिंपिक से होती है। चार ओलिंपिक ऐसे भी रहे, जिनकी पदक तालिका में भारत का नाम ही नहीं था। यानी हमे किसी खेल में कोई मेडल नहीं मिला। यह 1984 से लेकर 1992 तक का दौर था। लेकिन इसी दौर में खेलों की वह पटकथा लिखी जानी शुरू हुई, जिसका परिणाम हम आज देख रहे हैं। 1982 में तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने ‍नई दिल्ली में आयोजित एशियन गेम्स के पूर्व देश में पहली बार केन्द्र सरकार में अलग से खेल मंत्रालय का गठन किया। इसका आरंभिक उद्देश्य एशियन गेम्स का आयोजन था। ‍एशियन गेम्स के सफल आयोजन का श्रेय भारत को ‍िमला। उसी समय देश में ‘भारतीय खेल प्राधिकरण’ (साई) की स्थापना  भी हुई, जिसने खेलों के अकादमिक अध्ययन, अध्यापन और व्यापक प्रशिक्षण का काम शुरू किया। आज साई का बजट 500 करोड़ रू. का है। हालांकि इसके भी पहले देश के प्रथम राष्ट्रीय खेल संस्थान की शुरूआत 1961 में पंडित जवाहरलाल नेहरू के प्रधानमंत्रित्व काल में हो चुकी थी। राजीव गांधी के प्रधानमंत्रित्व काल में इस विभाग का नाम बदल कर युवा मामले एवं खेल मंत्रालय किया गया। लेकिन इस विभाग को स्वतंत्र पहचान मिली पूर्व प्रधानमंत्री अटलबिहारी वाजपेयी के जमाने में। वर्ष 2000 में युवा मामलों को अलग किया गया और स्वतंत्र खेल मंत्रालय का गठन हुआ। इससे देश में खेल गतिविधियों को आगे बढ़ाने में मदद मिली। केन्द्रीय खेल मंत्रालय का बजट अब करीब 3 हजार करोड़ रू. का है। उधर राज्यों में भी स्वतंत्र खेल विभाग बने। बावजूद इसके कि खेल संघों की राजनीति और खेलों में अफसरशाही अभी भी खत्म नहीं हुई है।  समर ओलिंपिक्स को देखें तो वर्ष 1996 के ओलिंपिक से अब तक लगातार हमारे‍ खिलाड़ी कोई न कोई पदक जीतते आ रहे हैं। 2008 के बीजिंग ओलिंपिक से पदकों का आंकड़ा एक से ज्यादा का हुआ। पहली बार भारतीय खिलाडि़यों ने शूटिंग में 1 गोल्ड और बॉक्सिंग व कुश्ती में 1-1 ब्रांज मेडल जीता। वह भारत में खेलो की नई सुबह की शुरूआत थी। हालांकि तत्कालीन प्रधानमंत्री डॉ मनमोहन सिंह को मुख्यत: अर्थवेत्ता के रूप में ही जाना जाता है, लेकिन उन्होंने ही 2007 में ओलिंपिक में भारत के परफार्मेंस को सुधारने के लिए अफसरशाही को कसा। उन्होंने अफसरों और खेल प्रशासकों को युवाओं में ‘खेल जागृति की नई लहर’ पैदा करने के लिए देशव्यापी अभियान चलाने को कहा। साथ ही स्कूल कॉलेजों में खेल विषय अनिवार्य करने के निर्देश दिए। इससे काफी फर्क पड़ा, जिसका नतीजा हमे 2008 और 2012 के ओलिंपिक में दिखा, जब भारत ने 2 सिल्वर तथा चार ब्रांज यानी पहली बार कुल 6 मेडल अपने नाम किए।  मोदी सरकार ने सत्ता में आने के बाद खेलों को व्यवस्थित ढंग से बढ़ावा देने के लिए 2014 में  ‘टॉप्स नीति ( टारगेट ओलिंपिक पोडियम स्कीम यानी ओलिंपिक पोडियम लक्ष्य योजना) लागू की। इसके तहत मेडल जीतने की संभावना वाले खिलाडि़यों को छांटकर उन्हें अंतरराष्ट्रीय स्तर का प्रशिक्षण व अन्य हर तरह की सुविधाएं देना शामिल था। बावजूद इसके 2016 के रियो ओलिंपिक में परिणाम निराशाजनक ही रहे। रियो ओलिंपिक में भारतीय खिलाड़ी महज दो मेडल यानी एक सिल्वर और एक ब्रांज ही ला सके। इस निराशाजनक परिणाम के बाद प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने अगले तीन ओलिंपिक्स को ध्यान में रखते हुए एक टास्क फोर्स बनाया। इसे आगामी ओलिंपिक में मेडल जीतने के काबिल खिलाड़ी तैयार करने का काम सौंपा गया। माना जा रहा है कि टोक्यो समर ओलिंपिक और पैरालिम्पिक में मिली सफलताएं इसी नीति के क्रियान्वयन का परिणाम हैं। हालांकि अभी मंजिल बहुत दूर है। क्योंकि चीन तो दूर हमे ओलिंपिक मेडलो के मामले में कई छोटे देशों से बराबरी  करनी है। पीएम मोदी ने खिलाडि़यों से जो व्यक्तिगत संवाद साधने का सिलसिला शुरू किया है, वह वाकई नई पहल है। खास बात यह है कि वो खेल आयोजन से पहले और बाद भी खिलाडि़यों से उनके परफार्मेंस के बारे मे बात कर रहे हैं। यह खिलाड़ी के मनोबल को बढ़ाने की दृष्टि से महत्वपूर्ण है। इसके पहले प्रधानमंत्री खिलाडि़यों से मिलते तो थे, मेडल जीतने के बाद उन्हे बुलाते भी थे, लेकिन इतना  ‘पर्सनल टच’ शायद ही किसी प्रधानमंत्री ने पहले दिया होगा। पूर्व प्रधानमंत्री डॉ मनमोहन सिंह ने कार्यकाल में दो मौके आए, जब भारत ने ओलिंपिक में अपनी बेहतर सफलता पर गर्व किया। पीएम सिंह उन खिलाडि़यों से उत्साह से मि‍ले। सोनिया गांधी भी मिलीं। विजेता खिलाड़ी तब विपक्ष के वरिष्ठ नेता लालकृष्ण आडवाणी से भी मिले थे। लेकिन ‘पर्सनल टच’ थेरेपी मोदी का नया फंडा है। उन्होंने हर ओलिंपिक खिलाड़ी को पहले जीत की शुभकामनाएं दीं तो पराजय पर बुजुर्ग की तरह सांत्वना भी दी। इससे यह संदेश गया कि हार में भी देश खिलाड़ी के साथ है। हम उसके खेल जज्बे के कायल हैं। खिलाड़ी को हर बार अपेक्षित सफलता मिले, यह जरूरी नहीं है। लेकिन वह पदक पाने के लिए जी जान तो लगा ही सकता है। इस ओलिंपिक में हमे वो कई अवसरों पर दिखा भी। कुछ लोग मोदी के इस पर्सनल टच को ‘स्पोर्ट्स स्टंट’ भी मानते हैं। लेकिन जब एक पीएम सीधे आपका  उत्साह वर्द्धन करता है तो खिलाड़ी के जीत का जुनून अपने आप कई गुना बढ़ जाता है। ये ओलिंपिक इस मायने में भी नई शुरूआत है। इंतजार उस स्वर्णिम घड़ी का है, जब हम पदकों की दौड़ में दुनिया के पहले पांच देशों में होंगे।  अपनी स्वर्ण भस्म से फिर जी उठी है भारतीय हॉकी …! -अजय बोकिल