आईएएस टॉपर की बात भारतीय जीवन-दर्शन के अनुरूप, आज भी कुछ परिवर्तन के साथ प्रासंगिक.. दिनेश मालवीय


स्टोरी हाइलाइट्स

इस साल आईएएस की परीक्षा में देश में दूसरे स्थान पर रहीं भोपाल कि जाग्रति अवस्थी मीडिया की सुर्ख़ियों में बनी हुयी हैं.

आईएएस टॉपर की बात भारतीय जीवन-दर्शन के अनुरूप, आज भी कुछ परिवर्तन के साथ प्रासंगिक.. दिनेश मालवीय इस साल आईएएस की परीक्षा में देश में दूसरे स्थान पर रहीं भोपाल कि जाग्रति अवस्थी मीडिया की सुर्ख़ियों में बनी हुयी हैं. मीडिया के प्रतिनिधि उनसे और उनके परिवार से तमाम तरह के सवाल पूछकर उनके बारे में ज्यादा से ज्यादा जानकारी हासिल कर प्रकाशित और प्रसारित करने के लिए उत्सुक हैं. सफलता का मंत्र पूछे जाने पर जाग्रति ने जो बातें बतायीं, उनमें एक बहुत महत्वपूर्ण बात यह है कि, परीक्षा की तैयारी के दौरान उन्होंने टेलीविज़न और मोबाइल फोन से पूरी तरह परहेज़ किया. इसका मतलब यह है कि, उन्होंने अपनी पढ़ाई पर ही पूरा ध्यान दिया. वह बाहरी प्रभावों से मुक्त रहीं. टेलीविज़न और मोबाइल फोन उन्हें अपनी तैयारी में बाधक लगे. जाग्रति की बात सुनकर भारतीय जीवन-दर्शन में “आश्रम” व्यवस्था का सहज ही ध्यान हो आया. सोचता हूँ कि, जीवन का चार अवस्थाओं में यह विभाजन कितना वैज्ञानिक था. इसे लागू करने वाले ऋषियों की मनोवैज्ञानिक समझ कितनी अधिक रही होगी. आइये, हम सनातन धर्म में आश्रम व्यवस्था को समझने का कुछ प्रयास करते हैं. आजकल के युवा तो आश्रम का मतलब सिर्फ संत-महात्माओं के आश्रम ही समझते हैं. लेकिन जीवन की आश्रम व्यवस्था सम्पूर्ण, स्वस्थ, समृद्ध और सार्थक जीवन जीने का एक बहुत सुविचारित आयोजन था. मनुष्य की आयु सौ वर्ष की मानी गयी थी. इस आयु को पच्चीस-पच्चीस वर्ष की चार अवस्थाओं यानी आश्रमों में विभाजित किया गया था. ब्रह्मचर्यं आश्रम : इस आश्रम में बचपन से ही बच्चे को गुरु के यहाँ भेज दिया जाता था. इसका मकसद उसे बाहरी  संसार के प्रभावों से मुक्त रखकर उसके समग्र व्यक्तित्व का विकास करना था. गुरु के स्थान को गुरुकुल कहते थे,जहाँ बच्चा पच्चीस वर्ष तक रहता था. गुरुकुल में रहते हुए उसे एक परिपूर्ण जीवन का प्रशिक्षण दिया जाता था. उसे अपने काम ख़ुद करने के साथ ही गुरुकुल के अनेक काम भी करने पड़ते थे. इसमें इस बात का भेद नहीं किया जाता था कि, बच्चा बड़े घर का है या गरीब घर का. इससे बच्चों के जीवन में श्रम की गरिमा का संस्कार विकसित होता था. गुरुकुल में बच्चों को कठोर अनुशासन में रहना होता था. समय पर भोजन, समय पर अध्ययन, समय पर खेलकूद, समय पर विहार आदि की व्यवस्था होती थी. इस दौरान सीखा गया अनुशासन जीवन भर उसके काम आता था. इसके अलावा, गुरुकुल में बच्चा दूसरे लोगों के साथ मिलजुल कर और एक-दूसरे की सोच तथा स्वभाव के साथ एडजस्ट करते हुए सह-अस्तित्व के सिद्धांत पर जीना सीखता था. बच्चे को लौकिक जीवनोपयोगी शिक्षा देने के ही उससे आध्यात्मिक शिक्षा, योग, ध्यान, प्राणायाम आदि साधनाएं करवाई जाती थीं. इस पच्चीस साल की अवधि में वह शारीरिक, मानसिक, आध्यात्मिक और भावनात्मक रूप से पूरी तरह परिपक्व हो जाता था. यह हमारी वर्तमान शिक्षा से एकदम अलग है, जो बच्चे का सिर्फ मानसिक विकास करती है. उसके समग्र विकास की ओर ध्यान नहीं दिया जाता. गृहस्थ आश्रम समग्र रूप से विकसित होकर बच्चा पच्चीस साल का होकर अपने घर लौटता था. आजीविका शुरू करने के साथ ही उसका विवाह कर दिया जाता था. उसके व्यक्तित्व में इतनी परिपक्वता आ चुकी होती थी कि, वह कुछ विपरीत स्वभाव और गुणों वाली पत्नी के साथ भी बहुत समझदारी के साथ जीवन निर्वाह करने में सक्षम होता था. पति-पत्नी के कर्तव्य बंटे थे. पति जहाँ परिवार के लिए आजीविका कमाने में अपनी ऊर्जा लगाता था, वहीं पत्नी परिवार का ध्यान रखती थी. बच्चों को माँ का पूरा समय मिलता था. वह परिवार के बुजुर्गों का भी  पूरा ध्यान रखती थी. बच्चों को भी दादा-दादी का प्यार इस तरह मिलता था कि, वे भावनात्मक रूप से कभी कमज़ोर नहीं हो सकते थे. बचपन में माता-पीता और बुजुर्गों के साथ भावनात्मक लगाव के कारण उसका भावनात्मक विकास इतना सशक्त  होता था कि, वह जीवन में कठिन से कठिन परिस्थिति में भी निराश और हताश नहीं होता था. गृहस्थ लोगों के लिए सनातन धर्म में बहुत अच्छे नियम बताये गये हैं. वह सिर्फ अपने परिवार का नहीं, बल्कि समाज के अन्य लोगों और जीवों का ध्यान रखता था, जिनको इसकी ज़रुरत है. गृहस्थ जीवन पचास साल की उम्र तक चलता था. इसमें व्यक्ति सांसारिक सुख-भोगों का भरपूर आनंद लेता था. वानप्रस्थ वैसे तो वानप्रस्थी होने ही आयु पचास वर्ष निर्धारित थी,लेकिन यह भी प्रावधान था कि, यदि व्यक्ति के पुत्र के यहाँ संतानें हो जाएँ या उसके बाल सफेद होने लगें, तो उसे वानप्रस्थी हो जाना चाहिए. वानप्रस्थ होने पर वह घर छोड़कर नहीं जाता था. रहता तो घर में ही था, लेकिन घर के मामलों में अनावश्यक हस्तक्षेप नहीं करता था. अपने बच्चों को उनके ढंग से जीने की स्वतंत्रता देता था. अपने पोते-पोतियों का ध्यान रखता था. कोई भी सलाह बहुत ज़रूरी होने पर या पूछे जाने पर ही देता था. आज की समस्या यह है कि, बूढ़े लोग घर में बहुत दखल देते हैं. वे बेटे-बहू को अपने तरीके से चलाने और घर में अपना प्रभुत्व जमाए रखने की कोशिश करते हैं. इससे परिवार टूट रहे हैं. बुजुर्गों के प्रति बच्चों का सम्मान कम हो रहा है. परिणाम: समाज का पूरा ताना-बाना ही बिखर रहा है. वानप्रस्थ व्यक्ति समाज के हित में भी अनेक कार्य नि:स्वार्थ भाव से करता था. उसके अनुभव का लाभ पूरे समाज को मिलता था. संन्यास पिचहत्तर वर्ष में प्रवेश के साथ ही वह जीवन का सब कुछ पीछे छोड़कर वन का मार्ग लेता था. वहाँ साधु-संतों की सेवा,भजन, योग, ध्यान आदि में मन लगाकर अपने परलोक को सुधारता था. इस आश्रम का उद्देश्य संसार से पूरी तरह विरक्त होकर ईश्वर भक्ति में चित्त को लगाना होता था. वर्तमान में मनुष्य सौ साल नहीं जीता. पहले जैसा प्राकृतिक जीवन भी नहीं रहा कि बड़ी उम्र तक वह पूरी तरह स्वस्थ  रह सके. लेकिन आश्रम व्यवस्था की बहुत सी उपयोगी बातों को अपनाकर अपना और परिवार का जीवन सुखी और सार्थक बनाया जा सकता है. विद्यार्थी पढाई पूरी होने तक अपना पूरा ध्यान पढ़ाई और अपने समग्र विकास में लगाएँ. गृहस्थ पवित्र और धर्माचरण के साथ जीवन बिताये. पचास साल के बाद घर में कम दखल दे और समाज की सेवा में मन लगाए. इसके बाद वह भले ही वन में नहीं जाए और संन्यास नहीं ले, लेकिन अपना पूरा ध्यान जीवन के परम लक्ष्य मोक्ष की प्राप्ति में लगाने की कोशिश करे. प्राचीन व्यवस्था वैसी ही भले ही लागू नहीं की जा सके, लेकिन इससे बहुत कुछ ग्रहण किया जा सकता है. आज भी देश में अनेक गुरुकुल चल रहे हैं.  वे सनातन जीवन-दर्शन का पालन करते हुए ही भविष्य के लिए बेहतर नागरिक तैयार करने का सराहनीय कार्य कर रहे हैं.