युवाओं को गर्व किस बात पर होना चाहिए -दिनेश मालवीय


स्टोरी हाइलाइट्स

कुछ समय पहले एक पुरस्कार समारोह में देश के जानेमाने विद्वानों के बहुत सारगर्भित व्याख्यान सुनने का अवसर आया. एक विद्वान ने बहुत दुखी मन........

युवाओं को गर्व किस बात पर होना चाहिए -दिनेश मालवीय कुछ समय पहले एक पुरस्कार समारोह में देश के जानेमाने विद्वानों के बहुत सारगर्भित व्याख्यान सुनने का अवसर आया. एक विद्वान ने बहुत दुखी मन से एक प्रसंग सुनाया. उन्होंने बताया कि वह एक कॉलेज में लेक्चर देने गये थे. लेक्चर के बाद इंटरैक्टिव सेशन में उन्होंने युवाओं से पूछा कि उन्हें अपने देश पर किस बात के लिए गर्व महसूस होता है? उस समय एक भारतवंशी ने ब्रिटेन की किसी बहुत प्रतिष्ठित कंपनी और उद्योग को टेकओवर किया था. बहुत से युवाओं ने इस बात पर यह कहते हुए गर्व व्यक्त किया कि कभी हम जिस देश के गुलाम थे आज हमारे देशवासी वहाँ बड़ी उपलब्धियां हासिल कर रहे हैं. कुछ युवाओं ने भारत की वर्तमान उपलब्धियों पर बहुत उत्साह के साथ गर्व व्यक्त किया. वह विद्वान कहने लगे कि उन्हें ये बातें सुनकर अच्छा तो लगा, लेकिन मन बहुत अनमना हो गया. उन्हें अपेक्षा थी कि कोई युवक तो यह कहेगा कि हमारे देश में वेद और उपनिषद जैसे ग्रंथों की रचना हुयी. हमारा एकमात्र ऐसा देश है, जिसने हज़ारों साल पहले कहा कि “सम्पूर्ण संसार एक परिवार है”. इसी देश ने पूरी मानवजाति ही नहीं बल्कि जीवमात्र के कल्याण की कल्पना की. इसी देश ने प्रकृति को पूज्य माना और यह व्यवस्था दी कि प्रकृति से इस तरह ग्रहण करो कि हमारी आवश्यकताएं तो पूरी हो जाएँ, लेकिन प्रकृति पर कोई विपरीत प्रभाव नहीं पड़े. इसी देश ने संसार को योग, प्राणायाम और ध्यान सहित अनेक ऎसी विधियों की सौगात दी, जो मनुष्य के सर्वांगीण विकास में बहुत सहायक हैं. वह विद्वान उदासी भरे स्वर में बोले कि किसी युवक ने यह नहीं कहा कि हमारे देश में धार्मिंक-आध्यात्मिक विकास के साथ ही प्राचीनकाल में विज्ञान की भी बहुत उज्जवल परम्परा रही है. गर्व करने की बात तो छोडिये, इसकी बात करने वालों को अतीतजीवी या प्रतिगामी सोच वाला बता दिया जाता है. किसीने भी भौतिकशास्त्र के परम आचार्य कणाद, भारद्वाज के विमानशास्त्र, अगस्त्य के नौका शस्त्र , गणित, खगोल,ज्योतिष,वैदिक गणित,कालगणना,स्थापत्य शास्त्र,रसायन शास्त्र,वनस्पति शस्त्र,कृषि विज्ञान,प्राणिविज्ञान, स्वास्थ्य, चिकित्सा सहित अनेक लौकिक विषयों में प्राचीन भारत की अकल्पनीय उपलब्धियों की बात नहीं की. स्वतंत्र भारत में शिक्षा का जो स्वरूप तैयार किया गया, उसने भी नयी पीढ़ी को प्राचीन भारत की श्रेष्ठता को जानने ही नहीं दिया. यह काम साजिश के तहत किया गया. युवाओं को बताया ही नहीं गया कि हमारे प्राचीन ऋषि सिर्फ योग-ध्यान ही नहीं थे, वे वैज्ञानिक थे. वे आबादी से दूर अपने आश्रमों में रहकर अनेक क्षेत्रों में वैज्ञानिक शोध करते थे और अपने शिष्यों को भी इसे सिखाते थे. उन्हें दो-चार ऋषियों के नाम भर मालूम हैं, लेकिन शौनक, चाक्रायण,धुन्डीनाथ, नन्दीश, दीर्घतमस आदि जैसे ऋषियों के नाम भी नहीं पता. इन महापुरुषों ने किस क्षेत्र में क्या उपलब्धियां प्राप्त कीं, उनकी तो बात ही छोडिये. वशिष्ठ, अत्रि, अगस्त्य, द्रोण, परशुराम, शौनक, शुक्र, नारद आदि जैसे जिन ऋषियों के नाम उन्होंने सुने भी हैं, तो उन्हें यह नहीं पता कि इन लोगों ने ज्ञान-विज्ञान के क्षेत्र में क्या असाधारण काम किये हैं. आज के युवाओं को भृगु द्वारा उल्लेखित दस शास्त्रों के बारे में कोई जानकारी नहीं है. इनमें कृषि शास्त्र, जल शास्त्र, खनि शास्त्र, नौका शास्त्र, रथ शास्त्र, आग्नेय शास्त्र, वेश्म शास्त्र, प्राकार शास्त्र, नगर रचना और यंत्र शास्त्र शामिल हैं. इतना ही नहीं उन्हें 32 प्रकार की विद्याओं और 64 प्रकार की कलाओं के बारे में बस इतना ही पता होगा कि ये हैं. इसका सबसे बड़ा कारण वह हमारे मानस में गहराई से घर कर गयी आत्महीनता का भाव है, जो लम्बे समय तक पराधीनता से उपजी है. हम केवल राजनैतिक रूप से पराधीन नहीं हुए, मानसिक और आत्मिक रूप से भी भयानक हीनभावना के शिकार हो गये. ब्रिटिश शासनकाल में तो इतने सुनियोजित ढंग से हमारे भीतर आत्महीनता को बढ़ा दिया गया कि हम पानी हर चीज को पश्चिमी आँखों से देखने लगे. यह प्रवृत्ति देश की आज़ादी के बाद भी जारी रही. क्या यह सब एक संयोग मात्र है? जी नहीं, यह संयोग नहीं है. इस उदार और सहिष्णु देश के खिलाफ यह एक बहुत बड़ा षड्यंत्र हुआ. स्वामी विवेकानद, स्वामी दयानंद सरस्वती, महर्षि अरविन्द और कुछ अन्य महापुरुषों और विद्वानों ने भारत के लोगों से आत्महीनता को दूर करने और युवाओं को भारत के गौरवशाली अतीत से अवगत कराने के लिए जी-तोड़ मेहनत की. इसके बहुत सुखद परिणाम भी मिले, लेकिन दुर्भाग्य से पराधीनता से मुक्त होकर भारत में शिक्षा प्रणाली की नींव में ही कुछ ऐसी ख़ामी रही कि हम फिर उसी पुरानी आत्महीनता की स्थिति में पहुँच गये. उस संस्थान में युवाओं की बात से उपरोक्त विद्वान का उदास और अनमना होना बहुत स्वाभाविक था. लेकिन इसका समाधान अभी तक नहीं खोजा जा सका है. आज ज़रूरत इस बात की है कि युवाओं को इस तरह शिक्षित किया जाए कि वे वर्तमान आधुनिक उपलब्धियों पर गर्व के साथ ही अपने अतीत और अपने पूर्वजों की उन उपलब्धियों को भी जानें जिन्होंने पूरे संसार को नयी दिशा दी.