मंदिर और तीर्थ इतने पवित्र क्यों माने जाते हैं?


स्टोरी हाइलाइट्स

मंदिर और तीर्थ आदि इतने पवित्र क्यों माने जाते हैं? यह सदैव स्मरण रखना चाहिए कि साधु व्यक्तियों के समागम के ऊपर ही उस स्थान की पवित्रता निर्भर रहती है किंतु सारी गड़बड़ी तो यही है कि मनुष्य उसका मूल उद्देश्य भूल जाता है और भूलकर गाड़ी को बैल के आगे जोतना चाहता है। पहले मनुष्य ही उस स्थान को पवित्र बनाते हैं उसके बाद उस स्थान की पवित्रता स्वयं कारण बन जाती है और मनुष्य को पवित्र बनाती रहती है। यदि उस स्थान में सदा और असाधु व्यक्तियों का ही आवागमन रहे तो वह स्थान अन्य स्थानों के समान ही अपवित्र बन जाएगा। इमारत के गुण से नहीं बल्कि मनुष्य के गुण से ही मंदिर पवित्र माना जाता है पर, इसी को हम सदा भूल जाते हैं। इसलिए अधिक सत्वगुणसंपन्न साधु-संत चारों ओर यह सत्य गुण बिखेरते हुए अपने परिवेश पर रात दिन प्रबल प्रभाव डाल सकते हैं। मनुष्य यहाँ तक पवित्र हो सकता है कि उसकी वह पवित्रता मानो बिल्कुल मूर्त हो जाती है और जो कोई व्यक्ति उस साधु पुरुष के संस्पर्श में आता है वही पवित्र हो जाता है। अब देंखें चिन्हमात्र का अर्थ क्या है?चिन्ह मात्र कहने से बुद्धि महतत्त्व का बोध होता है। वह प्रकृति की पहली अभिव्यक्ति है। उसी से दूसरी सब वस्तुएँ अभिव्यक्त हुई है। गुणों की अंतिम अवस्था का नाम है,अलिंग या चिन्ह-शून्य। यहीं पर आधुनिक विज्ञान और समस्त धर्मों में एक भारी अंतर देखा जाता है। प्रत्येक धर्म में यह एक साधारण सत्य देखने में आता है कि यह जगह चैतन्य शक्ति से उत्पन्न हुआ है। ईश्वर हमारे समान कोई व्यक्ति विशेष है या नहीं,यह विचार छोड़कर केवल मनोविज्ञान की दृष्टि से ईश्वरवाद का तात्पर्य यह है कि चैतन्य की सृष्टि की आदि वस्तु है उसी से स्थूल भूत का प्रकाश हुआ है|किंतु आधुनिक दार्शनिकगण कहते हैं कि— चैतन्य सृष्टि की आखिरी वस्तु है। अर्थात उनका मत यह है कि— अचेतन जड़ वस्तुएँ धीरे-धीरे प्राणी के रूप में परिणत हुई है यह प्राणी क्रमशः ऊन्नत होते-होते मनुष्य रूप धारण करते हैं। वह कहते हैं "यह बात नहीं है कि जगत की सब वस्तुएँ चैतन्य से प्रसूत हुई है बल्कि चैतन्य ही सृष्टि की आखिरी वस्तु है।" स्वामी विवेकानंद