योग वासिष्ठ के अनुसार ज्ञान की सात भूमिकाएं -दिनेश मालवीय


स्टोरी हाइलाइट्स

योग वासिष्ठ के अनुसार ज्ञान की सात भूमिकाएं -भारत के जीवन-दर्शन में आत्म स्वरूप के अनुभव को ही ज्ञान कहा गया है. यह शाब्दिक और बौद्धिक......

योग वासिष्ठ के अनुसार ज्ञान की सात भूमिकाएं -दिनेश मालवीय भारत के जीवन-दर्शन में आत्म स्वरूप के अनुभव को ही ज्ञान कहा गया है. यह शाब्दिक और बौद्धिक विलास का विषय न होकर अनुभव का विषय है. दूसरे शब्दों में कहें तो आत्मज्ञान ही वास्तविक  ज्ञान है. इस सम्बन्ध में “योग वासिष्ठ: में महर्षि वशिष्ठ ने भगवान राम को जो बताया वह ज्ञान की जिज्ञासा रखने वालों के लिए बहुत महत्वपूर्ण है. महर्षि वशिष्ठ कहते हैं कि है राम! ज्ञान-आत्मज्ञान ही मोक्ष प्राप्ति का एक मात्र उपाय है. वह ज्ञान केवल वाचिक नहीं है और न वह तर्क का विषय है. वह आत्मा का अनुभव है. लिहाजा, बिना अभ्यास के अपने वास्तविक स्वरूप का ज्ञान होना संभव नहीं है. इसके अलावा, यह ज्ञान एक ही जन्म में नहीं होता. मनुष्य को जन्म-जन्म तक इसके लिए अभ्यास करना होता है. जिसमें अधिक लगन होती है और जो पूरी शक्ति से प्रयास करता है उसे ज्ञान लाभ शीघ्र हो जाता है. जो लोग ढीले-ढाले चलने वाले होते हैं, उन्हें इसका  अनुभव करने में बहुत समय लगता है. जिस समय बहुत तीव्र वैराग्य और मुक्ति की तीव्र इच्छा होती है, तो यह अनुभव होते देर नहीं लगती. वसिष्ठजी कहते हैं कि इस मार्ग पर क्रमिक अवस्थाएँ आती हैं, जिन्हें ज्ञान की भूमिकाएँ कहा जाता है. ये भूमिकाएं सात हैं. इन्हें समझकर व्यक्ति मोह के दलदल में नहीं फँसता. ये भूमिकाएँ हैं- 1. शुभेक्षा 2. विचारणा 3. तनुमानसा 4. सत्वापत्ति 5. असंसक्ति 6. पदार्थाभावनी 7. तुर्यगा. इन सात भूमिकाओं के अंत में मुक्ति है, जिसे प्राप्त करने पर शोक नहीं रहता. शुभेक्षा- इस भूमिका में मनुष्य में वैराग्य उत्पन्न होता है. वह सोचने लगता है कि मैं अज्ञानी क्यों रहूँ? सज्जनों और शास्त्रों की सहायता से मैं सत्य को क्यों ना जानूं? ऐसा विवेक अनेक जन्मों के बाद उत्पन्न होता है. मनुष्य को लगता है कि यह संसार व्यर्थ है. ऐसा विचार होने पर उसमें वैराग्य उत्पन्न होता है. उसे विषय-वासनाओं से विरक्ति होने लगती है. वह दूसरों के उपकार की तरफ भी बढ़ता है. वह किसी का दिल नहीं दुखाता, अच्छे काम करता है और कभी ऐसा कुछ नहीं करता या कहता जिससे किसीका मन उद्विग्न या व्याकुल हो. उसे पाप करने से डर लगने लगता है. वह सबसे अच्छा बोलता है. पूरी निष्ठा से सज्जनों की सेवा करता है. साथ ही सदग्रंथों का अध्ययन करता है. विचारणा- इस अवस्था में व्यक्ति ऐसे ज्ञानवान लोगों की शरण में जाता है,जिन्हें वेद ,स्मृति आदि ग्रंथों का अच्छा अध्ययन होता है और दो सदाचारी और ध्यान आदि आध्यात्मिक साधनाएँ करते हैं. वह उन लोगों से जिज्ञासा कर उनकी वाणी को पूरे मनोयोग से सुनता है. इसके फलस्वरूप वह मद, अभिमान, मोह, ईर्ष्या, लोभ आदि को धीरे-धीरे ऐसे छोड़ता है, जैसे सांप अपनी केंचुली को त्यागता है. तनुमानसा- इस भूमिका में व्यक्ति शास्त्रों के वाक्यों में अपनी बुद्धि को स्थापित करके तपोवन का आश्रय लेता है. वहाँ तपस्वियों के आश्रम पर आध्यात्मिक उपदेश सुनकर, साधना करते हुए संसार का संसार की असारता का भाव बढाने वाले विचारों के साथ समय बिताता है. सत्वापत्ति- उपरोक्त तीन भूमिकाओं के अभ्यास से अज्ञान क्षीण हो जाने पर और सद्ज्ञान उदय हो जाने पर व्यक्ति इस चौथी अवस्था में जाता है. इसमें वह सभी वस्तुओं को एक अनंत, अखंड और समरूप देखता है. द्वैत का भाव चला जाता है और अद्वैत का भाव दृढ़ हो जाता है. इस भूमिका में व्यक्ति संसार में हर जगह समानता के दर्शन करता है. असंसक्ति- इस भूमिका में पहुंचकर योगी का अनुभव सत्य मात्र का रह जाता है. उसके भीतर से सभी विशेष-भेद क्षीण हो जाते हैं. वह बाहरी जगत के काम करता हुआ भी अपनी अंतर्मुखी वृत्ति के कारण सुषुप्ति में मग्न रहता है. इन भूमिका का अभ्यासी वासनारहित होकर अपनी परम सत्ता के कारण नींद में खोया हुआ-सा दिखाई देता है. पदार्थभावनी-इस तरह अभ्यास करता हुआ योगी को न “सत” का अनुभव होता है और न “असत” का. उसमें न”अहं” रहता है और न” अनहंकार”है. इस अवस्था में पहुंचा हुआ व्यक्ति भावनारहित, द्वैत से मुक्त , क्षीण मन वाला होता है. उसके सभी संदेह शांत हो जाते हैं और उसके मन की सभी गांठें खुल जाती हैं. निर्वाण में प्रवेश न करके भी उसके लिए यह अवस्था निर्वाण जैसी ही होती है. उसके भीतर और बाहर शून्य के सिवा कुछ नहीं होता. तुर्यगा- इस अवस्था में योग की भूमिका विदेहमुक्ति कहलाती है. यह शांत अवस्था सब भूमिकाओं की अंतिम सीमा है. इसका वर्णन वाणी से नहीं किया जा सकता.   . इस सभी भूमिकाओं से गुजरकर व्यक्ति आत्मज्ञान और मोक्ष को प्राप्त होता है.