गोंडवाना का प्राचीन इतिहास : एक ऐसी जनजाति, जिसने अनेक ऐतिहासिक दौर देखे

स्टोरी हाइलाइट्स
गोंडवाना का इतिहास:यह एक ऐसी जनजाति है, जिसने अनेक ऐतिहासिक दौर देखे हैं। भारत के विशालतम क्षेत्र में...:गोंडवाना का प्राचीन इतिहास
गोंडवाना का प्राचीन इतिहास : एक ऐसी जनजाति, जिसने अनेक ऐतिहासिक दौर देखे,गोंडवाना का इतिहास
गोंडवाना का प्राचीन इतिहास
यह एक ऐसी जनजाति है, जिसने अनेक ऐतिहासिक दौर देखे हैं। भारत के विशालतम क्षेत्र में निवास करने वाली यह जनजाति जनसंख्या की दृष्टि से सबसे बड़ी जनजाति हैं, जिसकी अनुमानित जनसंख्या लगभग एक करोड़ बीस लाख है। प्राचीन काल में इस जनप्रदेश में अनेक हिन्दू राजवंशों ने शासन किया था। प्राचीन भारत में इस सम्पूर्ण क्षेत्र का नाम दक्षिण कोसल था, जिसमें महाकान्तर तथा बस्तर एवं कोरापुट को मिलाकर निर्मित होने वाला क्षेत्र दण्डकारण्य भी सम्मिलित थे। विन्ध्याचल तथा सतपुड़ा के दक्षिण से गोदावरी नदी के तट का क्षेत्र जिसे मध्यकाल में गोंडवाना नाम से जाना जाता था, उसमें प्राचीन काल में जो जनपद सम्मिलित थे, वे थे- मलय, करूष (बघेलखण्ड), मेकल, उत्कल, दसरना (घासन), किसकिन्धा (यह दक्षिण भारत के किसकिन्धा से भिन्न है), तोसल (उड़ीसा स्थित शिशुपाल गढ़), कोसल (दक्षिण कोसल, रायपुर-बिलासपुर), त्रिपुरा (त्रिपुरी, जबलपुर के समीप), विदिशा, नौसाध (नरवरगढ़), विहिहोत्र, अनुपा (ओंकार मन्धाता नर्मदा का तटीय क्षेत्र) और तुमेन-तुमबुरू, मसिया। वायुपुराण में यह उल्लेख मिलता है कि राम की मृत्यु के पश्चात् कोसल राज्य को दो भागों में विभक्त कर दिया गया था और उनका बड़ा पुत्र कुश दक्षिण कोसल का शासक बना, जिसकी राजधानी कुशावती या कुसस्थली थी। महाभारत में उत्तर कोशल तथा दक्षिण कोशल के नामों का उल्लेख मिलता है।
बालाघाट के नरेंद्र सिंह द्वितीय के उत्कीर्ण शिलालेख में कोसल एवं मेकल अधिपति का उल्लेख किया गया है। वाकाटक की वासिम शाखा के राजा हरिसेन ने कुन्तला, अवन्ती, लता, कोसल, कलिंग और आन्ध्र पर विजय प्राप्त की थी। कोसल (प्रमुख रूप से गोंडवाना) पर वाकाटकों का आधिपत्य छठवीं शताब्दी के प्रथम एक चौथाई काल तक बना रहा। विमलचरण लाहा के मतानुसार मध्यप्रदेश का कोसल जनपद ( गोंडवाना) दक्षिण जनपद में स्थित था। इलाहाबाद के समुद्रगुप्त प्रशस्ति उत्कीर्ण लेख में दक्षिण कोसल का उल्लेख इस रूप में किया गया है कि यह क्षेत्र नरेश महेन्द्र द्वारा शासित था, जिसे गुप्त सम्राट समुद्रगुप्त ने पराजित कर दिया था। महाकोसल का उल्लेख युवानच्वांग ने भी अपनी यात्रा विवरण में किया है जो इस प्रकार है- दक्षिण कोसल क्षेत्र संपूर्ण उत्तर महानदी घाटी और उसकी सहायक नदियों नर्मदा के उदगम स्थल जो महानदी के उत्तर में स्थित है, दक्षिण में बैनगंगा (पेनगंगा अर्थात् देवताओं की नदी) पश्चिम में हसदो तथा पूर्व में जोंक नदियों के मध्य स्थित है। राय चौधरी के मतानुसार यह क्षेत्र वर्तमान बिलासपुर, रायपुर और संबलपुर जिलों को मिलकर बनता है और कुछ सीमा तक गंजाम भी इसमें सम्मिलित था इसकी राजधानी सिरपुर थी। दक्षिण कोसल महाकोसल भी कहलाता था। अतः गोंडवाना में महाकोसल (दक्षिण कोसल सहित), विन्ध्य प्रदेश तथा मध्यभारत का कुछ भाग एवं दक्षिण में तेलंगाना का गोदावरी के उत्तरी तटीय भाग सम्मिलित थे | प्राचीन हिन्दू जिन राजवंशों ने गोंडवाना या उसके किसी भाग पर शासन किया उनका संक्षेप में उल्लेख इस प्रकार किया जा सकता है-
चेदि वंश: महाभारत काल में इस राजवंश ने दक्षिण कोसल पर शासन किया, था। इस राजवंश के अन्तिम शासक नगनजीत सिंह थे, जो पाण्डवों की ओर से महाभारत युद्ध में सम्मिलित हुए थे।
सातवाहन वंश: सातवाहन राजवंश का इस क्षेत्र पर शासन सन् 106 ईस्वी में स्थापित हुआ था। उन्हें विन्ध्यपति भी कहा जाता है। इस क्षेत्र में मध्य एवं पूर्वी विन्ध्य तथा सतपुड़ा सम्मिलित हैं। इनके राज्य की सीमा महेन्द्र पर्वत तक थी, जिससे यह सिद्ध हो जाता है कि सम्पूर्ण दक्षिण कोसल सातवाहन साम्राज्य में शामिल था।
मेघवंशः इस वंश ने ईसा की तीसरी शताब्दी में कोसल पर शासन किया था। वायु पुराण में इस राजवंश में दस शासक हुए. ऐसा उल्लेख मिलता है, परन्तु उनके विषय में और अधिक जानकारी उपलब्ध नहीं है।
गुप्त वंश: तीसरी तथा चौथी शताब्दी के पूर्वार्ध में गुप्त वंश ने दक्षिण कोसल पर शासन किया। इलाहाबाद के प्रशस्ति पर उत्कीर्ण लेख से यह ज्ञात हुआ है। इस स्तम पर समुद्रगुप्त की विस्तृत प्रशस्ति उत्कीर्ण की गई है, जिससे ज्ञात होता है उसने कोसल के शासक महेन्द्र को, महाकान्तर के शासक व्याघ्रराज को तथा कोसल के शासक मंतराज को पराजित किया था।
नल वंश: नलवंशी राजवंश ने चौथी-पाँचवी शताब्दी में वस्त्र तथा कोरापुट (उड़ीसा) पर शासन स्थापित किया। नलवंश की वंशावली व्याघ्रराज (400-440) ईस्वी से प्रारंभ होती है, जिसके अन्तिम शासक भीमसेन देव (900-925 ई) थे। नलवंश के अधीनस्थ क्षेत्र को पश्चिम में वैनगंगा से दक्षिण में इन्द्रावती नदी तक और पूर्वी घाट से मैकल पर्वत तक मानते हैं।
वाकाटक: चौथी शताब्दी में वाकाटक शासक एक शक्तिशाली राज्य के रूप में उभरे थे। नल शासक भवदत्त ने उन्हें पराजित किया था और उन्हें उनकी नन्दीवर्धन राजधानी का परित्याग करने पर विवश कर दिया था।
चालुक्य वंश: इस राजवंश ने नलवंश के शासक कीर्तिवर्मन को पराजित कर छठवीं शताब्दी में इस क्षेत्र में अपना आधिपत्य स्थापित किया नल शासक ने चालुक्य शासक पुलकेशिन द्वितीय (610-642 ई.) के समक्ष आत्मसमर्पण कर दिया।
राजऋषितुल्यकुल : इस राजवंश की स्थापना महाराज सूरा ने सन् 501-02 ई. में की थी| इस राजवंश की पांचवीं पीढ़ी में महाराजा भीमसेन द्वितीय (601-02 ई.) की जानकारी मिलती है।
पर्वत द्वारका: इस राजवंश का उल्लेख दे-भोग (रायपुर जिले में स्थित देवभोग) से प्राप्त ताम्रपत्र से ज्ञात हुआ है, जिसमें शासक सोभनराज का उल्लेख किया गया है। उदन्ती नदी के ऊपरी भाग में इनकी राजधानी रही होगी, जहाँ ईटों से निर्मित प्राचीन मन्दिर एवं किले के अवशेष स्थित हैं। इनकी अधिष्ठात्री देवी का नाम स्तंभेश्वरी था, जिसके आधार पर ही संभवतः इस राजवंश ने अपना नाम पर्वत द्वारका रख लिया था। इस राजवंश के कुछ शासकों के जो नाम उपलब्ध हुए हैं उनके कौस्तुभेश्वरी (राजमाता), सोभनराज, महाराज तुष्टिकर तथा नन्दराज देवा के नामों का उल्लेख उनके द्वारा जारी किये गये दान-ताम्रपात्रों से ज्ञात हुए हैं।
शरभपुरिया: पाँचवी शताब्दी ईस्वी के अन्तिम वर्षों में शरभ नाम के एक प्रतापी शासक ने दक्षिण कोसल के पूर्वी क्षेत्र में एक राजवंश की स्थापना की थी उसके नाम के आधार पर ही इस राजवंश का नामकरण हुआ। उसने अपने समकालीन तथा पड़ोसी राजवंश राजऋषितुल्य तथा पर्वत द्वारका का अंत कर दिया और अपना राज्य स्थापित करने में सफल रहा। डी.सी. सरकार के मतानुसार शरभ राजा द्वारा इस राजवंश की स्थापना सन् 495 में हुई और उसने 570 ई. तक शासन किया।
पाण्डुवंशी राजवंश : इस राजवंश की वंशावली का उल्लेख सिरपुर (रायपुर जिले में स्थित) के गंधेश्वर मंदिर से प्राप्त शिलालेख में किया गया है, जिसमें इस राजवंश के संस्थापक उदयन का उल्लेख हुआ है। उसका शासन काल 485-510 ई. माना जाता है। इस राजवंश का अन्तिम शासक शिवनन्दी था। दक्षिण कोसल में इस राजवंश के शासन का सातवीं शताब्दी में अन्त हो गया|
सोमवंश : इस राजवंश की स्थापना श्रीशिवगुप्त ने सन् 910 ई. में की थी। इस वंश का शासन काल सन् 1118 ईस्वी तक कायम रहा। इस राजवंश का अन्तिम शासक महाशिवगुप्त कर्णदेव था।
परवर्ती राजवंश: (क) छिंदक नाग : बस्तर जिले से नाग शासकों के जो शिलालेख प्राप्त हुए हैं वे छिंदक नागवंश के हैं, जिन्होंने ग्यारहवीं शताब्दी ई. में बस्तर के चक्रकोट पर राज किया था। ये नागवंशी कश्यप गोत्रीय थे और स्वय को भोगवती का स्वामी कहते थे। भोगवती नाम के किसी भी स्थान की पहचान आज तक नहीं हो सकी है। भोगवती एक मिथकीय नाम है, जो रसातल की राजधानी थी| बारसूर से प्राप्त तेलुगु चोलवंश के शिलालेख में जो सन् 1060 ई. में उसके महामण्डलेश्वर द्वारा जारी किया गया था. में नागराजा छिंदक महाराजा धारावर्ष के नाम का उल्लेख किया गया है। नारायणपाल से प्राप्त शिलालेख के अनुसार सन् 1111 ईस्वी में कन्हर जो सोमेश्वर प्रथम का पुत्र तथा गुण्ड महादेवी (सोमेश्वर प्रथम की माता) का पौत्र था, वह गद्दी पर बैठा। सोमेश्वर के पश्चात् छिंदक नागों का प्रभाव क्षीण हो गया था, परन्तु इस वंश की एक शाखा चौदहवीं शताब्दी तक बस्तर-कोरापुट पर शासन करती रही। पुरातात्विक साक्ष्यों के अनुसार राजा हरिश्चन्द्र चक्रकोट का अन्तिम शासक था, जैसाकि कैमरा से प्राप्त शिलालेख (जारी 1324) से ज्ञात होता है ।
(ख) तेलुगु चोल राजवंश : तेलुगु चोड उत्तरकालीन चालुक्यों के उपराज्यपाल (लेफ्टीनेट) थे। यमराज देव पेमी संभवतः चालुक्य शासक सोमेश्वर प्रथम (1043-1068 ई) के साथ चक्रकोट गया था और चक्रकोट के राजा को परास्त कर बस्तर स्थित चक्रकोट को अपने अधीन कर लिया था। उसने यहाँ तेलुगु राजवंश की स्थापना की थी तेलुगु चोल वंश का शासन है पीढ़ियों तक चला, जिसका अन्तिम शासक सोमेश्वर देव तृतीय था।
(ग) कल्चुरि राजवंश: प्राचीन काल में कल्चुरि राजवंश एक प्रतापी राजवंश था, जिसकी राजधानी जबलपुर के समीप त्रिपुरी में स्थित थी। इस राजवंश की एक शाखा ने रतनपुर में अपनी राजधानी स्थापित की, जिसकी स्थापना कोकल्लदेव प्रथम ने की थी। रतनपुर में राजधानी स्थापित करने के इनकी राजधानी तुम्मान में थी, जिसे रतनदेव प्रथम ने स्थानान्तरित किया और इस स्थान का नामकरण उसके नाम पर ही रतनपुर पड़ा। रतनदेव का उत्तराधिकारी उसका पुत्र पृथ्वीदेव प्रथम हुआ, जिसके ताम्र पत्र (1069 ईस्वी) रतनपुर से ही जारी हुए थे। सन् 1742 ईस्वी में नागपुर के भोसला मराठा आक्रमण के साथ कल्चुरि शासन का अन्त हो गया| सात शताब्दियों से भी अधिक समय तक छत्तीसगढ़ पर कल्चुरि राजवंश ने शासन किया। इस राजवंश के शासन काल में ही चार प्रमुख गोंड राजवंशों का उदय हुआ। इन राजवंशों के अधीन अनेक सामन्त एवं जमींदार थे, जो स्वयं को राजा कहते थे। इन गोंड राजवंशों के साथ कल्चुरियो का
सम्बन्ध सौहार्दपूर्ण बना रहा।
इन हिन्दू राजवंशों के काल में अनेक भव्य प्रासादों, मन्दिरों तथा सरोवरों का निर्माण हुआ। स्थानीय गोंड तथा अन्य जनजातियों प्रजा के रूप में ही बनी रहीं। मन्दिरों में हिन्दू, शैव, जैन तथा बौद्ध विहार सभी सम्मिलित थे ।
समग्र गोंड जनजाति
"संदर्भ छत्तीसगढ़" में डॉ. एल.एस. निगम के आलेख के आधार पर साभार |
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