बापू के बेचारे बंदर- दिनेश मालवीय


स्टोरी हाइलाइट्स

बहुत दिनों बाद मै दो महीने पहले अपने गृह-कस्बे में अपने घर गया था. वरांडे में बैठा था. अचानक मेरी नज़र सामने सड़क के पर.....

बापू के बेचारे बंदर  .दिनेश मालवीय बहुत दिनों बाद मै दो महीने पहले अपने गृह-कस्बे में अपने घर गया था. वरांडे में बैठा था. अचानक मेरी नज़र सामने सड़क के पर स्थित मंदिर की छत पर गयी. कुछ वर्ष पहले इस छोटी-सी मढिया को बड़े मंदिर का आकार दिया गया था. मंदिर की छत के सामने वाले किनारे पर एक गांधीवादी बुजुर्ग के सुझाव पर तीन बंदरों की सीमेन्ट की मूर्तियाँ बनवाई गयी थीं. एक बंदर मुँह पर दोनों हाथ रखे था, जिसका ध्वनित अर्थ था कि बुरा मत कहो. दूसरा कानों पर हाथ रखे था, यानी बुरा मत सुनो, तीसरा बंदर आँखों पर हाथ रखे था, यानी बुरा मत देखो". मैंने कहा, इन्हें तो गांधीजी, यानी बापू के तीन बंदर कहा जाता है. बुजुर्ग ने यह बहुत अच्छा काम करवया. मुझे वे बंदर दिखाई नहीं दिये. वहाँ एक कोचिंग संचालक ने बड़ा प्रचार बोर्ड लगा दिया है, जिसके पीछे वे बंदर छुप गये हैं. मैं उस कोचिंग संचालक के पास गया. मैंने कहा. जीवन का सुंदर संदेश देने वाले इन बंदरों के सामने से आप अपना बोर्ड हटवा दें, ताकि आते-जाते लोगों की नजर फिर से उन पर पड़ने लगे. कोचिंग संचालक ने मुझे ऐसे देखा जैसे मै किसी अन्य लोक का प्राणी हूँ. बहरहाल, मेरे आग्रह पर उसने बोर्ड को इस तरह एक तरफ करने का आश्वासन दिया कि उसके प्रचार पर विपरीत असर नहीं पड़े. कुछ दिनों पहले मई वहाँ फिर गया तो देखा कि बोर्ड बाकायदा वैसा ही लगा है. मै कुछ खीझकर कोचिंग संचालक के पास गया. मैंने कहा कि आपने आपने वचन का पालन नहीं किया. वह बोला कि मैंने बोर्ड को एक तरफ करवाया था, लेकिन इससे वह आते-जाते लोगों को ठीक से दिख नहीं रहा था, लिहाजा मैंने उसे फिर बंदरों के सामने लगवा दिया. मैंने कहा कि आपका प्रचार बोर्ड ज्यादा महत्वपूर्ण है या बापू के संदेश का प्रचार? वह कुछ सोचकर बोला कि बापू के संदेश से ज्यादा बच्चों के भविष्य की चिंता करना ज़रूरी है. आप इस चक्कर में न पड़ें. आप अपना जीवन जी लिये. आपके दौर की ज़रुरत अलग थी और आज की ज़रूरत अलग. ऐसा कह कर वह अपने काम में ऐसे लग गया जैसे मै वहाँ था ही नहीं. वह कोचिंग क्लास मंदिर की छत पर ही लगती है. मैं मंदिर के ट्रस्टियों के पास गया और उनसे आग्रह किया कि वे दखल देकर बोर्ड को साइड में करवा दें, जिससे बापू के बंदर फिर से दिखने लगें. उन्होंने मेरी बात को बहुत गंभीरता से सुनकर सहमति में सर हिलाते हुए कहा कि हम हटवा देंगे." मैं ख़ुशी-ख़ुशी अपने घर वापस लौट आया. आज मेरे गृह-कस्बे से मेरा भतीजा आया. मैंने उससे पूछा कि बंदरों के सामने से कोचिंग का बोर्ड हटा कि नहीं?". वह बोला, "ट्रस्टियों ने कोचिंग संचालक से बोर्ड हटाने को कहा तो उसने कहा कि वह भवन खाली कर देगा. ट्रस्टी चुपचाप वापस आ गये, आखिर हर महीने मोटी रकम किराए में मिलती है". यह सुनकर मैं तभी से दुखी हूँ. मेरे मुँह से बार बार यही निकल रहा है- बापू के बेचारे बंदर".