सुप्रीम कोर्ट ने अपने हिस्टोरिक जजमेंट में कहा कि आरक्षण का लाभ लेने के लिए मतांतरण करना संविधान के साथ धोखाधड़ी है. साथ ही यह आरक्षण के मूल उद्देश्य के विरुद्ध होगा. कोर्ट ने यह फैसला ईसाई बन चुकी एक महिला की याचिका पर सुनाया. इस महिला ने ईसाई धर्म अपना लिया था. लेकिन बाद में उसने नौकरी पाने के लिए हिंदू होने का दावा किया और एससी का प्रमाण पत्र देने की मांग की..!!
आरक्षण के साथ धोखाधड़ी आम समस्या बन गई है. फर्जी जाति प्रमाण पत्र, मतांतरण कर आरक्षित जातियों का प्रमाण पत्र हासिल करने का संघर्ष सतत चलता रहता है. शासकीय सेवाओं में फर्जी जाति प्रमाण पत्र के आधार पर आरक्षण का लाभ लेने वालों की लंबी फेहरिस्त है. राज्य सरकारें जांच कमेटियां जरूर बनाती हैं, लेकिन सबकुछ प्रक्रिया की जटिलता के कारण उलझा रहता है.
आरक्षण नीति का मूल उद्देश्य यही है, कि वंचित समूहों के साथ किए गए ऐतिहासिक अन्याय को दूर कर समानता का अवसर दिया जाए. आरक्षण राजनीति का सबसे बड़ा हथियार बन गया है. आरक्षण बढ़ाने के लिए सभी दल वायदे करते हैं लेकिन आरक्षण की नीति किस सीमा तक अपना टारगेट हासिल कर सकी है, इसकी समीक्षा का कोई भी साहस नहीं जुटा पाता.
जब भी कोई आरक्षण की समीक्षा की सैद्धांतिक बात करता है, तो उसका विरोध शुरू हो जाता है. यहां तक कि आरक्षण खत्म करने का डर दिखाकर जनादेश को मोड़ दिया जाता है. जातिगत जनगणना की मांग का विस्फोट आरक्षण के हथियार का ही सियासी उपयोग कहा जा सकता है.
सुप्रीम कोर्ट की नजर संविधान की रक्षा पर नहीं होती तो अब तक तो आरक्षण की सीमा ना मालूम कहां पहुंच जाती. आरक्षण की अधिकतम सीमा पचास प्रतिशत निर्धारित है. इस सीमा को बढ़ाने के भी चुनावी वायदे किए जाते हैं. क्या कोई दल सुप्रीम कोर्ट के वर्डिक्ट के खिलाफ़ कोई चुनावी वादा कर सकता है?
आरक्षित जातियों की श्रेणी में विभिन्न जातियों को शामिल करने की सरकारों की रणनीति भी आरक्षण के मूल उद्देश्यों को नुकसान पहुंचाती है. ओबीसी आरक्षण में कई राज्यों में ऐसी धार्मिक जातियों को ओबीसी लिस्ट में शामिल कर लिया गया है, जिन्हें शामिल नहीं किया जाना चाहिए. धार्मिक आधार पर आरक्षण का विचार भी संविधान के साथ धोखाधड़ी ही कही जाएगी.
वंचित वर्गों में समानता लाने की दृष्टि से आरक्षण नीति लागू की गई है. आजादी के बाद जब संविधान लागू हुआ तभी यह नीति प्रभावशील हुई. इसके पहले भी भारत का एक स्वरूप था. वहां सभी लोग बिना आरक्षण के भी अपना जीवन-यापन सुख शांति से कर रहे थे.
यह समीक्षा तो जरूरी है, कि आरक्षण की नीतियां समानता लाने में कितनी सफल हुईं. आरक्षण में ही तो असमानता का नया रण प्रारंभ नहीं हो गया है. आरक्षण के अंतर्गत कोटे में कोटा का सुप्रीम कोर्ट का फैसला आरक्षित जातियों में बढ़ रही असमानता को कम करने का प्रयास लगता है.
आरक्षण का लाभ लेकर जो परिवार, जो व्यक्ति एमपी, एमएलए, आईएएस आईपीएस अथवा बड़े अफसर बन गए हैं. आरक्षण से लाभान्वित होकर जो समाज की अग्रिम पंक्ति में पहुंच गए हैं, उनको आरक्षण का लाभ एक नई किस्म की असमानता पैदा कर रहा है. कोटे में कोटे की अवधारणा इसी असमानता को दूर करने की कोशिश है.
आरक्षण का लाभ एक बार मिलना चाहिए. जो असमानता से ऊपर उठकर अग्रिम पंक्ति में पहुंच गए हैं, उन्हें ही बार-बार आरक्षण का लाभ देना भी संविधान के साथ धोखाधड़ी जैसा ही है.
प्रमोशन में रिजर्वेशन भी संविधान के दायरे में नहीं कहा जा सकता है. राज्य सरकारों ने राजनीतिक कारणों से प्रमोशन में रिजर्वेशन की नीति लागू की. खैर अब तो सुप्रीम कोर्ट में यह मामला उलझा हुआ है. इसके कारण लाखों अधिकारी कर्मचारी बिना प्रमोशन के रिटायर हो रहे हैं. प्रमोशन में आरक्षण की गलत नीति अधिकारियों, कर्मचारियों के प्रमोशन के अधिकारों का हनन कर रही है.
आरक्षण में गरीबी को आधार बनाकर ईडब्ल्यूएस रिजर्वेशन न केवल संविधान की दायरे में है, बल्कि इससे आरक्षण की नीति को प्रगतिशील आयाम मिल सकता है. आरक्षण की नीति गलत नहीं है. इसकी उपलब्धियों की समीक्षा से भगाना गलत है. योग्यता और आरक्षण में असंतुलन गलत है.
इस बात का संतुलन जरूरी है, कि योग्यता को मौका मिले और वंचित समूह को आरक्षण के संवैधानिक प्रोटेक्शन का भी लाभ मिले. ऐसी स्थिति ना बने कि किन्हीं कारणों से भारत के टैलेंट को पलायन करना पड़े. विश्व पटल पर नजर डालने पर पता लगता है, कि भारतीय मूल के टैलेंट विदेशों में आज सफलता के झंडे गाड़ रहे हैं. प्रवास प्रगति है, लेकिन मौके का हनन दुर्गति है.
आरक्षित और अनारक्षित के बीच विवाद की स्थितियां तो बनती ही रहती हैं. मणिपुर के हालातों के पीछे आरक्षण की नीतियां ही जिम्मेदार कहीं जा सकती हैं. वहां कुकी और मैतेई समाज के लोग एक ही परिस्थितियों में एक ही आवोहवा में जीवन यापन करते हैं, लेकिन आरक्षण की व्यवस्था के कारण एक समुदाय को कुछ सुविधाएं सुनिश्चित हैं और दूसरा समुदाय उससे वंचित है. मणिपुर में विवाद की शुरुआत दूसरे समुदाय द्वारा भी आदिवासी श्रेणी में शामिल होकर आरक्षण का लाभ उठाने की कोशिशों से ही प्रारंभ हुआ है.
सामान्य युद्ध के नतीजे अलग होते हैं और भाई-भाई में युद्ध के नतीजे अलग होते हैं. मणिपुर में हालात भाई-भाई में युद्ध के जैसे हैं और इस युद्ध का हथियार आरक्षण बन रहा है. एक सीमा के बाद सहनशीलता समाप्त हो जाती है और फिर मणिपुर जैसे हालात बन जाते हैं. नीति निर्धारकों को मणिपुर से सबक लेने की जरूरत है. समानता के प्रयास ऐसी असमानता ना निर्मित कर दें, जो सामाजिक विभेद का कारण बन जाए.
वंचितों को आरक्षण की सुविधा मिले लेकिन आरक्षित वर्गों में ही असमानता का नया रण रुकना चाहिए. प्रमोशन में रिजर्वेशन की गलत नीति का प्रमोशन पर दुष्प्रभाव रोका जाना चाहिए. संविधान में आरक्षण जीवंत प्रावधान है. धोखाधड़ी से इसे लूट की दुकान नहीं बनने देना है. सुप्रीम कोर्ट की तो संवैधानिक नज़र है, लेकिन सियासी नजरिया बहुमत का रिजर्वेशन है.