भारत के मुख्य न्यायाधीश वी.आर. गवई ने ओबीसी वर्ग के आरक्षण में लागू क्रीमी लेयर की व्यवस्था को सभी आरक्षण में लागू करने का विचार व्यक्त किया है. राजनीति तो ज़रूरत मानते हुए भी ऐसा कहने की हिम्मत नहीं कर सकती..!!
प्रधान न्यायाधीश स्वयं आरक्षण के लाभार्थी वर्ग से आते हैं. इसलिए उनकी यह बात ना राजनीति, न जातीय बल्कि न्याय और संविधान की नजरिए से परखी जाना चाहिए.
आरक्षण राजनीति का टूल बन गया है. हर राजनीतिक दल इसमें बढ़चढ़ कर अपनी हिस्सेदारी करना चाहता है. कोई भी जरूरत के मुताबिक इसमें सुधार की बात करने की हिम्मत नहीं करता. ऐसा शायद इसलिए होता है क्योंकि आरक्षण पर बिना बात के ही विवाद पैदा कर राजनीतिक लाभ लेने की कोशिश की जाती है.
कांग्रेस का तो हमेशा बीजेपी पर आरोप रहता है कि वह आरक्षण को खत्म कर सकती है. बीजेपी या संघ की ओर से जब भी कभी आरक्षण पर कोई विचार योग्य बात भी कही जाती है तो उस पर भी राजनीतिक विवाद खड़ा कर दिया जाता है.
सरकार की कोई भी योजना होती है, तो उसका लंबे समय के बाद आंकलन किया जाता है. समीक्षा की जाती है कि, जिस उद्देश्य से उसे लागू किया गया था, उसकी किस सीमा तक पूर्ति हुई है? आरक्षण के मामले में भी यह बात समय-समय पर उठती रही है कि आरक्षण की व्यवस्था का उस वर्ग के कुछ खास लोग लगातार फायदा उठाते हैं.
जो लोग आरक्षण का लाभ लेकर समानता के लक्ष्य हासिल कर चुके हैं, उन परिवारों को भी लगातार इसका लाभ मिलता रहता है. आरक्षित वर्ग के ही बहुत सारे परिवार ऐसे हैं जो शिक्षा और जागरूकता के अभाव में आरक्षण से वंचित रहते हैं. यह विचार धीरे-धीरे आगे बढ़ता जा रहा है.
सुप्रीम कोर्ट ने आरक्षण के उपवर्गीकरण करने की व्यवस्था कर दी है. इसका मतलब है कि, आरक्षित वर्ग की विभिन्न जातियों के बीच आरक्षण प्रतिशत का बंटवारा किया जाएगा. कुछ राज्यों में इस पर अमल भी प्रारंभ कर दिया गया है.
उपवर्गीकरण के पीछे भी यही नजरिया है कि. समाज के अंतिम व्यक्ति को उसका लाभ मिले. ऐसा ना हो कि, कुछ खास परिवार ही बार-बार आरक्षण का लाभ लेते रहें. आरक्षण के उपवर्गीकरण पर सुप्रीम कोर्ट के जिस बेंच ने फैसला दिया था उसमें वर्तमान मुख्य न्यायाधीश गवई भी शामिल थे.
अब मुख्य न्यायाधीश ने सभी प्रकार के आरक्षण में क्रीमी लेयर की व्यवस्था लागू करने की हुंकार भरी है. यह अदालत से ही हो सकता है. अदालत ही न्याय संगत फैसला कर सकती है. राजनीतिक दल तो आरक्षण पर किसी भी तरह से हाथ डालने की कोशिश नहीं करेंगे. क्रीमी लेयर की अवधारणा भी यही है कि, जो लोग आर्थिक रूप से सक्षम हो गए हैं, उनको आरक्षण का लाभ नहीं मिलना चाहिए.
अभी ओबीसी रिजर्वेशन में ही क्रीमी लेयर की व्यवस्था लागू है. अगर यह व्यवस्था एससी-एसटी रिजर्वेशन में भी लागू हो जाती है, तो फिर वह परिवार आरक्षण से दूर हो जाएंगे, जिन्हें पहले उसका लाभ मिल चुका है. अभी क्रीमी लेयर की सीमा आठ लाख प्रति वर्ष है. इसमें समय समय पर वृद्धि होती रहती है.
आरक्षण का लाभ उठाकर आईएएस, आईपीएस, राज्य प्रशासनिक सेवा या राज्य की दूसरी सेवाओं में जो भी आरक्षित वर्ग का व्यक्ति शामिल हो गया है, उनमें से अधिकांश क्रीमी लेयर की परिधि से बाहर हैं. इसका मतलब अगर यह लागू होता है तो उनको रिजर्वेशन मिलना बंद हो जाएगा.
इसी प्रकार सांसद, विधायक जो आरक्षित वर्गों से आते हैं, ऐसे परिवार भी एससी, एसटी आरक्षण में क्रीमी लेयर लागू होने पर आरक्षण की सीमा से बाहर हो जाएंगे. क्रीमी लेयर का कॉन्सेप्ट किसी को बाहर करने से ज्यादा उस वर्ग के आर्थिक रूप से कमजोर परिवारों को लाभ पहुंचाना है.
एससी, एसटी में क्रीमी लेयर व्यवस्था लागू करने का विचार इस वर्ग में आर्थिक रूप से अक्षतम लोगों को आरक्षण का लाभ पहुंचाने का है. इससे अनारक्षित वर्गों को कोई लाभ नहीं होगा. आरक्षण की व्यवस्था पर कोई सवाल नहीं है. सवाल इस पर है कि, कुछ खास परिवार ही आरक्षण का लाभ उठाकर बार-बार लाभान्वित हो रहे हैं. जबकि इस वर्ग में बड़ी संख्या में लोग आरक्षण से वंचित हैं.
भारत के वर्तमान मुख्य न्यायाधीश आरक्षित वर्ग से ही आते हैं. इसी वर्ग का कोई चिंतनशील और न्याय के प्रति समर्पित व्यक्ति इस पर फैसला ले सकता है. अगर कोई दूसरे समाज का न्यायविद इस पर कोई टिप्पणी करेगा तो उसे मनुवादी स्थापित करने में देर नहीं की जाएगी. यह विचार तर्क संगत है. देश को नए अंबेडकर की जरूरत है जो वर्तमान परिस्थितियों के हिसाब से दलित, शोषित, वंचित वर्गों को समानता पर लाने के लिए पैमानों का पुनर्निर्धारण कर सके.
वैसे तो सरकारों में आरक्षित पद कभी भरे नहीं जाते. फिर भी राजनीतिक दल आरक्षण बढ़ाने की राजनीति करने से पीछे नहीं रहते. जिसकी जितनी हिस्सेदारी उसकी उतनी भागीदारी का राजनीतिक नारा जरूर देते हैं लेकिन जब चुनावी प्रक्रिया में हिस्सेदारी देने की बात होती है तो फिर नारों को भुला दिया जाता है.
खासकर कांग्रेस आरक्षण को राजनीतिक हथियार के रूप में उपयोग कर रही है. राज्यों में आरक्षण की सीमा बढ़ाने को चुनावी घोषणा पत्र में शामिल किया जाता है. जबकि सुप्रीम कोर्ट ने आरक्षण की अधिकतम सीमा पचास प्रतिशत निर्धारित कर दी है. इसको या तो अदालत या संसद द्वारा ही बदला जा सकता है. लेकिन फिर भी राजनीतिक दलों द्वारा इस हथियार का लगातार प्रयोग किया जाता है.
प्रधान न्यायाधीश सेवानिवृत होने वाले हैं. लेकिन उन्होंने जो विचार दिया है, वह मरेगा नहीं. यह जीवित रहेगा. बाकी के न्यायमूर्तियों को परेशान करता रहेगा. जो भी न्याय सोचेगा, जिएगा वह आरक्षित वर्ग के आर्थिक रूप से अक्षम परिवारों के प्रति जरुर सोचेगा. इस विचार पर चर्चा इसलिए भी जरूरी है कि, आरक्षित वर्गों में ही आरक्षण का लाभ लेकर एक नया सामंती समूह पनपता जा रहा है.
यह समूह आरक्षण की व्यवस्था का लाभ कभी भी नहीं छोड़ना चाहेगा. जबकि उसकी सक्षमता यही बताती है कि उसे स्वयं यह लाभ छोड़ने की पहल करना चाहिए.
आरक्षित वर्गों से ही आरक्षण की व्यवस्था को समानता के पैमाने पर कसने के लिए जो भी विचार आ रहें हैं, उनको आगे बढ़ाया जाना चाहिए.
अब तक आरक्षण पर जो भी व्यवस्था लागू है, वह सब अदालतों के निर्णय पर है. एससी-एसटी में क्रीमी लेयर भी बिना अदालत के फलीभूत नहीं हो सकता. ऐसे विचार कभी ना कभी अपनी मंजिल तक पहुंच ही जाते हैं.