देश में नक्सलबाद खत्म हो रहा है. तो राजनीति में नक्सली विचार बढ़ रहे हैं. राजनीतिक दल खासकर सत्ता के खिलाफ डर दिखा कर राजनीतिक समर्थन हासिल करने की कोशिश करते दिखाई पड़ रहे हैं..!!
अपने बड़े नेताओं को खोने वाली कांग्रेस पार्टी इसी सोच पर आगे बढ़ रही है. बिहार में वोटर लिस्ट के विशेष पुनरीक्षण को आधार बनाकर लोगों के बीच डर का माहौल बनाया गया. वोटर लिस्ट में नाम हट जाएगा केवल यहीं तक नहीं कहा गया, बल्कि यह डर भी फैलाया गया कि पहले वोटर कार्ड छिन जाएगा. फिर राशन कार्ड और फिर जमीन भी जाएगी.
राहुल गांधी और प्रियंका गांधी ने भी ऐसे भाषण दिए हैं जिसमें यह कहा गया कि सरकार पेंशन बंद कर देगी. बाढ़ आएगी तो मुआवजा नहीं मिलेगा. जमीनें छीनकर अडानी-अंबानी को दे देगी. इसके पहले भी लोकसभा चुनाव के समय संविधान बदलने के मामले पर आरक्षण खत्म करने का भ्रम फैलाया गया. इसका राजनीतिक लाभ कांग्रेस को मिला. लोकसभा में उसकी सीटें बढ़ गईं.
राजनीतिक लाभ देखते हुए बिहार में भी कांग्रेस इसी रणनीति पर आगे बढ़ रही है. राजनीतिक दल चुनाव में राजनीतिक आरोप लगाते हैं, लेकिन संवैधानिक रूप से बनी सरकारों के काम को लेकर डर और भय पैदा कर समर्थन हासिल करना नक्सली सोच का ही नमूना है. नक्सली हथियार से हिंसा करते हैं.
पॉलीटिकल पार्टी वैचारिक हिंसा कर रही है. नक्सलियों से सहानुभूति कोई नई बात नहीं है. शहरी क्षेत्र में बैठे वामपंथी विचार वाले बुद्धिजीवी नक्सली सोच का ना केवल समर्थन करते हैं बल्कि सहयोग करते भी पाए जाते हैं. अर्बन नक्सलवाद का प्रयोग ऐसे ही लोगों के लिए किया जाता है. जन प्रतिनिधित्व कानून में डराना-धमकाना अपराध माना गया है.
भारतीय कानूनों में भी इसे अपराध की श्रेणी ने माना जाता है. राजनीति आज उस दौर में पहुंच गई है, जब सामान्य और शिष्ट आरोप-प्रत्यारोप प्रभावहीन हो गए हैं. अब तो ऐसे ही आरोप लगाए जाते हैं, जिसमें आदमी द्वारा कुत्ते को काटने की अप्रत्याशित फील आती हो. ऐसी बातों को ही मीडिया फोकस मिलता है.
जो राष्ट्र के मुद्दे हैं उन पर भी चुनावी राजनीति होती है. घुसपैठ राष्ट्रीय सुरक्षा के लिए खतरा है, लेकिन इसके पक्ष में भी खड़े रहने की राजनीति की जाती है. राहुल गांधी एक बार नहीं कम से कम सौ बार यह आरोप लगा चुके होंगे कि सरकार किसानों की जमीनें छीनकर अडानी-अंबानी को दे रही है. विपक्ष के नेता के रूप में सरकार की नीतियों की आलोचना उनका अधिकार है. लेकिन यह तथ्यात्मक और प्रामाणिक होना जरूरी है. यह भी डर और भ्रम फैलाने का ही नक्सली तरीका है. जो राजनेता कर रहे हैं
आरक्षण खत्म करने की बात कहकर राजनीतिक लाभ उठाया गया, लेकिन ऐसा कोई परिदृश्य देश ने नहीं देखा. राष्ट्रीय संप्रभुता और एकता के मुद्दे पर भी राजनीति की कोशिशें डिस-इंटीग्रेशन को बढ़ावा देती हैं. घुसपैठियों के मामले में भी राजनीतिक आम सहमति के साथ कदम उठाने की जरूरत है. इससे भारतीय लोगों को नुकसान हो रहा है.
सत्ताधारी दल भी चुनाव के समय तो ऐसे मुद्दों को बहुत गंभीरता से उठाते हैं और बाद में उनको भुला दिया जाता है. यह मुद्दा केवल चुनावी नहीं है, बल्कि इससे राष्ट्रीय सुरक्षा को खतरा बढ़ रहा है. एनआरसी जब लाया गया था तब भी यह भ्रम पैदा किया गया कि इससे खासकर मुसलमान की नागरिकता चली जाएगी. सीएए के मामले में भी इसी तरीके का राजनीतिक स्टैंड विपक्षी दलों द्वारा लिया गया.
नक्सली विचारधारा अपने अभियान के लिए विषमता को जिम्मेदार बताती है. सरकारें इसे कानून की समस्या मानती हैं. यह देश की आंतरिक सुरक्षा के लिए भी एक चुनौती है. नक्सली विचारधारा पोषित व्यक्ति या राजनीतिक दल नक्सलवाद को सामाजिक आर्थिक, राजनीतिक विषमताओं एवं दमन की पीड़ा से उपजा एकविद्रोह मानकर उसका पक्ष लेते हैं. माओवादी नक्सलवाद पर सरकार के सख्त कदम से इसके खात्मे का अभियान चल रहा है. गृहमंत्री अमित शाह दावा कर रहे हैं, कि 2026 तक देश से माओवादी नक्सलवाद समाप्त कर दिया जाएगा.
जो दल सत्ता में नहीं होता वह सामाजिक आर्थिक और राजनीतिक विषमता को अपना चुनावी हथियार बनाते हैं. सामान्य रूप से इसमें कोई आपत्ति नहीं है, लेकिन जब इसके लिए ऐसी बातें की जाती हैं, जो डर और भ्रम पैदा करें तो फिर यह नक्सली सोचसे जुड़ जाते हैं.
राजनीति में बढ़ती नक्सलवादी सोच आगे चलकर नागरिकों के लिए नुकसानदेह होगा. सामाजिक आर्थिक और राजनीतिक विषमता दूर करने के वायदे और इसके नाम पर जन समर्थन जुटाने की कोशिश सियासी दलों का तवा बन गया है. यह चुनावी तवा है जिस पर मौका मिलते ही रोटी सेकने की कोशिश की जाती है बीजेपी की हिंदुत्ववादी विचारधारा को मिल रहे राजनीतिक समर्थन से मुकाबले के लिए कांग्रेस ने इसे ही अपना हथियार बना लिया है.
ऐसे विचार और एक्शन नेशनल इंटीग्रेशन को रोकने का काम करते हैं. जितने तरह के विभाजन बने हुए हैं उनमें से ज्यादातर राजनीतिक कारणों से हैं. अभी भले ही यह राजनीति में नक्सलवाद सहने योग्य है. लेकिन ऐसी सोच पर चलने वाला भविष्य सुंदर नहीं हो सकता.