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जनधन का खुला दान

सार

हिमाचल प्रदेश और झारखंड सरकार द्वारा नेशनल हेराल्ड को विज्ञापन देने पर बीजेपी और कांग्रेस आमने-सामने हैं. पूर्व केंद्रीय सूचना प्रसारण मंत्री अनुराग ठाकुर ने बाकायदा प्रेस कॉन्फ्रेंस में यह आरोप लगाया, कि हिमाचल प्रदेश सरकार ने बिना छपे नेशनल हेराल्ड अखबार को करोड़ों के विज्ञापन दिए. उन्होंने तो पत्रकारों से सवाल किया, कि किसी पत्रकार ने हाल में नेशनल हेराल्ड देखा है..!!

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विस्तार

    ठाकुर ने कहा कि जो अखबार छपते हैं, पढ़े जाते हैं, उन्हें तो विज्ञापन नहीं मिलते, लेकिन कांग्रेस की राज्य सरकार ने एक ऐसे अखबार को विज्ञापन के रूप में बड़ा धन दिया है, जो ना पढ़ा जाता है, ना प्रकाशित होता है, उनके आरोप के जवाब में हिमाचल प्रदेश के मुख्यमंत्री मीडिया बाइट में कहते हैं, कि नेशनल हेराल्ड पार्टी का अखबार है. उनकी सरकार उसको विज्ञापन देगी. इसी तरह के आरोप झारखंड की सरकार पर भी लगाए गए.

    अनुराग ठाकुर पहले सूचना प्रसारण मंत्री रह चुके हैं. उन्हें अखबारों के प्रकाशन, सरकारों द्वारा उनमें  विज्ञापन, अखबारों की प्रसार संख्या, उसकी वास्तविकता के सारे तथ्य निश्चित रूप से पता होंगे. केंद्र सरकार में जो विभाग इन सारे कामों का नियंत्रण करता है, उसके वह मुखिया रह चुके हैं. अगर वह ऐसी बात कर रहे हैं, तो निश्चित रूप से इसको गंभीरता से लिया जाना चाहिए. 

    इससे बहुत सारे सवाल खड़े हो रहे हैं. विज्ञापन के रूप में राज्य सरकारें जो जनधन खर्च करती है, इसकी आवश्यकता उपयोगिता कितनी है. विज्ञापन प्योरली कमर्शियल एक्टिविटी है. कहीं सरकारें पावरप्ले के रूप में तो इसका उपयोग नहीं करतीं. विज्ञापन का आधार सर्कुलेशन या टीआरपी होती है. प्रिंट मीडिया में अगर सर्कुलेशन को आधार माना जाता है, तो इलेक्ट्रॉनिक मीडिया में टीआरपी की व्यवस्था है. 

    हिमाचल प्रदेश के मुख्यमंत्री जैसा कह रहे हैं, कि उनकी सरकार है, वह अपनी पार्टी के अखबार को विज्ञापन देंगे, इसका मतलब है, कि सरकारें विज्ञापन देने में सर्कुलेशन, आवश्यकता, उपयोगिता, बजट की उपलब्धता के तार्किक आधार पर काम नहीं करती हैं. बल्कि विज्ञापन देने के आधार कुछ अलग होते हैं.

    केंद्र सरकार के अलावा राज्य सरकारें भी विज्ञापन देने का काम करती हैं. राज्य सरकारों को सर्कुलेशन की जांच करने का कोई वैधानिक अधिकार नहीं है. केंद्र की एजेंसी के पास यह अधिकार है. मीडिया की सामूहिक ताकत सरकारों और सिस्टम को नियम फॉलो करने से रोकता है. चाहे बड़ा अखबार हो या छोटा अखबार हो, उसकी प्रसार संख्या पर सवाल हमेशा खड़े होते हैं. 

     मध्य प्रदेश में तो सर्कुलेशन को लेकर आपराधिक केस तक चल रहे हैं. यहां तक कि सीबीआई के छापे भी पड़े हैं. जो अखबार वास्तव में पढ़े जाते हैं, उनकी भी कागज पर बताई गई सर्कुलेशन की संख्या सही है, इसका सत्य तो जीवन का सत्य जानने से भी कठिन है. 

    सरकारी विज्ञापनों का सिस्टम इसी से समझा जा सकता है कि जितने भी अखबार प्रकाशित होते हैं, उनमें से प्राइवेट विज्ञापन बहुत कम अखबारों को मिलते हैं. जिन अखबारों को प्राइवेट विज्ञापन मिलते हैं, वो वास्तव में जनता के बीच पढ़े जाते हैं. कोई भी निजी व्यक्ति विज्ञापन अपने प्रोडक्ट के सेल के लिए जारी करता है. वह जो धन खर्च करता है उसका पूरा लाभ लेना चाहता है. कई उदाहरण ऐसे भी मिल जाएंगे जहां कागज पर सर्कुलेशन जमीन पर पढ़े जाने वाले अखबारों से भी ज्यादा बताए जाते हैं. सरकार के विज्ञापनों में विभिन्न कारणों से ऐसे अखबार अपनी हिस्सेदारी हासिल कर लेते हैं, जबकि उन्हें प्राइवेट विज्ञापन शून्य मिलते हैं.

    सरकारी विज्ञापन देने की पूरी प्रक्रिया पावर प्ले का हिस्सा बन गई है. विज्ञापन कमर्शियल एक्टिविटी है. इस पर खर्च होने वाले धन की समीक्षा होना चाहिए कि इससे कितना लाभ हुआ है. कोई भी सरकार कभी भी इस बात का आंकलन नहीं करती, कि करोड़ों का जनधन खर्च कर जो विज्ञापन दिए गए हैं, उनके क्या परिणाम निकले हैं. 

    सबको पता है, कि सरकारों में विज्ञापन के नाम पर जनधन का दुरुपयोग हो रहा है. जो कंटेंट दिए जा रहे हैं, वह भी जनता के लिए उपयोगी नहीं हैं. कंटेंट को लेकर कई बार मामले सुप्रीम कोर्ट में गए. सुप्रीम कोर्ट ने सरकारी धन से मंत्रियों के छप रहे फोटो को रोक दिया. अब केवल राष्ट्रपति, राज्यपाल, प्रधानमंत्री और मुख्यमंत्री के फोटो ही प्रकाशित किए जा सकते हैं. जिस तरह के विज्ञापन के कंटेंट सरकारें देती हैं, वह भी सुप्रीम कोर्ट की निर्धारित गाइडलाइन के अंतर्गत नहीं आते, लेकिन जब देने वाली सरकारें हैें, तो सवाल कौन उठाएगा. मीडिया जो सवाल उठाने का काम करता है, जब वह ही इसमें पार्टी है, तो फिर ऐसे सवालों को दबाया ही जाता है.

    कागजों पर अखबारों के जो सर्कुलेशन बताए जाते हैं जिनके आधार पर विज्ञापनों के रेट तय होते हैं, उनको अगर जोड़ दिया जाए, तो शहर की आबादी कम पड़ जाएगी. अगर भोपाल का ही उदाहरण लें, तो जितनी संख्या में अखबार यहां प्रकाशित होते हैं और जितने सर्कुलेशन सरकारों द्वारा मान्य किए गए हैं, उतनी भोपाल की और एरिया की जनसंख्या ही नहीं है. सरकारें भी यह जानती हैं, लेकिन आँखें मूंदें रहती हैं. जब राजनीति होती है, तभी इस तरह की बातें सामने आती हैं.

    जनधन के दुरुपयोग से राजनीति का इससे बड़ा उदाहरण क्या होगा कि दूसरे राज्यों के विज्ञापन दूसरे राज्यों में प्रकाशित होते हैं. जिस राज्य की जनता को उस राज्य की किसी भी उपलब्धि या जानकारी से कोई लेना देना नहीं है. उसको सूचित करने के लिए करोड़ों रुपए सरकारें खर्च करती हैं. 

     सभी दलों की सरकारें ऐसा करती हैं. सरकार के धन से चेहरे चमकाने की सियासत होने लगती है. जहां तक मीडिया का सवाल है, तो उसकी तो अर्थव्यवस्था का आधार ही विज्ञापन हैं. अगर वह विज्ञापन की वास्तविकता पर सवाल उठाने लगेंगे तो फिर उनका ही नुकसान होगा और ऐसा करने वाला तो भारत में शायद ही कोई मिलेगा .

    विज्ञापन ही नहीं सरकारें मीडिया को ज़मीन भी देती हैं. कई बार तो निशुल्क देती हैं, कई बार बहुत कम शुल्क लेकर दी जाती है. मीडिया सरकार को साधने की कोशिश करता है और सरकार मीडिया को साधने में लगी रहती है. सधने साधने के इस पावर प्ले में जनता कहीं नहीं होती.

    सत्ता से उतरने के बाद विज्ञापनों में हीरो बने चेहरे वीराने में कैसे खो जाते हैं, इसके उदाहरण रोज दिखते हैं. सबको शुद्ध-अशुद्ध का सर्टिफिकेट देने वाले मीडिया का शुद्धिकरण बड़ी जन सेवा होगी.