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संविधान लेकर कर रहे, संविधान की अवहेलना 

सार

छप्पन साल के राहुल गांधी की राजनीति इक्कीस साल की हो गई है. सांसद से शुरू किया था. अभी भी सांसद हैं. पहली बार विपक्ष के नेता बन गए हैं..!!

janmat

विस्तार

    प्रधानमंत्री का नाती, प्रधानमंत्री का पोता, प्रधानमंत्री का बेटा बनने का तो वरदान उन्हें जन्म से ही मिल गया था. इस तरह से तो वह जन्म से ही भारत के भाग्य विधाता परिवार का हिस्सा बन गए थे. विरासत इतिहास है. जीवन या राजनीति वर्तमान से चलती है. वह इस विरासत के हकदार भी अकेले हैं. 

    राजनीतिक विरासत उन्हें ही मिली और अब तक तो उनके हाथ में ही है. राहुल गांधी की कितनी भी आलोचना की जाए, लेकिन यह तो तय है, कि वह राजनीति की एक धारा के प्रवाह बने हुए हैं. अपनी 21 साल की राजनीति में राहुल गांधी ने क्या हासिल किया और अपने व्यक्तित्व में क्या खोया इसका विश्लेषण जरूरी है.

    राहुल गांधी ने कई राजनीतिक दोस्त खोये. कई अपने सहयोगियों को नाराज किया. उन्होंने अपना भोलापन और सहजता खोई है. राजनीति में प्रवेश के समय उनमें जो सहजता थी, वह अब दिखाई नहीं पड़ती. अब तो राजनीति की झलक उनकी भाषा और बॉडी लैंग्वेज में साफ दिखती है.  राहुल गांधी अब जैसी राजनीति कर रहे हैं उससे दिखता है, कि अब वह राजनीति की विद्रूपताओं को आत्मसात करने लगे हैं. 

    संविधान हाथ में लेकर संविधान की रक्षा का संकल्प लेते समय ही संविधान का उल्लंघन किया जा रहा है. इस पर उनका ध्यान नहीं जाता. मोहब्बत की दुकान से नफरत का सामान बिकने लगा है. यह भी उन्हें दृष्टिगोचर नहीं होता है. उनकी दृष्टि में किसी को चोर कहना संविधान सम्मत है, वह भी बिना किसी प्रमाणिक सबूत के. राहुल गांधी किसी सामान्य व्यक्ति को नहीं संवैधानिक संस्था चुनाव आयोग और संविधान के तहत निर्वाचित प्रधानमंत्री को चोर बुला रहे हैं. ऊपर से कहना यह कि उनकी मोहब्बत की दुकान है. 

    राहुल गांधी में यह बदलाव अचानक नहीं आया है. उनके साथ भी ऐसा कुछ हुआ है, जिसके कारण उनका यह बदला हुआ रूप सामने आया है.

    इस बदलाव के पीछे बड़ा कारण लगता है, वाम पंथ की तरफ उनका झुकाव बढ़ा है. उनकी पूरी कार्यशैली वामपंथी शैली ही बन गई है. जेएनयू की गैंग उनका बैक ऑफिस कंट्रोल करती है. एनजीओ खासकर बीजेपी विरोधी उनके वैचारिक पार्टनर बन गए हैं. जहां तक जनाधार का सवाल है, कांग्रेस का अपना एक जनाधार अभी भी मजबूती से खड़ा है. इसमें राहुल गांधी का कोई योगदान नहीं लगता है. कांग्रेस का इतिहास इसका कारण है. 

    राहुल गांधी का वामपंथी स्वभाव सार्वजनिक मंचों पर भी दिखता है. ठीक वैसा उनके राजनीतिक आरोपों में दिखता है. पार्टी संगठन की कार्यशैली में भी इसका प्रभाव दिखता है. कई बड़े नेता कांग्रेस छोड़कर चले जाते हैं और उसके लिए राहुल गांधी को ही जिम्मेदार बताते हैं तो इसमें कुछ तो सच्चाई होगी. राहुल गांधी ने कई यात्रा की हैं. भारत जोड़ो यात्रा और अपनी दूसरी यात्राओं के जरिए उन्होंने भारत को समझने की कोशिश की. लेकिन उनका जो दृष्टिकोण सामने आता है, वह तो यही बताता है कि भारत की आत्मा को समझने में अभी उन्हें बहुत लंबा समय लगेगा. 

    राहुल गांधी की भाषा मर्यादा तोड़ने वाली लगती है. पीएम नरेंद्र मोदी को लेकर जिस तरीके के शब्दों और भाषा का उपयोग करते हैं, उससे उनकी छवि बढ़ने की बजाय घटती है. एक तो उम्र का अंतर, दूसरा प्रधानमंत्री का इतना लंबा राजनीतिक और प्रशासनिक अनुभव फिर भी उनके प्रति राहुल के विचार उनको राजनीतिक रूप से अपरिपक्व साबित करते हैं. 

     अर्थव्यवस्था को लेकर उनका विचार देश ने स्वीकार नहीं किया. अडानी-अंबानी पर उनके आरोप कभी साबित नहीं हो पाए. अदालतों द्वारा मानहानि के मुकदमों में सजा या फटकार की घटनाओं ने भी राहुल गांधी की इमेज को खराब किया है. 

    इसमें कोई दो राय नहीं है कि वह मीडिया पर भी पक्षपात का आरोप लगाते हैं. लेकिन उन्हें मीडिया में पर्याप्त स्थान और चर्चा मिलती है. सोशल मीडिया में लाइव और फॉलोवर की कांग्रेस की पॉलिटिक्स भी राहुल गांधी के लिए भारी पड़ रही है. इसमें भी वामपंथी धारा काम कर रही है.  गठबंधन की राहुल गांधी की राजनीति पाखंड से भरी हुई दिखाई पड़ती है.

    राम मंदिर पर राहुल गांधी का रुख भारतीयता के प्रति उनके दृष्टिकोण से जुड़ गया है. राहुल गांधी को फिल्मी नजर से देखा जाएगा तो उनका परफॉर्मेंस हीरो से ज्यादा विलन जैसा लगता है. कांग्रेस की लाइन हमेशा से गरीब हितैषी रही है, लेकिन वामपंथी विचारधारा को पार्टी में मुख्य जगह नहीं मिली. वैचारिक अपरिपक्वता के कारण अब राहुल गांधी पर भी वामपंथी बेताल चढ़ गया है. किसी भी पार्टी को जीत या हार से ज्यादा विचारधारा और कमिटमेंट मजबूत बनाता है. 

    चुगलखोरों से राहुल गांधी और कांग्रेस जितना दूर रहेगी, उतना ही अच्छा रहेगा. किसी पेट में ज़हर जाता है तो एक व्यक्ति को प्रभावित करता है और कान का ज़हर बहुत सारे रिश्तों और संबंधों को तोड़ देता है. यही कांग्रेस के साथ हो रहा है.