वक्फ़ कानून पर सुप्रीम कोर्ट के अंतरिम आदेश से सभी पक्ष खुश हैं. सरकार, संसद और सियासी दल इस आदेश को अपनी जीत बता रहे हैं. मुस्लिम पक्ष भी अंतरिम आदेश को अपने पक्ष में मानते हुए सर्वोच्च अदालत के अंतिम आदेश की प्रतीक्षा की बात कर रहे हैं..!!
वक्फ़ पर बनाए गए नए कानून को सर्वोच्च अदालत ने ना केवल संवैधानिक माना है.बल्कि इसे धार्मिक स्वतंत्रता में हस्तक्षेप मानने से इनकार कर दिया है. मूल रूप से वक्फ़ कानून पर याचिकाएं इसीलिए लगाई गई थीं, कि भाजपा सरकार द्वारा मुसलमानों की धार्मिक स्वतंत्रता पर हमला करते हुए संविधान विरोधी कानून बनाया गया. मुस्लिम पक्ष की ओर से तो याचिका लगाई ही गई थी. लगभग सभी में विपक्षी दलों की ओर से भी याचिकाएं लगाई गई थीं. इस पर पैंसठ से ज्यादा याचिकाएं लगी थीं.
कांग्रेस, आम आदमी पार्टी, तृणमूल कांग्रेस, एआईएमआईएम और राजद जैसी पार्टियों ने भी वक्फ़ कानून के खिलाफ याचिकाएं लगाई थीं. इस कानून को संविधान विरोधी मानते हुए सुप्रीम कोर्ट से उसे असंवैधानिक घोषित करने की मांग की गई थी.
सुप्रीम कोर्ट ने अपने फैसले में कहा- कि पूरे कानून पर रोक लगाने का कोई आधार नहीं बनता है. संशोधित कानून के कुछ प्रावधानों पर रोक लगाई गई है. जिन प्रावधानों को स्टे किया गया है, उनमें वक्फ़ घोषित करने के लिए व्यक्ति का पांच साल से मुस्लिम होने के प्रावधान शामिल हैं. सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि वक्फ़ संपत्तियों का पंजीकरण पहले से ही कानून में था. इसलिए इस पर रोक नहीं लगाई जा सकती. नए कानून में कलेक्टर को दिए गए असीमित अधिकारों पर भी रोक लगाई गई है.
वक्फ़ ट्रिब्यूनल के फैसले के बिना किसी संपत्ति को वक्फ़ घोषित नहीं किया जा सकता और ना ही राजस्व रिकॉर्ड में कोई बदलाव किया जा सकता है. केंद्र और राज्य स्तर पर वक्फ़ बोर्डों में गैर मुस्लिम सदस्यों की संख्या को भी सीमित किया गया है. वक्फ़ बाई यूजर के विवादास्पद मुद्दे पर भी केंद्र सरकार के पक्ष को माना गया है.
इस फैसले के कानूनी पक्ष अपनी जगह हैं, लेकिन इसके राजनीतिक और सामाजिक पक्ष उससे ज्यादा महत्वपूर्ण हैं. इस फैसले से एक बात जो साबित हो गई है, कि वक्फ़ पर संशोधित कानून संवैधानिक है. इसके जो कुछ प्रावधान धार्मिक भावनाओं को ठेस पहुंचा सकते थे, उनको रोक दिया गया है. वक्फ़ संपत्तियों पर कब्जा करने जैसे आरोप भी इस फैसले के साथ खारिज हो गए हैं.
धार्मिक कट्टरता तब और चिंतित करने वाली हो जाती है, जब इसे राजनीति का सहारा मिल जाता है. जिस तरह से संसद में चर्चा में और जेपीसी में वक्फ़ कानून संशोधन का राजनीतिक दलों द्वारा विरोध किया गया, इसे संविधान विरोधी बताया गया, हाथ में संविधान की किताब लेकर संविधान की रक्षा के नाम पर संविधान में आवश्यकता अनुसार संशोधन के अधिकारों को ही चुनौती दी गई.
अभी कुछ दिनों पहले ही श्रीनगर में हजरत दरगाह पर राष्ट्र की प्रतीक चिन्ह अशोक स्तंभ को तोड़ा गया. इस पर यह तोहमत लगाई गई, कि दरगाह पर अशोक चिह्न नाजायज है. इसे धर्म के साथ जोड़ने की राजनीति की गई. जम्मू कश्मीर के मुख्यमंत्री और दूसरे राजनेताओं ने जीर्णोद्धार की पट्टिका में दरगाह पर अशोक चिन्ह का विरोध किया. भारत का प्रतीक चिन्ह देश की मुद्रा पर, देश के पासपोर्ट पर और सरकारों के लगभग सभी दस्तावेजों पर अंकित होता है. इसको सभी धर्म के लोग अपने साथ रखते हैं. यहां तक कि हज यात्री काबा में अपनी इबादत के समय भी पासपोर्ट अपने साथ रखते हैं. राष्ट्रीय प्रतीकों को धर्म और राजनीति से जोड़ना राष्ट्र का अपमान है. इसको कोई भी भारतवासी स्वीकार नहीं कर सकता.
किसी भी कानून में सुधार के लिए किए जा रहे प्रयासों को खुले हृदय से मेरिट के आधार पर देखा जाना चाहिए. राजनीतिक दल वोट बैंक के लिए ही काम करते हैं. सरकारी पक्ष या विपक्षी दल हों सबका लक्ष्य अपने पक्ष में बहुमत का जुगाड़ है. अल्पसंख्यकों का तुष्टिकरण और बहुसंख्यकों का ध्रुवीकरण एक ही सिक्के के दो पहलू हैं.
वक्फ़ कानून का केवल इसलिए विरोध नहीं किया जाना चाहिए कि इसे बीजेपी की सरकार लाई है. किसी भी दल या नेता की नीयत पर ही सवाल खड़े किए जाते हैं. तब तो संवाद की गुंजाइश ही नहीं बचती.
सर्वोच्च अदालत के फैसले पर बीजेपी खुश है. कांग्रेस भी खुश है. बाकी दलों की प्रतिक्रियाएं भी फैसले के पक्ष में ही आ रही हैं. मुस्लिम पक्ष की प्रतिक्रियाएं भी सधी हुई हैं. सभी स्टेक होल्डर खुश हैं, तो लोकतंत्र भी खुशम-खुश है. इस कानून पर अब राजनीति नहीं होगी तो संविधान भी खुश होगा. संविधान निर्माता भी खुश होंगे. कानून के जीतने और सियासत के हारने के इस सुप्रीम आदेश से कुछ ना कुछ ज़रूर सुधरेगा.