क्या सचमुच लोगों के सिर पर देवी-देवता आते हैं, क्या यह अंधविश्वास है.. दिनेश मालवीय


स्टोरी हाइलाइट्स

हम अपने आसपास देखते चले आ रहे हैं कि हर जगह कुछ ऐसे लोग हैं, जिनके बारे मे कहा जाता है कि उनके सिर कोई देवी या देवता......

क्या सचमुच लोगों के सिर पर देवी-देवता आते हैं, क्या यह अंधविश्वास है.. दिनेश मालवीय हम अपने आसपास देखते चले आ रहे हैं कि हर जगह कुछ ऐसे लोग हैं, जिनके बारे मे कहा जाता है कि उनके सिर कोई देवी या देवता आते हैं। उन्हें किसी दिव्य शक्ति का आवेश आता है। ऐसे लोगों के छोटे-बड़े दरबार लगते हैं। ग्रामीण और कस्बाई क्षेत्रों मे ऐसा अधिक होता है, लेकिन शहरों मे भी कम नहीं है। इन दरबारों मे अच्छी ख़ासी संख्या मे लोग जाते हैं। ऐसे लोगों की कमी नहीं है, जो कहते हैं कि उन्हें किसी दरबार से दुख मुसीबत, बीमारी, घरेलू समस्याओं से निजात मिली है। व्यापार - व्यवसाय आदि मे आने वाली समस्याओं के समाधान की बात करने वालों की भी कोई कमी नहीं है। ऐसा दरबार लगाने वाले लोग पीड़ितों को उनकी तक़लीफ़ मे आराम के लिये भभूत, तावीज आदि देने के साथ साथ अनेक तरह के उपाय भी बताते हैं। किसी मंत्र या ग्रंथ का पाठ करने को कहते हैं। इन दरबारों मे बहुत पढ़े लिखे और ख़ुद को प्रगतिशील कहने वाले लोग भी जाते हैं। ऐसा सिर्फ़ भारत मे या किसी ख़ास धर्म मे होता हो, ऐसा नहीं है। लोगों को "पीरबाबा" भी आते हैं और "होली स्पिरिट" का आवेश भी आता है। इंसान और उसका मूल स्वभाव कमोवेश पूरी दुनिया मे एक जैसा है। इसकी अभिव्यक्ति के स्वरूप मे ही भेद होता है, मूल भावना मे नहीं। इस बारे मे समाज की सोच मे विभाजित है। कुछ लोग इसे कोरा अंधविश्वास कहकर सिरे से ख़ारिज़ कर देते हैं, तो कुछ लोग इसे एकदम सही मानते हैं। ऐसे लोग भी हैं, जो भले ही ज़ाहिर तौर पर इसमें विश्वास नहीं करते हों, लेकिन खुलकर विरोध मे बोलते भी नहीं। इसके पीछे इन कथित देवी-देवताओं के ग़ुस्से का शिकार होने का डर भी एक बड़ा कारण है। कुछ लोग दिल मे तो अविश्वास नहीं करते, लेकिन प्रगतिशीलता के चक्कर मे कुछ कुछ खिलाफ बोल देते हैं। कभी किसी घटना विशेष के बाद यह बहस बहुत तीखी हो जाती है, तो कभी नहीं के बराबर रह जाती है। लेकिन यह पूरी तरह ख़त्म कभी नहीं होती। इस विषय पर हम अपने देश और समाज के संदर्भ मे चर्चा करेंगे। देवी-देवताओं के आवेश का दावा करने वाले और दरबार लगाने वालों की हमारे देश मे बहुत महत्वपूर्ण भूमिका रही है। जहाँ तक बीमारियों का संबंध है तो विज्ञान भी कहता है कि अधिकतर बीमारियां सायकोजेनिक या मानी हुयी या बढ़ाकर समझी गयी होती हैं। अनेक बीमारियों और परेशानियों का कारण किसी के द्वारा किया गया जादू टोना मान लिया जाता है। ऐसे मामलों मे देवी-देवताओं के आवेश वाले लोग बहुत कारगर होते हैं। काल्पनिक बीमारियों के इलाज के लिए उनके द्वारा दी गयी भभूत, ताबीज या बताया गया उपाय मनोवैज्ञानिक रूप से बहुत कागरगर होता है। काँटे से काँटा निकाल दिया जाता है। जैसी काल्पनिक बीमारी, वैसा काल्पनिक इलाज। इसके अलावा पीड़ित मे पाजीटिव संकल्प और आत्मविश्वास पैदा होता है। हमारे देश मे बड़ी संख्या मे आज भी मीलों तक मेडिकल फैसिलिटीज नहीं हैं। अगर हैं भी तो वंछित स्तर की नहीं हैं। बीमार होने पर पैसे वाले लोग तो इलाज के लिये बड़े शहरों मे चले जाते हैं। लेकिन ग़रीब लोग बहुत हद तक इन दरबारों की ही शरण लेते हैं। अनेक लोग इलाज के बाद भी फायदा नहीं होने पर इनका सहारा लेते हैं। वास्तविक शारीरक और मानसिक बीमारियों के इनके द्वारा इलाज की बात तो सही नहीं लगती, लेकिन मनोविकारों और मानी हुयी कथित बीमारियों मे इनकी युक्तियां ये काफी कारगर साबित होती हैं। हम सोचकर देखें कि जिन लोगों को चिकित्सा सुविधाएं उपलब्ध नहीं हैं या जो इन्हें अफोर्ड नहीं कर पाते उन्हें कथित देवी देवता से अगर कुछ राहत मिलती है, तो इसमे क्या बुरा है। उन्हें और कुछ मिले या न मिले लेकिन स्वस्थ होने के प्रति विश्वास तो पैदा होता ही है। यह भी जानें: भारत के कुछ मशहूर आध्यात्मिक गुरु जानकारों का मानना है कि अधिकतर ऐसे मरीज़ जल्दी ठीक हो जाते हैं, जिनके मन मे यह विश्वास होता है कि वे ठीक हो रहे हैं या ठीक हो जायेंगे। ज़्यादातर भूमिका तो मन के संकल्प की ही होती है। हमारे पूर्वजों को इस मनोविज्ञान का पता था। इसे और अधिक प्रभावी बनाने के लिये इसे धार्मिक स्वरूप दे दिय गया। जहाँ यह बात सही है कि ये कथित देवी देवताओं के दरबार मेडिकल साइंस के विकल्प नहीं हो सकते, लेकिन पहले ये सुविधाएं गाँव गाँव तक पहुँचें तो सही। इसके अलावा इलाज पर आने वाली लागत इतनी हो, कि ग़रीब आदमी भी उसे वहन कर सके। यह तथ्य भी ध्यान मे रखा जाना चाहिए कि कल्पित या मानी हुयी बीमारियों का इलाज भी मेडिकल साइंस मे नहीं है। इन बातों के मद्देनजर कथित देवी देवताओं के लोगों के सिर आने या उनके दरबार की भूमिका को सिरे से ख़ारिज नहीं किया जा सकता। यह भी सही है कि इसकी आड़ मे बहुत तरह के फर्जीवाड़े होते हैं, लेकिन इन्हें रोकने के उपाय किये जा सकते हैं। हम यह नहीं चाहते कि ये दरबार आदि हमेशा बने रहें, लेकिन इनका प्रभावी विकल्प उबलब्ध होने तक इनके चलने से नुकसान कम लाभ अधिक हैं। इन्हें अंधविश्वास कहकर ख़ारिज़ करना व्यवहारिक दृष्टि से उचित नहीं है। यह भी जानें: ‘अंधविश्वास’ पूरी दुनिया में है -दिनेश मालवीय