एक और वाल्मीकि हुए हैं -दिनेश मालवीय


स्टोरी हाइलाइट्स

एक और वाल्मीकि हुए हैं -दिनेश मालवीय भारत में महापुरुषों की अनंत श्रंखला है. रामायण की रचना कर आदि कवि होने  का गौरव पाने वाले वाल्मीकि को दुनिया जानती है, लेकिन यह बात कम ही लोग जानते हैं कि एक और वाल्मीकि हुए हैं. वह न तो कवि थे और न बहुत प्रसिद्ध व्यक्ति, लेकिन महानता में किसी भी तरह कम न थे. उनकी ईश्वर भक्ति और सद्गुणों के कारण भगवान ने उनके माध्यम से कुरु साम्राज्ञी द्रोपदी के गर्व का दलन करवाया और एक बार फिर यह बात प्रतिष्ठित की कि व्यक्ति अपनी जाति और कुल से नहीं अपने आचरण से महान या नीच होता है. भगवान को आचरण ही प्रिय है. श्वपच जाति में जन्में यह वाल्मीकि भगवान के अनन्य भक्त थे. वह हमेशा गुप्त रहते थे और अपने गुणों को कभी प्रकट नहीं करते थे और न होने देते थे. लेकिन भगवान ने उनके सद्गुणों को सामने लाकर महारानी द्रोपदी के गर्व का दलन किया. इस कथा का महाभारत में बहुत सुन्दर वर्णन मिलता है. महाभारत युद्ध में विजय के बाद युधिष्ठिर राजा बने. राजा बनने पर उन्होंने एक बहुत बड़ा यज्ञ किया. इसमें उन्होंने इतनी बड़ी संख्या में ऋषियों-महर्षियों को आमंत्रित किया कि विशाल यज्ञस्थल भर गया. भगवान श्रीकृष्ण ने शंख की स्थापना की और कहा कि यज्ञ के सांगोपांग पूरा हो जाने पर उसका प्रभाव और महिमा यह शंख कहेगा. अर्थात यह ख़ुद ही बजने लगेगा. यदि यह न बजे तो समझिये कि यज्ञ में कोई कमी या त्रुटि रह गयी. यही हुआ. पूर्णाहूति, तर्पण, ब्रह्मभोज और दान-दक्षिणा आदि सब काम पूरे विधि-विधान से पूरे हो गये. लेकिन शंख नहीं बजा. सभी को बड़ी चिंता हुयी. उन्होंने भगवान से पूछा कि इसमें कौन सी कमी रह गयी? भगवान बोले कि यद्यपि आपने चारों दिशाओं से ऋषियों के समूह को आमंत्रित किया और सभी ने भोजन किया, लेकिन किसी रसिक वैष्णव ने भोजन नहीं किया. यदि आप लोग कहें कि इन ऋषियों में क्या कोई भक्त नहीं है, तो मैं कहूंगा कि बिल्कुल हैं. फिर भी मैं सर्वश्रेष्ठ रसिक वैष्णव भक्त उसे मानता हूँ, जिसे अपनी जाति, विद्या, ज्ञान आदि पर बिलकुल अहंकार न हो. यदि यज्ञ पूर्ण करने की कामना है तो किसी ऐसे भक्त को लाकर भोजन कराइए. युधिष्ठिर बोले कि आप की बात सच है, लेकिन हमारे नगर में या आसपास ऐसा भक्त कहीं दिखाई नहीं देता. भगवान बोले कि वह तुम्हारे नगर में ही रहता है. वह दिन-रात सुबह शाम तुम्हारे यहाँ आता-जाता भी है, लेकिन उसे कोई जानता नहीं. वह स्वयं भी कभी अपने को प्रकट नहीं करता. यह सुनकर सभी आश्चर्य में पड़ गये और उन्हें उस भक्त को जानने की उत्कंठा हुयी. युधिष्ठिर ने कहा कि आप उनका पता बताइये, हम उन्हें सादर बुलवाएंगे. भगवान ने कहा कि श्वपच वाल्मीकि के घर चले जाओ, जो सभी विकारों से रहित सच्चे साधु हैं. हालाकि मैंने यह बताकर अपराध किया है, क्योंकि मेरे भक्त कभी प्रकट होना नहीं चाहते. लेकिन तुम्हारा यज्ञ सफल करने के लिए मैंने यह किया है. भगवान की बात सुनकर अर्जुन और भीमसेन स्वयं भक्त वाल्मीकि को निमंत्रण देने जाने लगे. भगवान ने उन्हें सतर्क किया कि उन्हें देखकर मन में कोई विकार न लाना, अन्यथा तुम्हारी भक्ति में दोष आ जाएगा. दोनों भाई वाल्मीकि के घर पहुँचे. उनके घर की प्रदक्षिणा की. साष्टांग प्रणाम किया. दोनों राजपुरुषों के भीतर जाने पर भक्त वाल्मीकि बहुत संकोच में पड़ गये. अर्जुन और भीमसेन ने विनम्रता से निवेदन किया कि आप हमारे घर पधार कर अपनी जूठन गिराकर हमारे पापग्रहों को दूर कीजिए. वाल्मीकि बोले कि हम तो सदा से आपकी जूठन उठाते है और आपके द्वार पर झाडू लगाते हैं. आप मुझे निमंत्रण क्यों दे रहे हैं? दोनों भाइयों ने कहा कि हम नहीं जानते लेकिन आप सुबह हमारे घर पधारिये और आपके भोजन करने के बाद ही हम भोजन करेंगे. श्रीकृष्ण ने द्रोपदी को समझा दिया कि तुम सभी प्रकार के व्यंजन बहुत अच्छी तरह से बनाओ. यह तुम्हारी पाककला की परीक्षा होगी. भोजन तैयार होने पर राजा युधिष्ठिर वाल्मीकि को लिवा लाये. वह बोले कि मैं निचली जाति का हूँ, अत: मुझे बाहर ही भोजन करा दें. लेकिन श्रीकृष्ण के कहने पर उन्हें पाकशाला में बैठाया गया. उनके सामने सभी व्यंजन परोसे गये. वाल्मीकि द्वारा रसमय प्रसाद का कौर लेते ही शंख बज उठा, लेकिन थोड़ी देर में बंदnहो गया. भगवान ने शंख से पूछा कि तुम भक्त के भोजन करने  पर भी ठीक से क्यों नहीं बज रहे हो? शंख  बोला कि यह बात आप द्रोपदी से पूछिए. पूछने पर द्रोपदी ने कहा कि भक्तजी सभी व्यंजनों को एकसाथ मिलाकर खा रहे थे. इसमें मेरी रसोई की कुशलता धूल में मिल गयी. अपनी पाक विद्या का ऐसा निरादर देख कर मेरे मन में आया कि आखिर यह है तो श्वपच जाति का ही. यह व्यंजनों का स्वाद लेना क्या जाने! भगवान ने भक्त से सभी व्यंजनों को एकसाथ मिलकर खाने का कारण पूछा, तो उन्होंने कहा कि इनका भोग तो आप पहले ही लगा चुके हैं. लिहाजा पदार्थ बुद्धि से अलग-अलग स्वाद कैसे लूँ. ऐसा न करूँ तो इसमें प्रसाद बुद्धि कैसे रहेगी? मैं तो प्रसाद का सेवन कर रहा हूँ, व्यंजन नहीं खा रहा हूँ. यह सुनकर द्रोपदी के मन में भक्त के प्रति बहुत सद्भाव जागा. शंख ज़ोरों से बजने लगे. लोग भक्त की जय-जयकार करने लगे. इस प्रकार यज्ञ पूर्ण हुआऔर भक्ति भगवान द्वारा भक्ति की महिमा स्थापित की गयी. इसीलिए किसी संत ने कहा है कि जात-पात पूछे नहीं कोई, हरि को भजे सो हरि को होई.