भारत युद्धरत है: हर भारतीय को लड़ना है -दिनेश मालवीय


स्टोरी हाइलाइट्स

भारत युद्धरत है: हर भारतीय को लड़ना है -दिनेश मालवीय अनेक लोग और मीडिया रोज़ाना आशंकाएं जाता रहा है कि निकट भविष्य में भारत को युद्ध की विभीषिका जूझना पड़ सकता है. देश की सीमाओं पर जो हालत हैं और हमारे कतिपय पड़ोसियों का जो शत्रुतापोर्ण रवैया है, उसके चलते इस बात की बहुत संभावना से इंकार नहीं किया जा सकता. पूरी संभावना है कि देश को एकाधिक मोर्चों पर युद्ध करना पड़ सकता है. न्यूज चैनल हमारी सेनाओं की तैयारियों और दुश्मन देशों की फौजी ताक़त पर भी समय-समय पर रिपोर्टिंग करते रहते हैं. लेकिन अक्सर मन में प्रश्न उठता है कि क्या सीमाओं पर शत्रु-सेनाओं से युद्ध ही युद्ध कहलाता है? क्या भारत अभी युद्धरत नहीं है? क्या देश में युद्ध जैसे संकट अभी विद्यमान नहीं हैं? ध्यान से देखें-समझें तो भारत बहुत से मोर्चों पर एकसाथ लड़ रहा है.  ज़रा सोचकर देखिये एक तरफ देश महाविनाशक कोरोना महामारी से जूझ रहा है, तो दूसरी ओर आर्थिक संकट सुरसा की तरह मुँह फैलाता जा रहा है. एक तरफ देश को तोड़ने की मंशा रखने वाली ताकतें सिर उठाये हैं, तो दूसरी तरफ देश के ही भीतर चंद लोग देश के साथ गद्दारी करने में कोई कसर नहीं छोड़ रहे. जाति और धर्म के नाम पर समाज और देश में बहुत सुनियोजित तरीके से विभाजन किया जा रहा है. नयी पीढ़ी को अपनी सांस्कृतिक विरासत से काटने का बड़ा खेल चल रहा है. जीवन मूल्यों का जैसा क्षरण इस दौर में हो रहा है, वैसा कदाचित पहले कभी नहीं हुआ. एक तरफ बेरोजगारी का संकट गहरा रहा है, तो दूसरी तरफ व्यापार-व्यवसाय के क्षेत्र में भी कोई आदर्श स्थिति नहीं है. क्या ये सारी परिस्थतियाँ किसी विनाशक युद्ध से कम हैं? जी, बिल्कुल नहीं. युद्ध के समय तो दुश्मन सामने होता है और हमारी सेनाएं उससे लडती हैं, लेकिन ये जो परिस्थितियाँ हैं, इनसे एकसाथ जूझना कितना कठिन है, इसकी कल्पना करना तक बहुत मुश्किल है. इन सारी परिस्थितियों से सिर्फ सरकार नही निपट सकती. सरकार किसी भी दल की हो, उसकी अपनी सीमाएँ होती हैं. हर चीज सिर्फ सरकार नहीं कर सकती. यह ऐसा युद्ध है, जिसे सेनाएँ नहीं लड़ सकतीं. यह युद्ध तो समाज को ही लड़ना होगा. देश के हरएक नागरिक को सैनिक बनना होगा. जो जहाँ है, वहीँ अपने कर्तव्यों का पूरी निष्ठा से पालन करे, तो ही यह युद्ध जीता जा सकता है. हमने इतिहास में पढ़ा और सुना है कि पुराने समय में भारत में युद्ध करना सिर्फ क्षत्रियों का काम था. समाज के शेष तीनों वर्ण उनपर यह जिम्मेदारी सौंपकर अपना-अपना काम करते रहते थे. मैंने कहीं पढ़ा है कि प्लासी के युद्ध में जब अंग्रेजों की जीत हो गयी, तब एक अंग्रेज ने कहीं लिखा कि भारत की सेना को लोग अपने घर की खिडकियों और छतों से हारते हुए देख रहे थे. उसने लिखा है कि अगर उनमें से हरएक व्यक्ति हमारे ऊपर पत्थर ही बरसाता तो हमारा जीतना मुश्किल था. एक बहुत दुर्भाग्यपूर्ण बात यह हुयी है कि कुछ लोग सिर्फ सरकार की आलोचना को ही अपना परम धर्म समझने लगे हैं. उनके घर के सामने कचरा पड़ा हो तो उसे दूर करने की जगह वे इसके लिए भी वह सरकार को ही गाली देंगे. लोकतांत्रिक व्यवस्था में सरकार यदि कोई गलत काम करे या आपको उसका कोई काम गलत लगता हो, तो उसका पूरी ताक़त से विरोध और आलोचना करने का अधिकार हरएक नागरिक को है. लेकिन सिर्फ विरोध के लिए विरोध करना या सरकार का ऐसा विरोध करना कि वह देश का विरोध हो जाए, कहीं से भी उचित नहीं है. सरकार या सरकार के मुखिया से किसीका वैचारिक या कोई अन्य प्रकार का विरोध हो सकता है, लेकिन उसके विरोध में पागल होकर ऐसे काम करना या ऐसी बात करना उचित नहीं है, जिससे देश के हितों को नुकसान पहुँचता हो. भारत दुनिया का ऐसा सबसे बड़ा लोकतांत्रिक देश है, जहाँ अनेक प्रकार की विविधताएँ हैं. इतनी विविधताएँ अपने दामन में समेटने वाला दुनिया में कोई दूसरा देश नहीं है. लेकिन इसकी खूबसूरती यही है कि ये सारी विविधताएँ किसी गुलदस्ते के उन फूलों की तरह हैं, जिनकी रंगत और खुशबू अलग अलग होती है. उन सब से मिलकर ही एक सुंदर गुलदस्ता बनता है. किसी एक रंग के गुलदस्ते में सुन्दरता किसी रंग-बिरंगे फूलों से सजे गुलदस्तों की तरह कहाँ होती है? राजनैतिक लोगों और राजनीति का पतन तो हो ही गया है, एक और बहुत खतरनाक बात इस देश में यह हो गयी है. हमारा बुद्धिजीवी वर्ग, लेखक और कवि गहरी वैचारिक संकीर्णता के शिकार हो गये हैं. मीडिया भी वैचारिक आधार पर बंट गया है. उनके अपने निहित स्वार्थ भी अपने चरम पर पहुँच गये हैं. लोकतंत्र में सही जनमत निर्माण और देशवासियों को एकजुट रखते हुए सही दिशा में आगे ले जाने में सबसे बड़ी भूमिका इसी वर्ग ही होती है. लेकिन दुर्भाग्य से यही वर्ग आज बहुत बुरी तरह भटक गया है, या अपने स्वार्थों में अंधा हो गया है.  हालत इतनी बिगड़ चुकी है कि किसी घटना या मुद्दे पर लिखे गये लेख या दिए गये वक्तव्य को पूरा पढने की ज़रूरत ही नहीं है. आप बस लेखक का नाम पढ़ लीजिये, आपको समझ आ जाएगा कि इसमें क्या लिखा होगा. बुद्धिजीवियों की ऐसी वैचारिक अंधभक्ति या चाटुकारिता लोकतंत्र के लिए सबसे घातक होती है. इस लिए हम कह सकते हैं कि भारत आज बहुत भयंकर युद्ध लड़ रहा है, जिसमें जीतने के लिए हरएक भारतवासी को सैनिक बनकर लड़ना होगा.