ब्रह्मज्ञान का गणित : पूर्ण ब्रम्ह का गणितीय विस्तार


स्टोरी हाइलाइट्स

अध्यात्म के जगत में मान्यता एवं कुछ 'भी मनभदत या निरर्थक नहीं है। ब्रह्मज्ञान का गणित : पूर्ण ब्रम्ह का गणितीय विस्तार | Mathematics of Brahmagyan

ब्रह्मज्ञान का गणित : पूर्ण ब्रम्ह का गणितीय विस्तार
Brahmagyan

अध्यात्म के जगत में मान्यता एवं कुछ 'भी मनभदत या निरर्थक नहीं है। हर कृत्य के पीछे उसका व्यावहारिक एवं मनोवैज्ञानिक तथ्य भी है। सच तो यह है विज्ञान और गणित मिलकर इसे और भी प्रमाणिक बनाते हैं।

''2'- इसे क्या कहते हैं?

'दो!'

I।- अब इसे क्या कहते हैं?

दो।

जी हां, ऊपर लिखे दोनों चिह्नों को दो कहा जाता है। फर्क केवल बाहरी आकार-प्रकार या बनावट का है। पर दोनों के पीछे एक ही अप्रत्यक्ष अंक रहता है। वह है दो ।

ठीक यही तीन की सच्चाई है। हम इसे 3 या III दोनों प्रकार से चिह्नित कर सकते। परंतु दोनों चिन्हों के पीछे एक ही समाया है। वह है- तीन ।

यही नहीं, 2 या (II) व 3 या (III)- ये सभी चिह्न तो सहज देखे जा सकते हैं। परंतु इनमें समाए अंक दो या तीन अमूर्त हैं। इन्हें आंखों से देख पाना संभव नहीं।

क्या गणित से जुड़ी यह छोटी सी सच्चाई हमारे अस्तित्व की एक गूढ़ सच्चाई की तरफ इशारा नहीं कर रही। हमारा भी एक प्रत्यक्ष दिखने वाला रूप है। दूसरा, अप्रत्यक्ष न दिखने वाला रूप है। प्रत्यक्ष रूप समय-समय पर अलग-अलग आकार धारण कर लेता है। पर अप्रत्यक्ष रूप, जो प्रत्यक्ष रूप में समाया है, वह है- जीवात्मा। अतः गणित की भाषा में कह सकते हैं कि 2 या II- देह है और दो- जीवात्मा ।

इसी तरह गणित के अंक बहुत कुछ समझाते हैं। आत्म साक्षात्कार के बड़े गहरे सूत्र देते हैं। मानों ये हमें सत्संग सुना रहे हों। आइए, अब इनसे ब्रह्मज्ञान का उपदेश सुनें।

एक कोई सा भी अंक लेते हैं। मान लीजिए- '5'। इस पांच को हम साधारणतः कैसे लिखते हैं? '5' या 'वी' यानी एक सीमित अंक की तरह। पर क्या आप जानते हैं, इस सीमित अंक का एक असीमित रूप भी है? मतलब कि आप पांच को 4.99999 भी लिख सकते हैं।

ऐसे कैसे? अच्छा चलिए 4.9999 और 5 के बीच का अंक निकाल कर मुझे दे सकते हैं? नहीं न। ऐसा इसलिए, क्योंकि 4.9999 (अनंत बार) दरअसल 5 ही हो जाता है।

आइए अब आगे बताते हैं। पांच के इन दोनों स्वरूपों को देखकर क्या पता चलता है? यही कि एक स्वरूप (यानी 5) सीमित है। दूसरा स्वरूप (यानी 4.999) असीमित है।

ठीक यही कहानी हमारी भी है। प्रत्यक्षतः हम भी सीमित ही नजर आते हैं। पर असल में, हम असीमिता या अनंतता के स्वामी भी हैं। हमारा अनंत स्वरूप भी है।

कैसी असीमितता? क्या है यह अनंत स्वरूप? आइए, अब यही जानें। गणित में अनंतता के लिए एक चिह्न प्रयोग होता है ∞

यह चिह्न या अंक बड़ा ही विलक्षण है। इसके साथ अद्भुत गणित जुड़ा है। जैसे कि

∞+∞=∞ अर्थात् ‘अनंत' में 'अनंत' जोड़ दो, तो भी 'अनंत' ही रहता है।

00 - 00 = ∞ अर्थात 'अनंत' से 'अनंत' घटा दो, तो भी अनंत ही रहता

इस गणित को हम एक उदाहरण से भली भांति समझ सकते हैं। एक सेट

लीजिए।

सेट 1- (1, 2, 3, 4, 5, 6, 7...)- यह अनंत अंकों का सेट है।

एक अन्य सेट लीजिए।

सेट 2- (2,4, 6, 8, 10, 12...) यह भी एक अनंत अंकों का सेट है। अब अनंत सेट 2 को अनंत सेट 1 से घटाइए, तो क्या मिलेगा?

सेट 3- (1,3,5,7,9) एक अन्य अनंत अंकों वाला सेट ही।

तो समीकरण क्या बना?

सेट 1- सेट 2 = सेट 3.

यानी  ∞-∞=∞

इसी प्रकार अनंत सेट 2 को अनंत सेट 3 से जोड़िए। क्या मिला? अनंत सेट 1।

सेट 2 x सेट 3 = सेट 1 यानी ∞+∞=∞

अर्थात 'अनंत' से 'अनंत' को निकाल लें या 'अनंत' को 'अनंत' से मिला दें, दोनों ही पक्षों में 'अनंत' ही हाथ लगता है।

ठीक यही गणित ज्ञान-विज्ञान के भंडार उपनिषदों में दृष्टिगोचर होता है। ईशास्योपनिषद का पहला मंत्र देखिए।

ॐ पूर्णमदः पूर्णमिदं पूर्णात् पूर्णमुदच्यते ।

पूर्णस्य पूर्णमादाय पूर्णमेवावशिष्यते ।।

अर्थात वह पूर्ण ∞ है। यह भी पूर्ण ∞ है। उस पूर्ण से ही पूर्ण उत्पन्न हुआ है। उस पूर्ण से पूर्ण ∞ निकाल लेने पर भी पूर्ण ∞ ही बचा रहता है।

यह 'पूर्ण' आखिर क्या है? ॐ पूर्णमदः अर्थात सच्चिदानंद परब्रह्म ।

अतः ऊपर दी गई भूमिका से यह सिद्ध होता है कि मनुष्य का एक स्वरूप सीमित (जैसे कि 5) है। दूसरा स्वरूप असीमित (जैसे कि 4.99999) है और वह है परब्रह्म पूर्ण सच्चिदानंद स्वरूप। आम दृष्टि से हम पांच को 5 ही देखते हैं। परंतु एक गणितज्ञ की दृष्टि से पांच को 4.9999999 भी देखा जा सकता है। ठीक इसी प्रकार स्थूल दृष्टि से हम स्वयं को सीमित शरीर देखते हैं। परंतु तात्त्विक या ज्ञान दृष्टि से हम अपने अनंत-असीमित परब्रह्म सच्चिदानंद स्वरूप का भी साक्षात्कार कर सकते हैं।

यह तात्त्विक ज्ञान ही ब्रह्मज्ञान है। यह तात्त्विक दृष्टि तृतीय नेत्र या दिव्य दृष्टि है, जो ब्रह्मज्ञान से उजागर होती है। इसे अनंत का दर्शन करने वाली अनंत दृष्टि भी कहा जा सकता है।

इस अनंत दृष्टि को केवल एक पूर्ण गुरु ही जागृत करने की सामर्थ्य रखते हैं, क्योंकि वे स्वयं अनंत या पूर्णता एकाकार हो चुके हैं।

सद्गुरु की महिमा अनंत है, अनंत किया उपकार ।

लोचन अनंत उघारिया, अनंत दिखावनहार ।।

मुण्डकोपनिषद् का भी कथन है- 'तद्विज्ञानार्थ स गुरुवाभिगच्छेत् श्रोत्रियं ब्रह्मनिष्ठम'- उस अनंत ब्रह्मस्वरूप का ज्ञान पाने के लिए ब्रह्मनिष्ठ अर्थात् अनंत में स्थित गुरु के पास जाओ।

अब निर्णय आपके हाथ में है। आप केवल 5 बनकर ही जीना चाहते हैं?

या फिर 4.999999... से संबोधित अपनी अनंत सत्ता को भी जानना चाहते हैं?

आशुतोष
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