ब्रह्माँड के रहस्य -55 यज्ञ विधि -13


स्टोरी हाइलाइट्स

ब्रह्माँड के रहस्य-55                        यज्ञ विधि -13 रमेश तिवारी विषय गंभीर है। आप भी गंभीर हो जाइयेगा। आज हम आत्मा के भोजन की बात करेंगे। आप आश्चर्य करेंगे कि आत्मा के भोजन का विज्ञान किस प्रकार से मेखला से संबद्ध है। जीवात्मा को क्यों "चिदाभाष" कहा जाता है। यजमान को जो शण की मेखला बांधी जाती है वह त्रिवृत(तीन रस्सी)की होती है। इसमें 3 डोर होतीं हैं। शण की 3 अलग अलग डोरियों को भांजा जाता है। "सा वै त्रिवृद् भवति"। यह त्रिवृत क्यों होना चाहिए। देखते हैं- अन्न, उपकरण सामग्री को कहते हैं। जिस वस्तु से आत्मा का स्वरूप बनता है एवं जिससे आत्मा की रक्षा होती है, उसको अन्न कहा जाता है। इसी अन्न को वैदिक भाषा में "पशु" कहा जाता है। पशु का अर्थ है मातहत। अन्न आत्मा के वशीभूत रहता है, जबर्दस्ती से आत्मा अर्थात् प्रजापति भगवान इस अन्न को आत्मसात किया करते हैं। भोजन को पशु कहते हैं, भोजन के अन्न को नहीं। इस आत्म प्रजापति के 3 अन्न हैं- माता, पिता और देव समष्टि। आत्मा चित्त का नाम है। स्वयंभू (सिर के तलुवा में स्थित चेतना) की जो चेतना है, उसी का नाम तो आत्मा है। और उस चित्त के आभाष का नाम "जीवात्मा"। इसीलिए तो वेदान्त में जीवात्मा को "चिदाभाष" कहा जाता है। यह चित्त का आभाष, शुक्र-शोणित (गर्भाधान) के संयोग होते ही हो जाता है। पानी के आते ही जैसे सूर्य उस पर चमकने लगता है। ठीक उसी प्रकार शुक्र-शोणित के समुचित होते ही चित्त का प्रतिबिंब पड़ने लगता है। शुक्र सोम (आक्सीजन) है। सोम का नाम ही महान है। यही चित्त को ग्रहण करने वाला है। जैसे पानी सूर्य का ग्राहक है। उसी प्रकार चित्त का ग्राहक यही महान (सोम, आक्सीजन) है। चिदात्मा का स्वरूप इसी महान पर अवलंबित है। अर्थात चित्त को ग्रहण करने वाले यही शुक्र और शोणित हैं। और भी आसानी से समझ लें। ब्रह्मांँड में पांच तत्व हैं आकाश, पृथ्वी,अग्नि, जल और वायु। यह तत्व सर्वत्र व्याप्त हैं। अनाज, साग सब्जी और फलों आदि के माध्यम से मनुष्य के शरीर में और रक्त में। शुक्र में और शोणित में। स्त्री में और पुरुष में भी। जीवात्मा का स्वरूप शुक्र-शोणित के संयोग से ही उत्पन्न होता है। शुक्र पिता की वस्तु है और शोणित माता की वस्तु। शुक्र सोम है और शोणित माता का गर्म रूधिर। यही अग्नि है। यही शुक्र-शोणित की (आहूति से) आत्मसत्ता होती है। जीवात्मा का जन्म इसी अग्नि सोमान्तक यज्ञ पर निर्भर है। इस दृष्टि जीवात्मा का अन्न माता और पिता ही हैं। जब माता और पिता (संयुक्त) गर्भ (प्रक्रिया) में आत्मा आ जाता है तो, तो उसमें अपने आप पांचों तत्वों का रस भी प्रविष्ट हो जाता है। यही रस देव समष्टि कहलाता है। यही है त्रिवृत स्वरूप आत्मा का। चित्त, शुक्र-शोणित और देव समष्टि। इसीलिए यजमान के लिये जो मेखला तैयार की जाती है, वह भी 3 डोरियों की होती है। अब इसमें लगने वाली शण की रस्सियों को भांजने (बांटने) की विधि भी बहुत ही वैज्ञानिक होती है। इसकी दो विधियां हैं। पहली विधि प्रसलवि (प्रसलि) में रस्सी दाहिनी हाथ की ओर से बांटी जाती है। पितृ कार्य में दक्षिणावर्तया (बाईं हाथ की ओर)। चूंकि दक्षिण में पितर (मृतक) हैं अतः उस ओर बांट नहीं सकते उत्तर में देवता हैं, यजमान देवता अभी है नहीं। हां देवता बनने जा रहा है। अतः दोनों ओर बंटने वाली प्रसलवि और अप्रसलवि मेखला हो नहीं सकती। ऐसी स्थिति में से निकालने का सुन्दर उपाय निकाला याज्ञवल्क्य ने। यह मेखला-"स्तुकाससर्गसृष्टा" होनी चाहिए। अब पाठकों की दुविधा हो सकती है कि मेखला बनाने का और अन्य तरीका क्या हो सकता है। याज्ञवल्क्य ने कहा- "वेणीग्रथन"। चोटी गूंथने में बांयें और दांये दोनों का व्यापार होता है। अतः न मनुष्य कार्य हुआ और न ही पितृ कार्य। इन सब विधियों से निकल कर जब मेखला तैयार हो जाती है- तब यजमान इस मंत्र को बोलते हुए, उसको धारण करता है- उर्गस्याग़्डिरसो ह्येतामूर्जप्सश्यन्नूर्णम्रदा उज्जर मयि धेहि। यह हम पहले ही बता चुके हैं कि गर्भी बने यजमान को त्रिवृत माना गया है- क्योंकि गर्भ की तीन अवस्थायें होतीं है, गर्भ, उल्व (झिल्ली) और जेर (जड़)। और चूंकि इसी गर्भी बने यजमान को त्रिवृत मेखला बांधना है। अतः इन सब वैज्ञानिक प्रक्रियाओं को किया जाता है। आज की कथा यहीं तक। तब तक विदा। धन्यवाद।