भारतीय समाज- पुरुषार्थ (Purushartha)


स्टोरी हाइलाइट्स

भारतीय समाज- पुरुषार्थ (Purushartha)
विश्व में व्यवस्थागत सामाजिक विचारों के विकास में भारत का स्थान सर्वोपरि है। सम्भवतः विश्व गुरु के रूप में देश की पहचान व्यवस्थागत सामाजिक विचारों के कारण ही है हमारे ऋषियों-मनीषियों ने बहुत सोच-विचार कर ऐसी व्यवस्था कायम करने की कोशिश की है, जिसमें कि व्यक्ति और समाज के विकास के समुचित अवसर उपलब्ध हों। वर्णाश्रम, धर्म, कर्म, पुनर्जन्म, संस्कार रूपी व्यवस्थाओं में पुरुषार्थ की धारणा न केवल 'कर्म ही धर्म है, 'कार्य ही पूजा है के आदर्शों के अनुरूप है, बल्कि यह जीवन के अंतिम लक्ष्य मोक्ष की प्राप्ति का एक साधन भी है। 

यहाँ तक की स्वयं मोक्ष भी एक पुरुषार्थ है। पुरुषार्थ की अवधारणा हिन्दू दर्शन के इस लक्ष्य को भी लिए हुए है कि मनुष्य का जन्म अकारण नहीं सकारण है। चौरासी लाख योनियों में भटकने के बाद दुर्लभ मनुष्य की योनि में जन्म मिलता है। इसको सार्थक बनाने के लिए व्यक्ति को अपने आत्मिक और सामाजिक दायित्वों का निर्वाह करने के लिए पुरुषार्थ होना ही चाहिए, वह भी एक व्यवस्थित जीवन की प्राथमिकताओं तथा भोग और त्याग, प्रवृत्ति से निवृत्ति, इस लोक से परलोक के क्रम में होना चाहिए।

पुरुषार्थ का अर्थ (Meaning of Purushartha)

पुरुषार्थ का शाब्दिक अर्थ अभीष्ट या लक्ष्य की प्राप्ति के लिए किया जाने वाला प्रयत्न है। इस दृष्टि से भारतीय, विशेष तौर से हिन्दू दर्शन के अनुसार मनुष्य का अन्तिम लक्ष्य मोक्ष है। अतः सम्यक रूप से धर्म के अधीन रहते हुए अर्थ और काम रूपी पुरुषार्थों को पूरा करते हुए चरम लक्ष्य मोक्ष की प्राप्ति के लिए किया जाने वाला प्रयत्न पुरुषार्थ है इसीलिए कुछ लोग पुरुषार्थ चार न मानकर केवल तीन-धर्म, अर्थ और काम ही मानते हैं। इस संदर्भ में उल्लेखनीय यह है कि आश्रम व्यवस्था में ब्रह्मचर्य, गृहस्थ और वानप्रस्थ आश्रमों के अतिरिक्त मोक्ष प्राप्ति के लि संन्यास आश्रम का प्रावधान भी है। इससे स्पष्ट होता है कि मनीषियों का आशय केवल तीन पुरुषार्थों से नहीं था।

 इसका कारण यह है कि धर्म, अर्थ और काम पुरुषार्थ तो संन्यास आश्रम के पूर्व भी प्राप्त किए जा सकते हैं किन्तु मोक्ष के लिए संन्यास आश्रम में व्यक्ति को जाना पड़ता था अतः मोक्ष भी एक पुरुषार्थ ही है। मानव जीवन के अभीष्ट (लक्ष्य) तीन न होकर चार हैं। के एम.कापड़िया ने भी इन्हें इसी रूप में स्पष्ट किया है कि 'पुरुषार्थ जीवन के चार लक्ष्य धर्म, अर्थ काम और मोक्ष हैं।

इसे और स्पष्ट करते हुए डॉ कापड़िया ने लिखा है, 'पुरुषार्थ का सिद्धान्त इस प्रकार भौतिक इच्छाओं और आध्यात्मिक जीवन में समन्वय स्थापित करने का प्रयत्न है-यह जीवन को उसकी सम्पूर्णता और उसकी आशाओं और महत्वाकांक्षाओं उपलब्धियों और सुखों तथा उसकी शुद्धता और आध्यात्मिक अनुभूति के संदर्भ में समझता है।

इस प्रकार पुरुषार्थ प्राप्त करने योग्य वे लक्ष्य हैं जिनमें कि मानव जीवन की सम्पूर्णता, भौतिकता और आध्यात्मिकता के सभी तत्वों का समावेश है। संक्षेप में इन्हें निम्नानुसार रखा जा सकता है

1. पुरुषार्थ का अर्थ लक्ष्य की प्राप्ति के लिए किए जाने वाले प्रयत्न से है। 

2.भारतीय व्यवस्थागत सामाजिक विचारों की दृष्टि से मानवीय जीवन को सार्थक बनाने के चार प्रमुख अभीष्ट या लक्ष्य हैं ये धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष हैं।

3.इन चार पुरुषार्थों की प्राप्ति में मानव जीवन से सम्बन्धित सभी बातों का समावेश और कर्तव्यबोध निहित है। इनमें मानवीय आवश्यकताओं की पूर्ति के सभी गुण निहित हैं। अतः यह प्राप्त करने योग्य हैं। 

4.पुरुषार्थों में भौतिक सुखों और आध्यात्मिक उन्नति का क्रम निश्चित है| जिसमें जीवन का रास्ता भोगवाद से त्याग की ओर है।

5.पुरुषार्थ आश्रम व्यवस्था से सम्बन्धित है। यह आश्रम व्यवस्था के मानसिक एवं नैतिक निर्देश संसार है। आश्रमों में ही पुरुषार्थ सम्पन्न करने होते हैं।