यह आत्मा ब्रह्म है


स्टोरी हाइलाइट्स

परन्तु यहाँ ‘आत्मा’ शब्द जीवात्मा के लिये नहीं है बल्कि यह तीनों शरीरों के योग द्वारा परित्याग पूर्वक आत्मतत्व का निर्देशक है।

यह आत्मा ब्रह्म है यह आत्मा ब्रह्म है अयमात्मा ब्रह्म, यह आत्मा ब्रह्म है। परन्तु यहाँ ‘आत्मा’ शब्द जीवात्मा के लिये नहीं है बल्कि यह तीनों शरीरों के योग द्वारा परित्याग पूर्वक आत्मतत्व का निर्देशक है। प्रथम पुरुष, मध्यम पुरुष, और उत्तम पुरुष, और आत्मा कृमशः एक दूसरे से अधिक समीपता के सूचक हैं। इसमें आठ प्रकृतियाँ एक - मूल प्रकृति, दो - महतत्व, तीन - अहंकार, पाँच तन्मात्रा शब्द, स्पर्श, रूप, रस, गंध हैं। इसमें सोलह विकारों के रूप में पाँच स्थूलभूत आकाश, वायु, अग्नि, जल, प्रथ्वी हैं। ग्यारह इन्द्रियाँ, पाँच ज्ञानेन्द्रियाँ, कान, त्वचा, आँख, जीभ, नाक हैं। पाँच कर्मेंन्द्रिया हाथ, पैर, लिंग, गुदा, वाणी हैं, और ग्यारहवाँ मन है। जिसके आगे कोई नया तत्व उत्पन्न हो, उसे प्रकृति कहते हैं। जिसके आगे कोई नया तत्व उत्पन्न न हो उसे विकृति कहते हैं। ग्यारह इन्द्रियाँ और पाँच स्थूलभूत का शरीर प्रकट है, प्रत्यक्ष है। इसलिये ये विकृति है। क्योंकि नया तत्व उत्पन्न नहीं होता। इनकी प्रकृति अनुमानगम्य है जो इनमें अप्रकट है। ध्यान - स्थूल शरीर से अंतर्मुख होने पर ध्यान की प्रथम परिपक्व अवस्था में दिव्य निर्मल शब्द, स्पर्श, रूप, रस, गंध, दिखता है। ये पाँच तन्मात्रा पाँच स्थूलभूतों की प्रकृति भी हैं। परन्तु प्रकट हो जाने पर ये विकृति हो गयीं। इसलिये इनकी प्रकृति भी अनुमानगम्य है, जो इनमें अप्रकट है। पाँच तन्मात्रा से अन्तर्मुख होने पर ग्यारह इन्द्रियाँ और पाँच तन्मात्रा की प्रकृति ‘अहंकार’ का साक्षात्कार होता है किन्तु प्रकट होने से ये भी विकृत हो गये। इसलिये इनकी भी प्रकृति भी अनुमानगम्य है। अहंकार से अन्तर्मुख होने पर अस्मितावृति और अस्मितावृति से ‘चेतन तत्व’ की और जाते हैं। चेतन तत्व के दो भेद हैं - जङतत्व + चेतनतत्व। ये शबल, ऊपर और सगुण स्वरूप है। दूसरा शुद्ध है, जो परे है, और निर्गुण स्वरूप है। अब इसमें मिश्रित के दो भेद हैं। व्यष्टि रूप से अनन्त शरीरों के सम्बन्ध से ह्रदयाकाश में जो बैठा है। समिष्टि रूप से सारे ब्रह्माण्ड के सम्बन्ध में, जो ब्रह्माण्ड में व्यापक है। जो कामनाओं से रहित है, जो कामनाओं से बाहर निकल गया है, जिसकी कामनाएं पूरी हो गयीं हैं या जिसको केवल आत्मा की ही कामना है, उसके प्राण नहीं निकलते यानी वह जीव की तरह नहीं मरता। वह ब्रह्म ही हुआ ब्रह्म को पहुँचता है। ब्रह्म के शबल स्वरूप की उपासना और उसका साक्षात्कार कारण शरीर से होता है। शुद्ध चेतनतत्व में कारण शरीर और कारण जगत परे ही रह जाता है। यहाँ न द्वैत रह जाता है, और न अद्वैत। कोई द्वैत की और कोई अद्वैत की इच्छा करते हैं ये दोनों शुद्ध परमात्म तत्व को नहीं जानते। वह द्वैत अद्वैत दोनों से परे है, उसमें न द्वैत है, और न अद्वैत है। तीन गुणों का स्वभाव इस तरह से है। सत का स्वभाव - प्रकाश, रज का - क्रिया, तम का - स्थिति है। स्थूलभूतों की सूक्ष्मता के तारतम्य के लिये हुये पाँच तन्मात्राओं की एक सूक्ष्मावस्था होती है। जिसके अन्तर्गत सारे सूक्ष्म लोक लोकांतर हैं। प्रलय में केवल प्रथ्वी जल अग्नि का स्वरूप से लय और सृष्टि में उत्पन्न होना होता है।