वरुण इंद्र संघर्ष, प्रथम बंटवारा...! रावण की त्रैलोक्य विजय - 52


स्टोरी हाइलाइट्स

हम देवताओं के एक तरफा प्रशंसक हैं। हमने कल ही कहा था न कि देवता कुल 33 ही हैे। वह भी सब आग्नेय हैं। अग्निरुप। शरीर धारी तो कोई है ही नहीं। आग्नेय का अर्थ हम आगे पता करते हैं।

वरुण इंद्र संघर्ष, प्रथम बंटवारा...! रावण की त्रैलोक्य विजय - 52  रमेश तिवारी हम देवताओं के एक तरफा प्रशंसक हैं। हमने कल ही कहा था न कि देवता कुल 33 ही हैे। वह भी सब आग्नेय हैं। अग्निरुप। शरीर धारी तो कोई है ही नहीं। आग्नेय का अर्थ हम आगे पता करते हैं। सही तो यह है कि देव एक जाति थी।जैसे हम आर्य। हम रावण द्वारा वरुणालय पर किये गये जोरदार आक्रमण की कथा प्रारंभ करें। इसके साथ ही एक बात पर गौर करें। रावण अपनी चतुरंगिणी सेना के साथ रसातल और देवलोक में कोई दो वर्ष से अधिक समय से उपस्थित था। एक एक कर विजय प्राप्त करता जा रहा था। किंतु रावण की नीति और नीयत से अनजान वरुण ब्रह्मलोक (उत्तर ध्रुव, सुमेरु पर्वत) में संगीत सुनने गये थे। क्या देवताओं के लोकपाल जैसे प्रतिष्ठित पद पर बैठे वरुणदेव को रावण के अभियान की भनक तक नहीं लगी होगी। विमान शास्त्र के प्रकरणों (विष्णु की आत्मकथा)में हम बता चुके हैं कि तब के विश्व में कितने अत्याधुनिक विमान थे। आकाश मेे विमान यात्री आपस में बातें तक करते चलते थे। इतनी महान तकनीक के बावजूद भी वरुण को युद्ध संबंधी कोई खबर नही लगी। अपने राज्य की सुरक्षा के मामले में उन्होंने क्या किया। रावण और वरुणालय के बीच हुए घनघोर युद्ध की आंखों देखी कथा सुनना अलग बात। किंतु महत्वपूर्ण यह भी कि क्या देवताओं में आपसी तालमेल तक नहीं था। इस बात का सीधा प्रमाण तो यह भी मिलता है कि विष्णु हरि का परम्परागत शत्रु रावण आठ दिनों तक हरि के पुत्र यमराज से युद्घ करता रहा किंतु यम को किसी ने सहायता नहीं की। हालांकि वरुण तो स्वयं भी यम के ताऊ जी थे। वे भी सहायता करने आ सकते थे। लेकिंन नहीं।अब जब वरुण के राज्य पर रावण ने आक्रमण कर दिया तो उनकी सहायता के लिए भी कोई नहीं पहुंचा। हां आगे जब रावण इंद्र पर टूट पड़ने वाला था,तब विष्णु हरि ने इंद्र तक को सहायता करने से मना कर दिया था। उन्होंने कहा था -इंद्र मैं तुम्हारी कोई सहायता नहीं करूंगा। समय आने पर मैं स्वयं ही इस राक्षस का संहार करूंगा। तब तक दशरथ ने पुत्रेष्टि यज्ञ नहीं किया था। वरुण के पुत्रों ने रावण के आक्रमण की भनक लगते ही जोरदार प्रतिकार किया। रावण की,चतुरंगणी सेना के दांत भी खट्टे कर दिये। किंतु रावण इस से संतुष्ट नहीं था। वह तो विकट था। विक्रमी था। युद्ध का विशारद था। रावण का तो जन्म ही शायद युद्ध के लिये हुआ था। युद्धो मेंं लड़ते लड़ते उसकी छाती और शरीर में घाव ही घाव हो गए थे ।घातक से घातक। गहरे। वरुण पुत्रों और रावण की सेना में थल पर और नभ में भी युद्ध हुआ। विमानों का भी खूब उपयोग हुआ। एक समय तो ऐसा भी आया कि जब रावण को युद्ध से विमुख होना पड़ा। लगभग पराजय की स्थिति में पहुंच गया। परन्तु महोदर नामक योद्घा मंत्री से अपने स्वामी की यह दुर्गति देखी नहीं गई।उसने सेना को संगठित किया। विजय का मंत्र फूंका। फिर स्वयं के ही नेतृत्व में वारुणेयों पर टूट पडा़। महोदर के दुर्घर्ष संघर्ष का परिणाम भी सुखद रहा। वारुणेयों की पराजय हुई।वे वरुण पुत्र एक एक करके गिरने लगे। तब उनके युद्ध सेवक उन सब को सुरक्षित स्थानों पर ले जाने लगे। अब रावण ने वरुण को ललकारा। गरजते हुए युद्धामंत्रण देने लगा। किंतु सेवकों द्वारा यह बताने पर कि वरुण देव तो ब्रह्मलोक में संगीत सुनने गये हैं। अपनी विजय का उद्घोष करते हुए रावण सेना सहित लंका की ओर लौट गया। वह जिस मार्ग से आया था ,उसी मार्ग से लौटा था। अब हम देवताओं में एकता के अभाव और इंद्र और वरुण के बीच राजनैतिक खींचतान की संक्षिप्त चर्चा भी करलें। भरतखंड की सीमा के संबंध में उल्लेख देखें -यूरोप और साईबेरिया (काकेशश पर्वत की सीमा से लगा, कालासागर,अजरबैजान (जो पहले आर्यवीर्यवान कहलाता था) और ईरान की सीमा पर काश्यपसागर, रूस मध्य में अरल सागर और बल्काश लेक,इलावर्त,पामीर का पठार (प्राग्मेरू), अल्ताई पर्वत यहां तक भरतखंड की सीमा थी। यह चारों बड़े समुद्र थे। परन्तु हजारों वर्षों में प्राकृतिक कारणों से यह छोटे होते चले गये। शतपथ ब्राह्मण सहित पौराणिक ग्रंथों में उल्लेख है कि यह क्षेत्र भरतखंड कहलाता था।सुमेरु पर्वत, उत्तर ध्रुव से लेकर अपगण (अफगानिस्तान) जिसको श्वेत भारत भी कहते थे, तक उत्तर कुरू प्रदेश था। इसमें ईरान और ईराक सभी आते थे। कालांतर से मतभेदों के चलते विवाद होने लगे। अदिति के सबसे बडे़ पुत्र वरुण और अति महत्वाकांक्षी इंद्र में कटुता ज्यादा ही बढ़ गई।और ....!भरतखंड का प्रथम बंटवारा हो गया। ईरान की सीमा से अफगानिस्तान, पाकिस्तान और पंजाब वाला गंगा और विंध्याचल पर्वत तक का क्षेत्र आर्यावर्त और उत्तर कुरु का यूरोप तक लगा क्षेत्र आर्यायण कहलाने लगा। लेखक भोपाल के वरिष्ठ पत्रकार व धर्मविद हैं |